शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

आयोजन - १ : वाराणसी में बहुभाषी रचना पाठ

साहित्य अकादेमी की तरफ़ से 'बहुभाषी रचना-पाठ' का आयोजन ९ और १० जुलाई को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन के सभागार में हुआ. ९ तारीख़ को कथा-पाठ और १० तारीख़ को काव्य-पाठ का आयोजन हुआ और जैसा कि नाम में इंगित है, कार्यक्रम के शीर्षक की मर्यादा बनाए रखने के लिए २-३ दूसरी भाषा के रचनाकारों को बुलाया गया था. इस तरह के आयोजन बहुत कुछ समझे जाते रहे हैं, लेकिन इन्हें एक सफ़ल आयोजन बनाने के लिए क्या-क्या चीज़ें ज़रूरी हैं, ये बात ध्यान में रखने योग्य है. एक अकादमी का नाम, एक 'बहुभाषी रचना-पाठ' का टैग और साथ में इसे संप्रेषित और सुन्दर बनाने की कोशिश में कुछ ऐसा कर देना (मसलन, ऐसे कवियों को बुला लेना), जिससे यह सारा आयोजन ध्वस्त होकर मटियामेट हो जाए.

काफ़ी हसरतों के साथ हम १० तारीख़ को सुबह-सुबह वहाँ पहुँचे, कार्यक्रम की भयावहता का अंदाज़ तो था ही क्योंकि हिन्दी विभाग के कुछ लोगों नें इस कार्यक्रम पर घोर असहमति व्यक्त की थी लेकिन इस असहमति को हम अपने 'अंदाज़' का अकेला कारण नहीं बना सकते थे, क्योंकि हिन्दी विभाग की तरफ़ से कराये गए कार्यक्रम कितने सतही और भौंडे होते हैं कि इन पर बात ही नहीं की जानी चाहिए. इसीलिये, हिन्दी विभाग को देख़-समझकर हमेशा हमें पंकज चतुर्वेदी की हिन्दी विभाग पर लिखी गई कविता की याद आती है. दो बातें खुलकर सबसे अच्छे से सामने आ रही थीं कि या तो 'साहित्य अकादमी' के पास पैसा नहीं है और या तो वह है लेकिन 'अन्य' कामों में खर्च होने के लिए संचित और संग्रहित है क्योंकि स्थानीय कवियों को ही अकादमी ने आमंत्रित किया था और दूसरी भाषा के कवियों (उड़िया, बंगला और तमिल के) को - जैसा पहले कहा - नाम को सफ़ल बनाने के लिए किया.

जलवा और रुबाब दिखाने के लिए 'सीनेट हॉल' में व्यवस्था की गयी थी. जिस तरह के बाहरी नज़ारे थे, वह एक बार कार्यक्रम के 'अच्छा' होने का भ्रम करा गए. बहुत प्यास थी एक अच्छे काव्य-पाठ की, क्योंकि बनारस में पिछला काव्य-पाठ - जिसे हिन्दी विभाग के शोध छात्रों नें कराया था - से मन बहुत दुखी था और साथ ही साथ पिछले चार दिनों से 'मित्रों-अग्रजों' के साथ अस्सी की बैठकी नें बड़ा विचलित किया था.

बहरहाल, पैसे बचाने के लिए जिस तरह स्थानीय कवियों को ठीक समय पर बुलाया गया था...उसका पूर्ण सम्मान करते हुए दस बजे शुरू होने वाला कार्यक्रम ११:४० पर शुरू हो गया, क्योंकि संचालक-उपसचिव लगभग ११ बजे दिखना शुरू हुए और ११:१५ पर उन्होंने घोषणा की ५ मिनट में होने वाली शुरुआत के लिए. हम पिछली क़तार में जाकर बैठ गए और पूरी तरह से जमकर सुनने को तैयार हो गए. सबसे पहले हमारे प्रिय ज्ञानेंद्रपति थे ...जिन्होंने रघुवीर सहाय को भिन्न तरीक़े से याद करते हुए एक कविता सुनाई और एक-दो ऐसी कविताएँ जो 'रंग दे बसंती टाईप' छद्म आन्दोलनकारियों और भ्रष्टाचार से लडती थीं. हमेशा की तरह नहीं, इस बार हमारे अभिन्न कवि कुछ ही अच्छा कर सके, लेकिन हमें ये 'अच्छे का होना' हमेशा ख़ुश करता रहता है.

उसके बाद बांग्ला-अंग्रेज़ी के कवि अमिताभ चौधरी आए. जब दूसरी भाषा के कवियों द्वारा काव्य-पाठ किसी हिन्दीभाषी स्थान पर किया जाता है, तो मुझे हमेशा दिल्ली में एस्टोनियाई कवि हासो क्रुल और उनकी पत्नी कैरोलीना के काव्य-पाठ की याद आती है, जहाँ सबसे पहले उनके मूल भाषा में सफ़ल पाठ के बाद विष्णु खरे द्वारा उनका हिन्दी अनुवाद पूरी तबीयत से पढ़ा गया था, दूसरी भाषा की कविता और उनका हिन्दी अनुवाद पढने के कुछ नियम होते हैं....कुछ क़ायदे होते हैं और सलीक़े भी. उसे 'न समझा जा सकने' लायक़ बना देना कहाँ की बुद्धिमानी है? तो, अमिताभ की कविताओं का पाठ इसी तरह का 'न समझा जा सकने' वाला था, बाबरी विध्वंस को शायद उन्होंने बताया लेकिन चंद पंक्तियों का मूल भाषा में पाठ और फ़िर उसका लड़खड़ाती हिन्दी में उसका पाठ ज़रा भी अच्छा लगने लायक़ नहीं था. अमिताभ की कविताओं का विषय सही था, लेकिन उन्हें चाहिए था कि वे किसी हिन्दीभाषी को ही अनुवाद पढ़ने देते.

इसके बाद भोजपुरी कवि हरेराम द्विवेदी आए, इस तरह के आयोजनों को सफ़ल बनाने का जिम्मा कुछ कवियों पर भी होता है, हरेराम द्विवेदी की भोजपुरी कवितायें गेयता से भरी हुई थीं, अब छंद से अलग हटकर खड़े होने का समय है, इस दशा में 'अच्छे(!)' आयोजनों में गेय छंद का पढ़ा जाना कुछ हद तक हास्यास्पद लगता है. सबसे बड़ी दिक्क़त जो भोजपुरी के साथ है, वह उसके मिट्टी से जुड़ाव को लेकर है...क्यों अधिकतर भोजपुरी कवि अपनी रचनाओं में 'आज की कविता' वाले विषय पर बात नहीं करते...उनकी रचनाओं में 'हमरा गाँव', 'हमार खेत' और उनके विभिन्न आयामों पर क्यों बात होती है?...तो, एक वाहवाही और ताली लूटने वाला कविता/गीत का पाठ/गायन हरेराम जी नें किया. कुल मिलाकर एक समूचा छंदबद्ध और स्वरबद्ध गायन उन्होंने पेश किया, जिसे बिना किसी ज़रूरत के क़ाफ़ी 'सराहा' गया. यहाँ किसी गायक का होना ज़्यादा तर्कसंगत लगता.

इसके बाद उड़िया भाषा की कवियित्री प्रवासिनी महाकुड ने उस सलीके का ख़्याल रखते हुए कवितायें पढ़ीं, जहाँ उनकी कविताओं के हिन्दी अनुवाद का पाठ कार्यक्रम संचालक और साहित्य अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने किया, जिसके आधार पर प्रवासिनी जी को एक सफ़ल और संजीदा कवियित्री कहा जा सकता है....बेहद शान्त और गम्भीर - जैसे बेटी द्वारा बाप को दिया गया कष्ट - विषय पर बहुत ही अच्छी और सरल कविता उन्होंने पढ़ी. प्रवासिनी की कविताओं में एक ठेठ आधुनिक हिन्दी 'कवितापन' मिल रहा था.

उसके बाद श्रीप्रकाश शुक्ल आए, बड़े अजीब ढंग से उन्होंने 'मोबाइल और लड्डू' में एक रिश्ता क़ायम किया, जो काफ़ी हास्यास्पद लग रहा था. अब 'लड्डू' कोई गिद्ध नहीं है, जिसे विलुप्त चीज़ बताया जाए या दिखाया जाए....'लड्डू पिघल रहा है और मेरा मोबाइल बज रहा है'...यहाँ पर गिर जाने या पिघल जाने के बाद दूसरा लड्डू खरीदे जाने के विकल्प खुले हैं क्योंकि लड्डू बहुत महँगी चीज़ नहीं है. इसलिए एक ख़ारिज कवि की तरह वे आए और खारिज कवि की तरह चले गए. हमेशा से अच्छी रहीं कवियित्री चंद्रकला त्रिपाठी नें भी लगभग निराश ही किया.

युवा कवि व्योमेश शुक्ल ने अपनी लम्बी कविता 'मैं रहा तो था' में से 'होना था' और 'दोनों एक ही बातें हैं', फ़िर दो कवितायें अपने संग्रह से पढ़ीं, जहाँ सुशील त्रिपाठी को समर्पित 'लिखा गया माना जाय' और विद्या सिन्हा पर केन्द्रित 'लेकिन तुम हो कि मुकद्दमा लिखा देती हो' थीं. भगवा-विरोध और तल्ख़ तेवर के कारण विभाग की कुछ महिलाओं नें उनसे यह तक पूछ डाला : आपको डर नहीं लगता? ज्ञानेंद्रपति और व्योमेश जैसे 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम' वाले कवियों की सबसे बड़ी ग़लती यह है कि उन्होंने ऐसे आयोजन में शरीक़ होने के लिए हामी भरी. इस श्रेणी में प्रवासिनी महाकुड और प्रकाश उदय भी आ सकते हैं.

इसके बाद बेहद कम चर्चित कवियित्री वंदना मिश्र नें नारी शक्ति के वही पुराने घिसे हुए स्वरूप को सामने रखा. इसके भोजपुरी के कवि प्रकाश उदय नें ऊपर लिखी कमियों से ऊपर उठकर कुछ रचनाएं पढ़ीं, जो फ़िर से गेय थीं.

वंदना मिश्र के ठीक पहले संचालक का ये वक्तव्य सुनने को मिला : अब रुक जाइए, आपके और आपकी भूख़ के बीच बस दो ही कवि शेष हैं, बस उन्हें सुन लीजिये. अब यदि 'भूख़' इतना बड़ा विषय है, तो कविता के बड़ा विषय होने में क़ाफ़ी समय है.

एक घंटे तक चले मध्यांतर के बाद जो कवि आए, उनमें से अधिकतर का आना न आने जैसा था. रामाज्ञा राय, ओम निश्चल, वशिष्ठ अनूप, अनंत मिश्र, ब्रह्मशंकर पाण्डेय और सदानंद साही नें औसत कवितायें पढ़ीं. उसके बाद अपने को अच्छे कवियों (कुछ हद तक उत्कृष्ट) कवियों में गिनाते हुए श्रीकृष्ण तिवारी आए. तिवारी जी ने 'भीलों नें बाँट लिए वन' और 'पानी जब गुनगुना हुआ' जैसे दसियों साल पुराने गीत गाये, बहुत ही बासी अनुभव. साथ ही साथ वे एकाध कवियों से गीत की फ़रमाइश करते रहते....पता नहीं ऐसा क्यों है कि हर छुटभैया 'तीसमार खां' बनना चाहता है.... कोंकणी भाषा के कवि पुंडलिक नायक आए और कुछ 'अनूदित कविताओं' के सलीक़े से उन्होंने कवितायेँ पढ़ीं और उनके बाद चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के प्रमुख माधव कौशिक ने आकर जेनेरेशन गैप को अपने कविता का आधार बनाया. अब ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि जिन कविताओं को पच्चीसों बार पढ़कर कई 'कवि' पैदा हुए, वैसी ही कवितायेँ मंच पर नहीं पढ़ी जानी चाहिए. लगभग यही काम ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने भी किया, गाँव-शहर का सदियों पुराना फासला लेकर वे थोड़ा कवि-मुद्रा में आए और इस तरह दूसरा सत्र भी समाप्त हो गया.

आयोजन से साफ़ पता चल रहा था कि साहित्य अकादमी अपनी ग़लती के बारे में जान रही थी, इसलिए बार-बार (पता नहीं क्यों?) हर कवि के आने से पहले उसका परिचय दिया जा रहा था, मसलन संग्रह, भाषा और अवार्ड(यदि हैं तो). 'बहुभाषी' वाले तत्व को भुनाने की भरपूर कोशिश की गई और ठीक यहीं यह आयोजन ख़त्म हो गया. अगर आप एक अच्छी भीड़ नहीं जुटा पा रहे हैं और साथ ही अच्छे कवि, तो आप एक बड़े स्तर का मुशायरा करा लीजिये. अगर यह आयोजन दिल्ली में किया गया होता तो शायद यह अपने ध्येय में सफ़ल साबित हो पाता लेकिन इसे निपट स्थानीय बनाने में सब कुछ ख़त्म हो गया. हमने अकादमी के स्वर्णिम काल को भी देखा है और शायद वह अब भी चल ही रहा है, लेकिन वह शायद हल्का धूसरित हो चुका है. अकादमी को अपनी साख़ बनाए रखने के लिए इस तरह के छोटे प्रयोग नहीं करने चाहिए, जिससे होने वाला नुकसान हिन्दी को होता है. आशा है कि अकादमी की तरफ़ से एक अच्छा आयोजन भविष्य में देखने को मिलेगा.

आयोजन ख़त्म, हम लोग थके हुए हैं, अभी अस्सी पर हैं...नींबू की चाय और घाट पर भारी भीड़.


(इसी के साथ 'आयोजन' नाम से एक और स्तम्भ की शुरुआत. इस रिपोर्ट से बहुत 'विवरणात्मक' होने की आशा न की जाय. अच्छे आयोजनों पर हम विवरणात्मक रिपोर्ट सामने रखेंगे. इस आयोजन की सबसे बड़ी कमी, इसमें शरीक़ हुए कवि थे. हम हमेशा से एक नेक और साफ़दिल आयोजन की आशा करते रहे हैं. भविष्य में शमशेर पर डी.डी.भारती की ओर से कराये जा रहे कार्यक्रम की रिपोर्ट सामने रखी जाएगी.)

1 टिप्पणियाँ:

Shyam Bihari Shyamal ने कहा…

वाह... बहुत जीवंत रिपोर्ट, बल्कि 'आंखोदेखा हाल' ...आपने ज्ञानेन्‍द्रपति और व्‍योमेश से महिलाओं के प्रश्‍न पूछने के संदर्भ को जिस बारीकी से दर्ज किया है इससे आपके विजन या दृष्टि-विस्‍तार का पता चलता है... बधाई... ढेरों उम्‍मीदें जगा दी है आपने... अनंत शुभकामनाएं...