जब चीज़ें बात कर रही हों, तो आप सो कैसे सकते हैं?
कुछ रातों को जब मैं बिस्तर से उठता हूँ, मैं समझ ही नहीं पाता हूँ कि लिनोलियम इस तरह से कैसे है. उसका हरेक चौखटा अपने ऊपर लाइनें लिए हुए है. क्यों? और हर चौखटा दूसरे से अलग है.
बाद में, यही बात भट्ठी के पाइप के साथ देखने को मिलती है. जैसे वह अपनी ही इच्छाशक्ति पर मरोड़ा जा रहा हो, कह लीजिये कि मैं बोर हो चुका हूँ. मैं कुछ देर के लिए भट्ठी होना चाहूँगा, न कि पाइप.
लैम्प एकदम अटपटा-सा लगता है. अगर आप उसमें लगे बल्ब को नहीं देख पा रहे हैं, तो आप यह अंदाज़ लगा लेंगे कि रोशनी उसके जस्ते के धड़ और साटन के शेड से निकलती है. आप जानते हैं न, जिस तरीक़े से रोशनी किसी व्यक्ति के चेहरे से फैलती है - कुछ-कुछ उसी तरह से. मैं जानता हूँ कि यह आपके साथ भी कभी-कभी होता है: इसलिए, उदाहरण के लिए, अगर एक बल्ब मेरी खोपड़ी के भीतर जल रहा होता, कहीं-किसी ज़्यादा गहराई में, मेरी आँखों और मुँह के बीच, तो कितनी खूबसूरती से वह रोशनी मेरे छिद्रों से विसरित होती - आप भी यह सोचने के लिए सक्षम हैं, बिजली ग़ुल होने के बाद शाम के वक़्त का वह हिस्सा जब रोशनी हमारे ललाट और गालों से विसरित हो रही होगी....
लेकिन आप ऐसे सोचना कभी स्वीकार नहीं करते हैं.
मैं भी नहीं करता. मैं ये किसी से नही कहता ...
कि दरवाज़े के सामने पड़ी खाली बोतलें न तो इस दुनिया से कोई वास्ता रखती हैं न ही एक दूसरे से. कि किसी भी घटना के दरम्यान दरवाज़े न पूरे बंद होते हैं और न खुले और इसीलिए वे आशा का कारण होते हैं.
कि पूरी रातभर, सुबह तक, आरामकुर्सी की खोली पर बनी घोंघे की आकृतियाँ बतियाती रहती हैं - हम मुड़ते हैं और बल खाते हैं लेकिन ये कोई जान नहीं पाता है.
कि आसपास कहीं पर, मेरे पैरों के तीन इंच नीचे या छत के भीतर, दीमकों की तरह कोई विचित्र-सा कीड़े का बच्चा लोहे और कंक्रीट से होता कुतरता जाता है.
कि मेज़ पर पड़ी कैंची कई समय से दबी पड़ी अपनी अदम्य इच्छा के वशीभूत होकर काटने के लिए कूद उठती है, हर उस चीज़ को जो रास्ते में आएगी, लेकिन ये खेल पंद्रह मिनट से अधिक नहीं चलेगा.
कि टेलीफोन दूसरे टेलीफोन से बात करता है कि क्यों वह चुप पड़ा हुआ है?
इन चीज़ों के बारे में मैं किसी से बात नहीं करता हूँ. एक समय था कि जब मैं परेशान था, यहाँ तक कि डरपोक भी, कि इन अतियथार्थ दृश्यों को किसी से बाँट नहीं पाता था, कोई इन चीज़ों पर बात नहीं करता और शायद इसलिए मैं अकेला ऐसा हूँ जो इन्हें देखता हूँ. किसी जिम्मेदारी के प्रति निर्वाहक-बोध होना किसी बोझ से कहीं ज्यादा है. यह किसी मनुष्य को यह पूछने के लिए तत्पर करता है कि क्यों जीवन का यह महान रहस्य किसी एक के सामने ही उद्घाटित हुआ? क्यों राखदान अपनी हार और अपने दुःख के बारे में सिर्फ़ मुझसे ही कहती है? दरवाज़े की कुण्डी के पापों का साक्षी मैं ही क्यों हूँ? मैं ही ऐसा अकेला इन्सान क्यों हूँ जो ये सोचता है कि फ्रिज खोलते ही वह अपनी बीस साल पहले की दुनिया में आ जाएगा? घड़ी के बगल वाले सीगल पक्षी को और दीवारों के आधार के प्राणियों की किनमिनाहट को मैं ही क्यों सुन पता हूँ?
क्या अपने कभी भी कालीन के झब्बेदार किनारों को देखा है? या उसकी कलाकारी के गुप्त चिन्हों को?
जब ये दुनिया इतने ज़्यादा चिन्हों और जिजीविषाओं से आलोकित हो रही है तो कोई भी कैसे सो सकता है? मैं अपने आप से ये कहकर अपने को शान्त रखने की कोशिश करता हूँ कि लोगों की इस तरह के चिन्हों में इंतनी कम दिलचस्पी नहीं हो सकती और जैसे ही मैं सोता हूँ, मैं भी इस सारी कहानी का हिस्सा हो जाता हूँ.
(सोर्स : अदर कलर्स; अनुवाद : सिद्धान्त मोहन तिवारी)
(सोर्स : अदर कलर्स; अनुवाद : सिद्धान्त मोहन तिवारी)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें