सोमवार, 15 अगस्त 2011

आयोजन - २ : शताब्दी-स्मरण - शमशेर





हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !

(पंक्तियाँ 'निराला के प्रति' से)






इस बार डी.डी. भारती द्वारा आयोजित शताब्दी-स्मरण के शमशेर अंक(वाराणसी) की रिपोर्ट आपके सामने है. तारीख़ : 30 जुलाई और जगह : शहर का अकेला रंगमंच थिएटर - नागरी नाटक मंडली, समय : शाम 5:30. तयशुदा समय से कार्यक्रम शुरू हो गया है. अभी तो आरंभिक औपचारिकताएं हैं, मसलन - दीप प्रज्ज्वलन, माल्यार्पण... अब मंच पर मंगलेश डबराल, ज्ञानेंद्रपति, व्योमेश शुक्ल और काशीनाथ सिंह मौजूद हैं. संचालन का जिम्मा व्योमेश शुक्ल के कन्धों पर है. आगे छपे वक्तव्य रचनाकारों के अपने वक्तव्यों के अंश हैं, इन्हें शत-प्रतिशत जेनुइन रखा गया है.


{अब व्योमेश शुक्ल हैं.}

व्योमेश शुक्ल                                                                                       
शमशेर बहादुर सिंह, तमाम आलोचकीय प्रयत्नों के बाद भी हिन्दी के सबसे कम समझे गये कवियों में से हैं. शमशेर की कविता में किसी को वैष्णव किस्म के लीलाभाव के दर्शन होते हैं, उनकी कविता की ऐंद्रिकता पर कोई बड़े सामंती ढंग से रीझने पर आमादा है, उस पर मुग्ध होने वालों की एक बड़ी कतार है, यही हमारे सर्वोत्तम आलोचकों की सीमाएं हैं.

शमशेर की कविता उस तरह से हाथ में नहीं आती, वह अग्रगामी है, उपलब्ध से अलग जाती है और दूर तक चली जाती है. शमशेर की कविताओं में युगीन सुविधाओं के इन्कार और कठिन के रतजगे हैं, वह मौन, संगीत और नूर की कविता है. ऐसी कविता की शक्तियों और सीमाओं को, उसकी प्रक्रियाओं को, उसके भीतर बन रहे समीकरणों को उतार पाना, उसका नामकरण कर पाना, बहुत दुश्वार और challenging है.

शमशेर की कविता को शमशेर की अपराजेय मनुष्यता से जोड़कर देखने का भी हिन्दी में एक तरह से अभाव है. वह दृष्टि जो शमशेर के मनुष्य से शमशेर के कवि को जोड़कर देख़ पाती,  हिन्दी में वह वर्चस्वशाली दृष्टि तो नहीं ही बन पायी है.

शमशेर के यहाँ मौजूद भाषा के झमेले और कविता के कॉमनसेंस से टकराने वाला विवेक, या कह लें विमुखता, उन्हें और कठिन कर देते हैं. शमशेर का उत्तराधिकार, अंततः जटिलता का उत्तराधिकार है.
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{अब हमारे प्रिय कवि मंगलेश डबराल सामने हैं.}

मंगलेश डबराल                                                                                      
"लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फ़िर फूल पर लग जा"
मेरी समझ से फूल की सम्पूर्णता ही इस कविता का अर्थ है. एक फूल की पंखुड़ी उससे बिछुड़कर उसे अपूर्ण कर दे रही है, पंखुड़ी से फ़िर आ लगने के लिए कहना, दरअसल सौन्दर्य की सृष्टि की सम्पूर्णता के लिए आग्रह करना है.

शमशेर की कविता में इस तरह के सन्दर्भ बहुत सारे हैं जहाँ कई अपूर्ण चीज़ें मिलकर एक पूर्ण चीज़ की रचना करती हैं, तो इस पूर्णता के कवि शमशेर हैं और ये पूर्णता असल में शमशेर को सौन्दर्य और प्रेम से लेकर मजदूरों तक, उनके श्रम तक, संघर्षों और क्रांतियों तक ले जाती रही है. शमशेर की कविता अमूर्त से मूर्त की ओर जाती है और इन दोनों में आवाजाही करती है, इन दोनों को शायद हम अलग-अलग नहीं कर सकते और यहीं पर शायद उन्हें समझने की समस्यामूलकता सामने आती है.

शमशेर ने (रघुवीर सहाय से) कहा था कि मैं एक कवि में तीन चीज़ें आवश्यक मानता हूँ, प्राणवायु, मार्क्सिज़म और आवाम में एक कवि की छवि यानी वह छवि जो कवि एक आवाम में देखना चाहता है, और शायद ये तीनों चीज़ें शमशेर की कविता में अंत तक मौजूद रही हैं.

आज जिन कवियों की जन्मशती हम मना रहे हैं, उनमें शमशेर का 'कैचमेंट एरिया' - नदी का जलागम क्षेत्र - सबसे बड़ा है और यह विशालता ही 'अम्न का राग' जैसी कविता को विश्व-शान्ति की सबसे बड़ी कविता बनाती है.

शमशेर को 'कवियों का कवि' कहा गया है, लेकिन शमशेर की कविता में बहुत कम 'काव्यात्मकता' है. 'काव्यात्मक' कविता शमशेर नहीं लिखते हैं, वे 'संवेदनात्मक' कविता लिखते हैं. कवि दो तरह के होते हैं - काव्यात्मक और ग़ैर-काव्यात्मक, अज्ञेय काव्यात्मक हैं और शमशेर ग़ैर-काव्यात्मक, लेकिन इसके उलट मान लिया गया है. अज्ञेय का शब्द-चयन और काव्य-शिल्प बेहद सधा हुआ है, इसके उलट शमशेर का शिल्प बहुत ऊबड़-खाबड़ और रूखा है, हालांकि वे सौन्दर्य के महान कवि हैं, फ़िर भी शिल्प में बहुत तराश नहीं है. उनकी कविता में अचानक ही उर्दू के शब्द, वैदिक शब्द, फ़ारसी के शब्द और तद्भव/ बोली के शब्द मिलते रहते हैं.

भाववाद और भौतिकवाद की द्वंदात्मकता शमशेर में हमेशा मौजूद रही है. आलोचक पंकज चतुर्वेदी के हिसाब से शमशेर के यहाँ प्रकृति एक भिन्न सत्ता है, नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ की प्रकृति से बिलकुल अलग. शमशेर के यहाँ प्रकृति मनुष्य को अलग रखकर बात नहीं करती, वहाँ मनुष्य की उपस्थिति अनिवार्य है.

जिस तरह 'आकाश' और 'समुद्र' शमशेर की कविता में बार-बार आते हैं, उसी तरह शमशेर आकाश और समुद्र की तरह हिन्दी कविता में हमेशा बने रहेंगे.
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{एक छोटे-से संचालन-वक्तव्य के बाद कवि ज्ञानेंद्रपति सामने हैं.}

ज्ञानेंद्रपति                                                                                             
रामविलास शर्मा नें कहा है कि शमशेर की कविता में वही मूल्यवान है, जो पद्य नहीं है, गद्य है...वह चाहे उनके निबंधों में हो, या कविताओं में.

शमशेर की कविता में गद्य का जो विन्यास है, वह कई दफ़ा प्द्याभ्यासी और अपने को मंचीय कविता में डाल चुके लोगों को मुश्किल में डालता है.

मुक्तिबोध नें कहा है कि शमशेर ने चित्रकार के सिंहासन पर अपने कवि को प्रतिष्ठित कर लिया है. कविता शब्दों में नहीं लिखी जाती है, वह वाक्यों में लिखी जाती है, लेकिन शमशेर के चित्रकार के कवि को क्रिया-पदों की ज़रूरत नहीं रह जाती - जैसा शमशेर के गद्य में होता है - और कविता वाक्यों में नहीं शब्दों में लिखी जाती है फ़िर शब्दों के बीच के अंतराल में शब्द फैलते हैं. शब्दों का सजीवीकरण जितना शमशेर के यहाँ है, उतना हिन्दी कविता में और किसी के पास नहीं है. शमशेर की कविता 'सुबह' के पत्थर की तरह शमशेर के यहाँ शब्द पसरते हैं, अपने आप. शमशेर शब्दों पर नहीं, उनके अंतरालों पर रुकते हैं और यहीं पर उन्हें समझने की समस्या उत्पन्न होती है. इसी समस्यामूलकता को हिन्दी में 'शमशेरियत' नाम दिया गया है. यह शब्द 'शमशेरियत' ही बताता है कि शमशेर का जो भाषिक-व्यवहार और काव्य-विवेक है, वह कितना ख़ास है.

विजयदेवनारायण साही कहते हैं कि 'शमशेर के यहाँ वस्तुपरकता की आत्मपरकता और आत्मपरकता की वस्तुपरकता है'. यह एक तरह से शमशेर की द्वंदात्मक काव्य-दृष्टि से सम्बन्ध है. शमशेर की कविता का द्वन्द, शमशेर के भीतर का द्वन्द है.

सौन्दर्य शमशेर की केन्द्रीय चिंता है, यह सौन्दर्य केवल प्राकृतिक सौन्दर्य नहीं है, सामाजिक सौन्दर्य भी है. शमशेर के सौन्दर्य का अवतार, प्राकृतिक घटना नहीं है, वहाँ मानव की उपस्थिति भी अनिवार्य है. शमशेर का कवि तो सौन्दर्य अभिलाषी है, लेकिन उसका धरातल क्या है? उसकी चाहत क्या है? उसका धरातल सौन्दर्य को 'देखना' है, उसका observation कवि का धरातल है. उस सौन्दर्य-चेतना के पीछे आभार के रूप में जो प्रेम की भावना है वह मूल्यवान है.

'एक आदमी दो पहाड़ों को अपनी कुहनियों से ठेलता हुआ' जैसे बिम्ब अत्यंत भव्य हैं. हालांकि, भव्य बिम्ब की रचना करना महत्वपूर्ण कवि-कर्म है, लेकिन इस तरह के द्वंदात्मक, दुरूह और भव्य बिम्ब कहीं और नहीं मिलते.

शमशेर की कविता में रूपक नहीं हैं, वहाँ रूप के भाव हैं.

अपनी कविता 'निराला के प्रति' में शमशेर जिस तरह निराला को चाहते हैं, उसी तरह हम शमशेर को बहुत चाहते हैं, समझना तो एक अलग बात है.
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{सभागार में मौजूद धैर्यहीन दर्शक-दीर्घा से कुसमय बजी ताली ने ज्ञानेन्द्रपति को बीच में ही अपनी बात रोकने को कह दिया.}

काशीनाथ सिंह                                                                                      

{मूल बिन्दुओं और तथ्यों पर बात करने से पहले काशीनाथ सिंह ने अपने द्वारा शमशेर को 'तीन बार देख़े जाने' के बारे में बता रहे हैं, जिसका ज़िक्र यहाँ शायद ज़रूरी नहीं है.}

'प्लाट का मोर्चा' की भूमिका 'पाठकों से' में शमशेर नें तीन बातें कही हैं. पहली बात, इस संग्रह में 'जी की बात सी करने' की कोशिश की है, हम जानते हैं - कहानी वाले - कि कहानी में जी की बात सी करने की गुंजाइश बहुत कम होती है, कविता में तो होती है. दूसरी बात, ये कि यह संग्रह कुल मिलाकर प्रगतिशील नहीं है....इतना ही होता तो गनीमत है.....आगे शमशेर नें लिखा है कि कुछ लोग जो मुझे प्रगतिशील समझते हैं, वे अपनी राय को संशोधित कर लें. और, इस बात से शमशेर और प्रगतिशीलता के सम्बन्ध को नये सिरे से समझने में मदद मिल सकती है. अब तीसरी बात, छायावादी युग के अंत का व्यक्तित्व बोल रहा है.

एक बार मैनें नामवर सिंह जी से पूछा कि अभी जिन कवियों की जन्मशती मनाई जा रही है, उन्हें आप एक क्रम दीजिये! तो नामवर जी नें जो क्रम दिया उसमें उन्होंने पहले अज्ञेय, फ़िर शमशेर, नागार्जुन और फ़िर केदारनाथ अग्रवाल को रखा.

ज़ाहिर है कि कहानियां कहने की चीज़ हैं, रचने की नहीं. शमशेर नें कहानियां रची हैं, कही नहीं, एक संपन्न भाषा होते हुए भी. शमशेर की सभी कहानियों में एक बात लगभग समान दिखाई देती है, वह है अकेलापन और उपेक्षित रह जाने का भाव.

शमशेर एक प्रगतिशील कवि थे, जो सामाजिकता से लगाव रखते थे. अगर आप शमशेर का गम्भीर व्यक्तित्व और शांतपन देखते तो ये आश्चर्य ज़रूर होता कि उनकी कविताओं के विषय लोक-सांस्कृतिक रहे हैं. उनकी कविता के ये कठिन बिम्ब जब मेरी समझ में नहीं आते, तो आम पाठक की समझ में क्या आयेंगे?
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{अब कार्यक्रम के सार-संवाद सत्र के समापन पर व्योमेश शुक्ल पुनः आए.}

व्योमेश शुक्ल                                                                                        
नामवर जी की नव-सूची से त्रिलोचन की कविता बेसाख्ता याद आई कि प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है, उसमे त्रिलोचन का नाम नहीं है. कवियों की एक लिस्ट निकले और उसमें कवि का नाम न हो. तो, जब कोई ऐसी सूची बने, जिसमें अपना कोई सर्वोत्तम कवि न हो, तो यह कितने गौरव और ख़ुशी की बात होगी, क्योंकि कवि अपनी अद्वितीयताओं के साथ किसी सूची में अट नहीं सकते.

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इसके बाद शमशेर की कविताओं का असफल मंचन और शमशेर पर वृत्तचित्र और उनके दो गीतों की संगीतमय प्रस्तुति की गई.

(इसके पहले आप बहुभाषी रचना पाठ की रिपोर्ट आयोजन स्तम्भ में पढ़ चुके हैं. शमशेर की तस्वीर एक जिद्दी धुन/ सबद से .)

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