शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गोरख के पाँच


[गोरख एक जन बुद्धिजीवी थे, आर्गेनिक इंटलेक्चुवल और इसी पारिभाषिक शब्द के वजन पर वह जन-कवि थे. दोनों छोरों की शक्तियों से लैस और आत्महंता हद तक संवेदनशील, प्रतिबद्ध. अपने समय के अधुनातम दर्शन अस्तित्ववाद से जूझना एक तरफ,  दूसरी ओर मार्क्सवादी सिद्धांतों को जीवनानुभव से जोड़ना. उर्दू-संस्कृत के काव्यशास्त्र की गहरी समझ से लैस और लोकगीतों की लय में रमे हुए. गोरख आधुनिक हिन्दी के उन विरल कवियों में  हैं जिनकी  कविताओं का लोकगीत बन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. (मूलतः शमशेर जी का विश्लेषण है यह!) गहरी सम-वेदना का ज्ञान गोरख की कविता को करुणा के पारस में बदल देता है. इस करुणा के साथ ही विकसित होती है प्रतिबद्धता. कोई अलग से थोपी हुई  नहीं. यह संवेदन से विचारधारा तक पहुंचने का रास्ता है. गोरख के ही शब्दों में- 'तुम्हारी आँखें हैं/तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर/ जितनी जल्दी हो सके  इस दुनिया को बदल देना चाहिए.’ केदार जी की ‘उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को इस हाथ की तरह गरम और सुन्दर होना चाहिए’ जैसी कविता पर गोरख की कविता भारी पड़ती है क्योंकि वह कर्म-सौंदर्य से दीप्त है. यह एक्टिव और पैसिव का अंतर है. - मृत्युंजय]



समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।


चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।


हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।


हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।


वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।



बंद खिड़कियों से टकराकर

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहाँ अर्चना होती उसकी
वहाँ देवता रमते हैं
वह सीता है, सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

कानूनन समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े-बड़ों क़ी नज़रों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चहिए प्यार
चहिए खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना ?

घर-घर में शमशान-घाट है
घर-घर में फाँसी-घर है, घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं ।



फूल और उम्मीद

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।



समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई



एक झीना-सा परदा था

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख़्तों की लहराती हरियालियाँ
झील में चाँद कश्ती चलाता हुआ
और ख़ुशबू की बाँहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियाँ कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चाँदनी उँगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ़ बेख़ुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेख़ुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आँखें खुलीं...
ख़ुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी.

(इससे पहले धूमिल. साथ की कला-कृति 'द स्क्रीम' एद्वार्द मुंक की है.)

1 टिप्पणियाँ:

Abhilash Niranjan ने कहा…

"गोरख आधुनिक हिन्दी के उन विरल कवियों में हैं जिनकी कविताओं का लोकगीत बन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ" यह बात बहुत पते की कही आपने मृत्युंजय जी. 'एक झिना सा पर्दा था' मेरी भी प्रिय कविता है. सटीक चयन है. धन्यवाद.