(सामने हैं शिरीष कुमार मौर्य की तीन कविताएँ. कविता "व्योमेश को चिट्ठी" आत्मकथ्य की स्वीकारोक्ति से उपजने वाली कविता है, जहाँ चिट्ठी की शुरुआत काव्यात्मक अंत में बदल जाती है. साहित्य में जो परम्पराएं हम विकसित होते देख रहे हैं, ये उन्हें एक क़रारा जवाब है. किसी व्यक्ति के कवि में तब्दील होने की प्रक्रिया पर यह हिन्दी की शायद अकेली रचना है और उस प्रक्रिया से इतना अथाह प्रेम शायद शिरीष के यहाँ ही संभव है. किसी रचनाकार और साथ ही साथ उसमें उपस्थित 'व्यक्ति' को जज़्ब करने के जो प्रलाप हैं, वह "व्योमेश को चिट्ठी" है. प्रकृति से दूर होने और प्रकृति में होने की तुलनात्मकता और नामवर सिंह की उपस्थिति व्योमेश से मुख़ातिब हो रहे प्रेम की परिभाषा है. यहाँ एक नक़ार की भी उपस्थिति है जहाँ से 'कविता' और 'प्रतिभा' में संशय व्याप्त हो जाता है. "मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ" में एक अजीब-सी उलझन से हमारा सामना है, जहाँ याद करना प्रकृति के साथ शामिल होना है. इस शामिल होनें में धिक्कार, साहस और बेक़द्री की व्यंजनाएं हैं. शिरीष की कविताओं में शब्द unfold हो जाते हैं और कविता को और समृद्ध कर जाते हैं. यहाँ पर कवि जलती हुई आँखें मलता सूर्यास्त में शामिल हो जाता है. बुद्धू-बक्सा शिरीष का आभारी.)
वॉन गॉग - स्टारी नाईट |
क्या कर रहे हो प्यारे?
कैसे हैं हाल तुम्हारे?
अपनी तो बस कट रही है यार
और जो कट रही है
उसे हर वक़्त जि़न्दगी कहना ज़रूरी तो नहीं ?
मैं सोचता रहता हूँ
अकसर
कितनी अलग जगहों पर रहते हैं हम
भीतर-भीतर जुड़े हुए लेकिन
मेरे लिए
तुम्हारा दिल रोता हो शायद
जैसे मेरा रोता है तुम्हारे लिए
इन्हीं पहाड़ों से निकलती है गंगा
प्यारे
जहाँ मैं रहता हूँ
जो बलखाती
पछताती
अपनी ही पवित्रता से पिटी हुई
तुम्हारे शहर तक पहुँचती है
कभी झाँक कर देखोगे उसके मटमैले जल में
तो दिख जाएगा
तुमको मेरा साँवला और भारी चेहरा
तुम भटकते हो अपने शहर की गलियों में कहीं
धुँआ छोड़ता पुराना स्कूटर लिए
और मैं बाँज और देवदार और चीड़ के जंगलों में भटकता हूँ
और प्रदूषण के नाम पर
न जाने कितनी आहों से भरी
अपनी साँस भर छोड़ता हूँ
एक जैसी नहीं हैं हमारे रहने की जगहें
और जीवन भी हम शायद अलग तरह का जीते हैं
लेकिन इतना तो तय है
प्यारे
हम ज़हर एक ही पीते हैं
इस जनपदीयता से ऊपर उठ देखें तो
एक ही है हमारा देश
हमारा भेष
एक ही हमारे संकट
हमारा समाज
हमारा ज़बरदस्ती किया जाता
वैश्वीकरण
एक ही हमारी हिन्दी पट्टी
एक ही हमारे मुहावरे
एक ही हमारे डर
जहाँ कहीं भी रहते हों प्यारे
दरअसल
हम एक ही हैं
इस विपुला पृथिवी पर
हमारे सपने शायद अलहदा हों
और मेरे भीतर तो वे बचे भी हैं बहुत कम -
बस कुछ ख़ास चुनिन्दा ही
तड़पते हुए दिल के पर्दे में निहाँ जहाँ से उनकी आवाज़ भी आना
अब मुमकिन नहीं
तुम्हारे भीतर होंगे वे ज़रूर फिलहाल एक भीड़ की शक़्ल में
एक-दूसरे को धकियाते हुए
विचार
लेकिन एक ही है प्यारे हमारे भीतर
बीसियों मोटी-मोटी जड़ों वाले बरगद की तरह
न जाने कब से
नोचते-खसोटते
तोड़ने-उजाड़ने को उसे झूलते-कूदते रहे उस पर
कई-कई शाखामृग
लेकिन वह और भी मज़बूत होता गया
पकता गया
हमारी उम्र के साथ-साथ ही
प्यारे
अब भी उस बरगद की मोटी-मोटी डालियों से
ज़मीन की ओर
लटकती-बढ़ती चली आती हैं
कई-कई सारी पतली और कमसिन जड़ें
धरती में घुसकर
जीवन का रस पीने को आकुल
तुम्हारे पास प्रकृति नहीं है शायद ज़रूरत भर की भी
लेकिन
मेरे पास वह है ज़रूरत से ज़्यादा
किसी विरासत की तरह
जिसे तुम्हारे जैसा छोटा भाई कभी-भी माँग सकता
अपने लिए
हमारे दोस्त एक ही हैं प्यारे
बेखटके हम देख सकते हैं एक-दूसरे की ओर पीठ करके भी
दुनिया को
चारों तरफ़ से
और युवा कविता की इस कोलाहल भरी दुनिया में
अगर मुझे कोई अधिकार दिया जाए
तो अपनी कविता के इस अनाम मंच से घोषणा करना चाहता हूँ मैं
कि हर नये-पुराने लेखक की तरह
व्योमेश के पास हैं
नामवर जी, प्यार करता हूँ जिनसे टूटकर हिंदी की इस असम्भव दुनिया में
और एक अद्भुत आदर से भरा दिल जिनके लिए -
वही पुराने एकछत्र रियासतदार
बरसों से बैठे उसी पुराने जर्जर तख़्त पर जिसे परिभाषा में हम आलोचना कहते हैं
वैसी ही शानो-शौकत के साथ
आज भी वैसे ही बाअदब बामुलाहिजा सलाम बजा लाते हैं उन्हें
दिल्ली
मुम्बई
बनारस
और इलाहाबाद
मेरे पास भी हैं वे
भरे हुए प्यार और दुलार से
कहते हुए
चार बरस पुराने एक मंच पर -
‘‘शिरीष कुमार मौर्य को खोजने का सुख संयोगवश मिला
मेरे लिए यह ऐसी ही उपलब्धि है
जैसे कि चालीस बरस पहले धूमिल को देख सका !’’
तो प्यारे इस तरह मैं हूँ चालीस साल पुरानी यादों में बरबस ही ले जाता उन्हें
और तुम्हारे पास फिलहाल नहीं है
उन्हें लुभाने लायक ऐसी कोई भी कविता
कविता की जगह मैं कह सकता था प्रतिभा
लेकिन
प्रतिभा मैंने जानबूझकर नहीं कहा
और क्या कहूँ पहाड़ की छाती पर मौजूद 21 जून 2007 की
इस पटपटाती रात में
इतना ही
कि इस ज़्यादा लिखे को तुम बहुत कम समझना
हो सके तो अपनी चिट्ठी में
तुम भी
एक विपर्यय के साथ
बस इतना ही लिखना !
मॉनेट - निम्फीज़ |
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
जीवन और मृत्यु
और इन दोनों के बीच की ढेर सारी अबूझ ध्वनियों से भरी
मेरी भाषा
रह-रहकर
तुमको पुकारती है
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
उन सभी चीज़ों के साथ जो तुमसे बहुत गहरे जुड़ी हैं
तुम इसे मेरा बनाया एक भ्रम भी कह सकती हो
या फिर याद करने का एक अधिक गाढ़ा और चिपचिपा तरीका
जो तंग करता है
खीझ उठता है जिससे मन
जिसे कभी छोड़ा नहीं जा सकता
और अपनाया भी नहीं जा सकता
हर किसी के साथ
उसी अद्भुत और आत्मीय तरीके से
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
और जानता हूँ कि यह सिर्फ मेरा तरीका नहीं है
तुम्हारा भी है
***
बहुत सारी बर्फ गिरी है यहाँ
लगभग 7000 हज़ार फीट पर
जहाँ मैं रहता हूँ फिलहाल
शब्दहीन यह गिरती ही जाती है पहाड़ों पर
पेड़ों पर
मकानों पर
लोगों पर
विचारों पर
और बेतार इधर से उधर आती-जाती यादों पर
उसके बोझ से चरमराती टूटती हैं डगालें
ज़मीन पर गिरते चटखते हैं बिजली के तार
पाइपों में जम जाता है पानी
रक्त बहता ही रहता है लेकिन नसों में
निर्बाध
चलता रहता है कारोबार
पहुँच ही जाते हैं अपने काम पर काँपते हुए मेहनतकश कामगार
खेलते ही रहते हैं बच्चे
और उतना ही बरजती जाती हैं उन्हें उनकी माँएँ
किसी भी सम्भावित चोट-चपेट के खिलाफ
उमड़ते-घुमड़ते आते हैं
बादल
झाँकता ही रहता है लेकिन रह-रहकर
उन्हें चीरता
सूर्य हमारे इस गोपनतम
दुर्लभ जीवन का
जिससे बिखरती धूप का रंग
हमारे रिश्ते की तरह साफ़ और सुनहरा है
उतना ही गुनगुना और
गर्वीला भी
***
अभी
मेरे जीवन में वसन्त है पूरे उफान पर और पूछना चाहता हूँ मैं
कि क्या तुम थोड़ा-सा लोगी?
तुम्हारे भीतर की आँधी में लगातार झर रहे हैं पत्ते और माँगना चाहता हूँ मैं
उन में कुछ सबसे नाज़ुक
सबसे पीले
क्या तुम मुझको दोगी?
***
कुछ दिन में फागुन आएगा
और आएंगी गमकती हवाएँ वे
सिन्दूरी रंगत वाली
गए बरस तुमने जिनके बारे में मुझको बतलाया था
यों यह रंग भी सबको दिखाई कब देगा !
शायद हम मिलेंगे दुबारा
अपने-अपने भीतर एक बियाबान लिए
जहाँ बहुत चुपचाप दौड़ते होगे कुछ खरगोश छोटी-चमकीली आँखों वाले
एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी के बीच
शरण्य की खोज में
हम उन्हें एक-दूसरे की ज़मीन पर आसरा देंगे
जीव-जगत में पशु-पक्षियों के लिए तुम्हारा प्यार
और मनुष्य जाति को धिक्कार
मुझसे छुपा नहीं है
अगर कभी मैं बदल पाया तुम्हारे हिस्से की दुनिया
तो सबसे पहले बदल दूँगा
इस धिक्कार को
जो तुम्हें थोड़ा अमानवीय और आवेगहीन बनाता है
कितना आश्चर्यपूर्ण है यह कि तुम्हारे लिए अभी और प्रकट होना है दुनिया को
और मेरे लिए इसे अब बन्द होते जाना है
गो तुम मुझसे 9 बरस पहले आयीं इसमें
तब भी बहुत कुछ है जो तुमसे पोशीदा लेकिन मुझ पर नुमाया है
बहुत दुख है यहाँ
बहुत अपमान
बेक़द्री रिश्तों की
थेथर आँसुओं की धार
बेहद डराता है यह जगह-जगह से टूटता
बिखरता
झूटों और मक्कारों से भरा संसार
लड़ने के नाम पर इस सबके खिलाफ
मैंने सिर्फ प्रेम किया है
क्योंकि इससे ज़्यादा साहस के साथ
और कुछ किया ही नहीं जा सकता
किसी भी समय और काल में
कोई दूसरा तरीका नहीं बदल देने का
दिन-दिन निष्ठुर होती जाती इस दुनिया को
सिवा इसके कि आप वह करें जो कहीं नहीं है
फैल जाने दें उसे
ढाँप लेने दें कम से कम आपके सिर के ऊपर भर का
थोड़ा-सा आसमान
आज
मेरे पास एक सीधी और सच्ची लड़की का
जोश और दिलासा से भरा
जीवन भर का साथ है
जहाँ थकने लगते है कदम
दुखने लगता है हृदय
वहाँ मरहम लगाता हमेशा एक ऊष्मा भरा हाथ है
और तुम वहाँ अकेली हो जीवन की झंझा में
निपट अकेली
अपनी इस सर्वोच्च उपलब्धि और तुमसे जुड़ी एक छोटी-सी हताशा के साथ
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
बार-बार!
क्या तुम्हे भी अपनी यादों में सुनाई दे रही है
कितनी ही ध्वनियों से भरी
मेरी यह शब्दहीन आवाज़ ?
रूबेंस - सेंट अगस्तीन |
शामिल
आजकल न मैं किसी उत्सव में शामिल हूँ
न किसी शोक में
न किसी रैली-जुलूस में
किसी सभा में नहीं
न किसी बाहरी ख़ुलूस में
मैं आग में शामिल हूँ आजकल
लाल-पीली-नीली हुई जाती लपटों में नहीं
भीतरी धुएँ में
जलती हुई आँखें मलता मैं सूर्यास्त में शामिल हूँ
जिसके बारे में उम्मीद है
कि कल वह सूर्योदय होगा
***
4 टिप्पणियाँ:
मुझे नही लगता कि इससे सुन्दर कवितायेँ मैंने कहीं भी हाल ही में पढ़ी होंगी.. दिल खोल कर प्रशंसा करना चाहती हूँ.. लेकिन निशब्द हूँ.. भाव आत्मसात कर रही हूँ .. समय लगेगा.. फिर पढूंगी.. आभार.
ये कविताएँ अनूठी हैं, टिप्पणी भी सटीक की है आपने. "लड़ने के नाम पर सबके खिलाफ मैनें सिर्फ प्रेम किया है" वाह...खूबसूरत अभिव्यक्ति.
मैं तुम्हे याद कर रहा हूँ और शामिल दोनों कवितायें अच्छी हैं । ' व्योमेश को चिठ्ठी " में चिठ्ठी अधिक है और कविता कम ।
wonderful......I wish to read one in my YouTube series "Suno Kavita"
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