रविवार, 19 जून 2011

रातातूई....पकाना


वास्तविकता को नकारते वक़्त कुछ लोग यह नहीं समझ पाते कि वे धीरे-धीरे दलाल सिद्ध होते जा रहे हैं, ऐसे कई फ़िल्म-समीक्षकों से मैं मिल चुका हूँ और बात कर चुका हूँ जो एनीमेशन फ़िल्मों के प्रेम पर हँसते हैं और ये सिद्ध करने को लालायित रहते हैं कि ऐसी फ़िल्मों में कूड़े के अम्बार के अलावा कुछ नहीं होता. 'बच्चों के वर्ग' की फ़िल्में देखना उनके सामर्थ्य के बाहर की चीज़ जान पड़ती है. ऐसे समीक्षकों को अपनी फ़िल्म-आंकलन की क्षमता पर बारम्बार सोचना चाहिए.

बहरहाल, इस बार फ़िर से पिक्सार..फ़िल्म है रातातूई...चूहों के अद्वितीय साम्राज्य से निकली फ़िल्म...यह फ़िल्म क्या दिखाना चाहती है, इसके बारे में बात न करें तो ज़्यादा अच्छा, क्योंकि इसका फैसला आपको ख़ुद लेना चाहिए.

हाँ तो रातातूई, फ्रेंच किसानों की एक चकलीदार डिश है, जिस पर कुछ लाल-सुनहरे रंग का गाढ़ा तरल उड़ेला जाता है, एक बड़े स्तर पर स्तरहीन खाना, सामान्यतया होटलों में न परोसे जाने वाली डिश है रातातूई और अगर गूस्तोव के रेस्तरां में परोसने के बारे में सोचा तो वह किसी गुनाह से कम तो नहीं ही होगा.

फ़िल्म आई है बरास्ते ब्रैड बर्ड और जैन पिंकावा. अपना हीरो है चूहा रेमी, एक बड़ी फ़ौज के साथ गुमसुम और उदास रहने वाला चूहा और हमेशा एक उम्दा और बड़ा खानसामा होने का ख़्वाब देखने वाला. ये ख़्वाब देखने की कला उसे गूस्तोव से वरदान में मिली है. उसने गूस्तोव की किताबें पढ़ी हैं और सारी किताबें और सारे नुस्खे हर खाना पकाने वाले से एक ही बात कहते हैं -"कोई भी पका सकता है". और ये "कोई भी पका सकता है" वाला सन्देश रेमी के भीतर एक गर्व के साथ रहने लगता है और उसे अपने ख़्वाबों का बादशाह बना देता है. लेकिन उसके कुनबे के सभी लोग 'लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर' वाली परम्परा से हैं, जहाँ रेमी की सभी खूबियों को लोग जानते तो हैं, फ़िर भी उसे खाने की चीज़ों में चूहा-मार दवाओं की पहचान में लगाया गया है. रेमी बोले हाँ, तो हाँ और ना, तो ना.

बहरहाल, एक घर में बड़े ही गुप्त तरीक़े से रह रहे चूहे (जो कम-से-कम हज़ार तो होंगे ही) खाने की चोरी में हुई भारी गड़बड़ी से तितर-बितर हो जाते हैं, सारे दोस्त, सारे जोड़े, सारे भाई और बहन, बच्चे-कच्चे, सारे और सभी कुछ एक दूसरे से दूर हो जाते हैं. इस पचड़े में रेमी तो एकदम से दूर छिटक जाता है, गंदे-साफ़ पानी के भिन्न-भिन्न माध्यमों से बहने के बाद जब रेमी को होश आता है, तो वह होश एक बेहोशी लेकर आता है क्योंकि तब उसे इस बात का इल्म होता है, कि वह पेरिस में शेफ गूस्तोव के रेस्तरां के बिलकुल क़रीब है.

'हनुमान', 'घटोत्कच' और पता नहीं कौन-कौन से देवी-देवताओं पर भूतों की तरह एनीमेशन फ़िल्में बनाने वाली कम्पनियां केवल बाज़ार देखती हैं, बाज़ार में 'कौड़ी का तीन' हो रहे धर्म को देखती हैं, नहीं तो अच्छी फ़िल्मों का भारत में भी बन पाना मुमकिन है, लेकिन हालिया समझ को देखते हुए अच्छी बाल-फ़िल्में दूर की कौड़ी लग रही हैं.

मारिए गोली इन सब बातों को अभी, लेकिन मैं तो ये सोच हतप्रभ हो रहा हूँ कि अपना रेमी तो पगला ही गया होगा, जब अपने उस्ताद के होटल के सामने उसने होश सम्हाला होगा. उसके लिए यही अनुभव ज़मीन से उठाने के लिए काफ़ी होगा, जब मरे हुए गूस्तोव का भूत उसे बार-बार यह याद दिलाता होगा कि 'कोई भी पका सकता है'. मनुष्य की आत्मा कितनी स्थूल और मोटी है, गूस्तोव के सह-खानसामों में से किसी ने भी और उसके ख़ुद के बेटे तक ने भी 'कोई भी पका सकता है' वाला हुनर नहीं पाया, दुनिया-ज़माने की बात रहने दीजिये. यह जज़्बा केवल रेमी के लिए रखा गया था, बचाकर.....क्योंकि हर तरफ़ इसे लूटने के लिए लोग खड़े थे, जो इस जज्बे की गर्दन मरोड़कर उसे ख़त्म करने की ख़्वाहिश रखते थे....लम्पटों की एक पूरी फ़ौज.

अब आता है हीरो की दावेदारी पर सन्देह करने के लिए एक और पात्र...लिंग्विनी...इस बात से बिलकुल अनजान कि वह गूस्तोव का बेटा है, ऐसे बेटे जो अपने बाप से अनजान होते हैं, उन्हें हम किस तरीक़े से देखते हैं, उसी तरीक़े का सामाजिक तौर पर सफ़ल अनुवाद है लिंग्विनी. झाड़ू-पोछे-सफ़ाई जैसे अंतहीन काम के लिए रखा गया ये लड़का गाहे-बगाहे सॉस-शेफ के गुस्से का शिकार होता रहता है. इसी बीच रेमी रेस्तरां में घुसने में सफ़ल होता है, और एक कार-रिमोट वाली दोस्ती लिंग्विनी से कर लेता है. एक तरफ है लिंग्विनी जो कुछ नहीं जानता, दूसरी तरफ़....नहीं-नहीं...उसके ऊपर है रेमी जो वह सब जानता है जो गूस्तोव की खासियत रही है, रसोई की शान रही हैं वे चीज़ें. यही रेमी का सुपरविज़न सारे कुछ को एक अलग ऊँचाई पर खड़ा कर देता है...इस सारे कुछ में बहुत सारी चीज़ें रहती हैं...गूस्तोव के रेस्तरां का खोया हुआ शौर्य, गूस्तोव का सुख, भीड़, निर्धन और कठिन-सा प्रेम-सम्बन्ध...सब कुछ वापिस अपनी ऊँचाई पर लौट जाना था. रेमी का होना लिंग्विनी को यह एहसास दिलाना होता था कि वह ही गूस्तोव का बेटा है और उस रेस्तरां का मालिक. ओफ़! क्या सब कुछ सच में इतना कठिन था, हाँ, कम से कम एक चूहे के लिए जिसे अपने समाज से बाहर के समाज में एक गहरी पैठ बनानी थी, तब यह कठिन था......वह समय और भी कठिन होता है, जब किसी बुद्धिजीवी और कम ओहदे के व्यक्ति को किसी बड़े 'मूर्ख' को बात समझानी होती है. नाम रातातूई इसलिए रखा गया क्योंकि आख़िर में गूस्तोव की रसोई की शान वही रातातूई लेकर आता है, जिसे रेमी ने बनाया है. और भी कई किस्से और कई लोग हैं फ़िल्म में...उन्हें जानने के लिए फ़िल्म ही देख़ लीजिये.

फ़िल्म में रसोई एक ख़ास जगह है, एक पवित्र-स्पेस.....जैसे किसी कलाकार के लिए एक मंच... ये एक थियेट्रिकल परिकल्पना है जहाँ रसोई को केन्द्रीय-भूमिका देनी होती है, यह बहुत सरल-सा हिसाब है जहाँ हर पात्र और दर्शक अपने को उस स्पेस का हिस्सा होता हुआ पाता है. यह एकदम कोरी परिकल्पना है जहाँ चूहे खाना बनाते हैं और सुधार कर कहा जाए तो आदमियों का खाना, फ़िर थोड़े और सुधार के साथ एक बहुचर्चित रेस्तरां में.....लेकिन इसमें कितना आशावाद सम्मिलित है और एक 'I can do it' जैसी अवधारणा भी जिससे होकर गुज़रना ही आपको बुद्धिमान 'खानसामा' बना देता है.

मेरे अनुभव के आधार पर, आप इस फ़िल्म को देखने के बाद अपनी कुर्सी से संवेदनाओं का पहाड़ या आंसुओं का समंदर लेकर नहीं उठते. आप 'उड़ते' हैं एक हल्की-सी मुस्कान के साथ और उस अदम्य जिजीविषा के साथ जिसे पालकर 'कोई भी पका सकता है'. फ़िल्म में एक बड़ा चक्करदार प्रेम भी है, लेकिन वह उतना ही ज़रूरी है जितना फ़िल्म में लिंग्विनी का खाना बनाना. एक अच्छी फ़िल्म के नाम पर इसे अपनी सूची में जोड़ लें(यदि चाहें तो), नहीं तो यूं ही देख़ डालिए.

(एनीमेशन फिल्मों की श्रेणी में आप पहले वॉल-ई और अप को पढ़ चुके हैं)

3 टिप्पणियाँ:

मृत्युंजय ने कहा…

रैटाटुई की समीक्षा पढी. फिल्म पहले ही देख गया था. लालच में पीछे वाल ई और अप भी पढ़ गया. बढ़िया लिखा है दोस्त! बधाई.

बात सिर्फ यह नहीं कि किसी अविश्वसनीय घटना को फिल्म या एनीमेशन दिखाता है, बात यह है कि मनुष्य की सारी कल्पना के घेरे में अभी तक मनुष्य ही रहा है. अच्छा बुरा जो भी हो. इस कल्पना के भीतर दबे पहलुओं को सामने लाने का काम होना चाहिए.

हिन्दी के महान फिल्म समीक्षक तो ज्ञानिनामअग्रगण्यम हैं. हिन्दी में ही एक आलोचक हुए मिश्र बन्धु. रचनाओं पर नंबर बांटा करते थे. ऐसे ही फिल्मों पर सितारे बांटने वाले हैं ये लोग. उनकी छोडिये.

एक सुझाव- 'बोल्ट' और 'द इन्क्रेडिबल्स' पर भी इस सीरीज में लिखा जाना चाहिए. मदद चाहें तो इस नाचीज से भी मशविरा कर सकते हैं.

addictionofcinema ने कहा…

Kya baat hai guru, bahut badhiya aur gyanvardhak lekh, ab to is film ko dhundh ke dekhna hi padega...

बेनामी ने कहा…

kaphi achha likha.film dekhene ka man karene laga.rahi baat film critic ki to aaj kya umda hai aur kya nahin,iska decision ekmaatra market kar raha hai.to in prabudh mahanubhavon ko kam se kam apni gulami ke prati to schet hona chahiye, films to khair aage ki baat hai.