मंगलवार, 5 जुलाई 2011

तेरी चौखट मेरा मदीना

दोस्तों की पुरानी शिक़ायत रही है कि मैं कुछ ज़्यादा ही इश्क़िया जाता हूँ, लेकिन क्या करूँ, प्रेम को लेकर मेरा जो मत रहा है वह पागलपन तक ले जाने वाला ही रहा है. उस पागलपन की क्षमता असीमित है जहाँ आपको एक गीत सुनकर रोना पड़ता है, जहाँ दहाड़ती हुई आवाज़ आपको डराती नहीं बल्कि आपको अपना आशिक़ बना जाती है, आप कहाँ जाना चाहते हैं, लेकिन आपका निकलना कहाँ सम्भव हो पाता है ये उस पागलपन की ही आवाज़ होती है. धर्म, लिंग और समाज को परे रखकर जब आप सोचना शुरू करते हैं, तब आप असल मतवाले कहे जाते हैं. आप कहाँ हैं, किस समय में हैं और किस व्यवस्था को तौल रहे हैं....जब इस तरह की बातें आपको परेशान नहीं कर पाती हैं..तब सूफियत को समझ पाते हैं, उसका 'क' समझ पाते हैं.

'सूफी' को लेकर जो एक भेड़चाल मची हुई है और हर छुटभैया गायक अपने पर बुल्ले-शाह की मुहर लगवाने पर तुला हुआ है, उसमें सबसे बड़ा नुकसान इस परम्परा के असल निर्वाहकों को उठाना पड़ रहा है. अब सतही संगीत से मुझे इतना मोहभंग हो गया है कि कैलाश खेर, जिसे एक समय पहले सूफी संगीत का सिनेमाई अवतार कहा गया था, भी अब फालतू लगने लगा है. कैलाश खेर की सन्दर्भ में जो बातें कही गई थीं, वे सच थीं लेकिन उन्हें फ़िर से परिभाषित करने की ज़रूरत है यानी कैलाश को अब साबित करने की ज़रूरत है. ये बड़ा अजीब है लेकिन मिथक को तोड़ने वाला तथ्य भी कि असल सूफी आवाज़ या तो पाकिस्तान से आती है या भारत के उन राज्यों से जो पाकिस्तान के ज़्यादा क़रीब हैं, राजस्थान, पंजाब या हरियाणा. संगीत को फैलने में इतना वक़्त लगना चाहिए क्या? उसे और जल्दी नहीं फैलना चाहिए क्या?

क्या कारण है कि हम अमित त्रिवेदी और रहमान जैसे नयी समझ वाले संगीतकारों को अपने सिर पर पैर पसारने तक की जगह दे देते हैं, उनका काम बस इतना ही रहा है कि उन्हें समझ है और वे उस समझ को भरपूर भुना रहे हैं...ये समझ का भुनाया जाना कहीं न कही सूफी संगीत को फ़िल्म में एक जगह देने की कोशिश कर सकता है. एक असल विधा, जिसे सूफियत की रूह समझा जाता रहा है, यानी क़व्वाली अब खो रही है, इसके पीछे कहीं न कहीं हिमेश रेशमिया और इस्माइल दरबार जैसे मूर्ख बैठे हुए हैं.

लेकिन आज किसी संगीतकार को केंद्र में नहीं रखा जा रहा है, आज एक गीत है हमारे सामने, जिससे संगीत, प्रेम, अनश्वरता, पागलपन और सूफी-सिक्के को समझा जा सकता है. गीत है तू माने या ना माने दिलदारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया. कम से कम मेरे लिए तो संगीत भाषा और शब्दों में बंधा नहीं है और वैसे अभी तो हम हिन्दी भाषा के लिए ही इतना लड़ रहे हैं और बार-बार जिरह कर रहे हैं कि भाषा का स्वरूप कैसा हो, तो इस लिहाज़ से इस पंजाबी गीत के उच्चारण में कोई ग़लती हो तो नज़रंदाज़ करें. हाँ, तो मैं कह रहा था कि मैनें तुझे अपना रब मान लिया है. सूरी जी भी क्या-क्या करते रहते हैं और करवाते रहते हैं.....फ़िल्म में मानने के बाद मुझसे मनवाया, अब इस गीत ने रही-सही क़सर पूरी कर दी है, आप मालिक हो गए अब. आपका मानना या ना मानना आप पर है, लेकिन मैनें तो मान लिया, जो सबसे ऊंचा मानक आपको दे सकता था, मैनें दे दिया.

एक छोटा-सा काम है, जिसे किए देता हूँ...तो ये गाया हुआ है वडाली बंधुओं का...एक हल्की आवाज़ है छोटे प्यारेलाल वडाली की और एक आवाज़ है है, जो हमेशा छोटे के साथ रहती है और बताती रहती है कि 'मैं हूँ.' यह हैं बड़े पूरनचंद वडाली. पटियाला घराने के नगीने हैं दोनों. अच्छा गाते हैं, लेकिन अच्छे के अलावा ये 'प्रेम' गाते हैं. हम मिट्टी के संगीत के ग्लोबल होने की मांग करते हैं, लेकिन इस दिशा में जो क़दम उठाते हैं, उनका अंत दुःख देने वाले एल्बम के साथ होता है, उससे अलग हम कहीं उन्हें सुन पाते हैं तो सिर्फ़ लाइव, जो अभी इतना सम्भव नहीं है. तो घूमते हुए, एक ही बात सामने आती है 'मिट्टी के संगीत' का मिट्टी से जुड़ा होना ही उसे ग्लोबल बनाता है. एकदम असली माल.

अपने तन की खाक़ उड़ाई, तब ये इश्क़ की मंज़िल पायी....खाक़ उड़ाकर मंज़िल पाना क्या होता है यार? और वह भी इश्क़ की मंज़िल... तन की खाक़!....सूफियत से जुड़ी बातें कितनी असम्भव-सी संभावनाओं को जन्म देती हैं, जहाँ तन की खाक़ का सम्बन्ध इश्क़ की मंज़िल से होता है. मैं समझा नहीं पाऊँगा, लेकिन तन की खाक़ का झिलमिल मतलब मैं काफ़ी समय बाद समझ पाया. इसका अर्थ बहुआयामी है, एक औरत के सन्दर्भ में तन और उसकी खाक़ के मतलब क्या हो सकते हैं और उसी औरत के लिए एक आदमी के मन में? मेरी सांसों का बोले इकतारा....अब सारे 'ढोंगी' युवा संगीत-सिनेमा समीक्षकों से मेरा सीधा सवाल है कि वे 'साँसों का इकतारा' को जब तक ना समझाएं, तब तक कलम नीचे ही रखें....इश्क़ को नहीं समझा तो क्या समझा? हमारे पास 'डेल्ही बेली' पर गपियाने का वक़्त है, लेकिन संगीत पर साफ़ समझ पैदा करने का वक़्त नहीं.

पूरे गीत का मर्म है अगला अन्तरा....तुझ बिन जीना भी क्या जीना, तेरी चौखट मेरा मदीना....चौखट के मदीना होने का कितना बड़ा महत्व है, इसे बस सुनकर ही खोया जा सकता है और अगर ज़िद कर ली सोचने की, तो बस आप बैरागी हो गए. हम डरते हैं किसी और की चौखट पर जाने से, डर भी किससे? आपसे.... आपसे तो मुहब्बत है...डरते हैं अपने से, डरते हैं किसी चौखट पर देखने से, किसी भी चौखट पर आपको देखने से डरते हैं, आपकी चौखट पर आपको नहीं देखने पर डरते हैं....आपके इश्क़ से डरते हैं और इसकी खुशमिजाज़ी से डरते हैं तभी तो.....कहीं और ना सजदा गवारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया.

हँसते-हँसते हर ग़म सहना, राज़ी तेरी रज़ा में रहना.......
आप एक आदत हैं मेरे लिए, मेरे जीने के लिए ज़रूरी.....आपको जानना होगा कि आप साँस में भी ज़रूरी हैं. वादा रहा, हँसते-हँसते हर ग़म सहूँगा, गुस्सा लीजिये...जी भर ख़फ़ा होइए..रो लीजिये, रुला लीजिये......लेकिन तेरी ही रज़ा में रहना है तो दिक्कत कैसी.... मेरी आदतों को मारिए गोली, वे तो हमेशा लाल-सलाम और भगवा-विरोध की बातें करती हैं, साथ में साहित्य भी....लेकिन आप तो साफ़ हैं ना...आप प्यार करिये, और तभी मैं कहता फिरूंगा कि....तूने मुझको सिखाया है यारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया. इतने दिनों तक लिखने-पढने पर मैनें इतना जाना कि प्रेम करना मेरे लिए आसान है, उसमें नाक तक डूबे रहना भी लेकिन उसके खेल और उसमें अपने अभीष्ट को खोजना, हमेशा कठिन होता है. 

इस गीत का कई जगहों पर बेहद भौंडा इस्तेमाल हुआ लेकिन पेट तक सिहरन और गमक पैदा करने वाला वर्ज़न ही शानदार है जहाँ क़व्वाली की तेज़ लय बहुत धीमी रहती है और गायक के पास खेलने का बहुत वक़्त रहता है. यूं तो ये भी सुना है कि लोग किसी पाकिस्तानी गायक को इस क़व्वाली का पहला गायक कहते हैं, लेकिन मैनें जो सुना उसी पर लिखा...... और मेरा कोरा हिसाब ये है कि इसे ही सुना जाए तो ज़्यादा मज़ा आएगा. मेरी तरह आपको रुलाई भी आ सकती है. ख़्वाहिश हो तो आगे दिया गया वीडियो ही देखें, ज़्यादा अच्छा लगेगा, नहीं तो इन्टरनेट पर बहुत सारे वीडियो मौजूद हैं. इस वीडियो को देने की पीछे एक ही मकसद था कि इसके 'सिहरन' और 'गमक' वाले वर्ज़न का सबसे सफ़ल लोकप्रिय अनुवाद यही प्रयोग है.


2 टिप्पणियाँ:

Abhilash niranjan ने कहा…

bahut acchha laga alag tarah kee sameeksha padhkar....maza aaya.

पूजा पाठक ने कहा…

"तो घूमते हुए, एक ही बात सामने आती है 'मिट्टी के संगीत' का मिट्टी से जुड़ा होना ही उसे ग्लोबल बनाता है. एकदम असली माल." ये एकदम सही बात कही है आपने..... एक अलग स्वाद का लेख पढ़ मज़ा आया.

पूजा पाठक,
लखनऊ.