(उद्भावना के अप्रैल 2011 के अंक 92 में प्रकाशित विष्णु खरे और सम्पादक अजेय कुमार के बीच फ़िल्म 'धोबी घाट' पर हुई बातचीत को कुछ अलग तरीक़े से यहाँ दिया जा रहा है. स्वीकृति के लिए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे और अजेय कुमार का आभारी. फ़िल्म 'धोबी घाट' पर अभी तक जिस तरह की मूर्ख और भ्रामक समीक्षाएं दिख रही थीं, उन्हें चुप करने/रखने के लिए इसकी ज़रूरत थी. फ़िल्मों के प्रति विष्णु खरे का रवैया सभी समीक्षकों के लिए निहायत ही ज़रूरी हैं, क्योंकि फ़िल्म को सिर्फ़ उसकी कथा-वस्तु पर बहस का केंद्र बनाना ग़लत है. फ़िल्म के हर एलिमेंट को पकड़ में रख, उस पर बात करने की आदत हमें विष्णु खरे से लगती है. फ़िल्मों पर विष्णु खरे का नज़रिया हमेशा की तरह हमें आगाह करता रहता है.)
मुम्बई के जीवन पर इतनी फ़िल्में बनी हैं कि उन सबको याद रख पाना सम्भव नहीं है और आज तो यह स्थिति है कि अधिकांश फ़िल्में या तो मुम्बई पर बनती हैं या उसी पार्श्वभूमी पर बनी लगती हैं. 'सलाम बॉम्बे' और 'स्लमडॉग मिलियनेअर' मुम्बई पर बनी वे दो फ़िल्में हैं जो विश्वभर में चर्चित हुईं और विचित्र संयोग है कि वे विदेश-स्थित - एक भारतीय और दूसरा फिरंगी-निदेशकों द्वारा बनाई गई थीं. वे लोकप्रिय यथार्थवादी फ़िल्में थीं और उनके मुकाबिले 'धोबी घाट' एक प्रायोगिक कोशिश लगती है. इसका अंग्रेजी नाम 'मुम्बई डायरीज़' है जो कुछ भ्रामक लगता है. दरअसल मुम्बई अपने-आप में ब्रिटिशोत्तर इतिहास के कई शहरों, युगों, संस्कृतियों, वर्गों, धर्मों, भाषाओं, जातियों, माफियाओं, राजनीतिज्ञों, फ़िल्म उद्योग और एक जटिल यातायात प्रणाली से मिलकर बना लगभग पौने दो करोड़ की वृहत्तर आबादी का कथित 'कॉस्मोपोलिटन' घटोत्कच-नगर है. उसकी 'आत्मा' को शायद किसी महाकाव्य या 'गेर्निका' सरीखी पेंटिंग में ही पकड़ा जा सकता है, कथा-साहित्य या सिनेमा की पकड़ से वह बाहर लगता है, हालांकि मेरा मानना है कि लोकप्रिय मुम्बइया फ़िल्म के स्तर पर उसे सिर्फ़ ख्वाजा अहमद अब्बास-राजकपूर ने 'श्री 420' में हासिल किया था. 'धोबी घाट' की समस्या यह है कि वह मूलतः कुछ चरित्रों की कहानी है जो न तो प्रतिनिधि हैं न प्रतीकात्मक. उनमें से भी तीन प्रमुख किरदार तो मुम्बई के हैं भी नहीं, बाहर से आए हैं. अग्रेज़ी के एक चालू जुमले का इस्तेमाल करते हुए आधुनिक चित्रकार की भूमिका में आमिर खान मुम्बई को 'माइ म्यूज़, माइ होअर, माइ बिलविड' ('मेरी कलादेवी, मेरी छिनाल, मेरी माशूका') कहता है जबकि फ़िल्म मुम्बई को इन तीनों में से कुछ भी सिद्ध नहीं कर पाती - वह है इन तीनों से कहीं बेतहाशा ज़्यादा.
ख़ुद निदेशिका किरण राव 'धोबी घाट' नाम से आश्वस्त नहीं लगती. उसने हिन्दी में यह नाम इसलिए रख लिया कि लोग समझें कि शायद यह धोबियों के जीवन पर आधारित कोई सामाजिक, यथार्थवादी, प्रयोगात्मक फ़िल्म होगी. दशकों पहले एक फ़िल्म 'धोबी डाक्टर' बनी थी, लेकिन आशंका के विपरीत, वह हिन्दी में पीएच.डी. करने वालों पर कोई व्यंग्य नहीं था. किरण राव की फ़िल्म में धोबी घाट की कोई केन्द्रीय भूमिका नहीं है. उसका नायक मुन्ना कहने को धोबी दिखाया गया है लेकिन दरअसल वह इस्तरी करके लानेवाला छोकरा है. यह ठीक है कि उसे धोबी घाट पर कपड़े पछीटते हुए बताया जाता है लेकिन सभी जानते हैं कि महानगरों के धोबी धोने और इस्तरी करने के दोनों काम नहीं करते. धोने, सुखाने, इस्तरी करने, लाने-ले जाने के लिए उन्हें 48 घंटे का दिन चाहिए. एक आदमी तो ये काम कर ही नहीं सकता. मुन्ना अपनी ख़ाला की झोपड़पट्टी में रह रहा है और वह धोबियों का खानदान नहीं लगता. दिल्ली, मुंबई में एक ही बड़ी इमारत से प्रैसवाले दम्पतियों को, जो ख़ुद को धोबी कहलाना पसंद नहीं करते, इतना काम मिलता है कि वे अँधेरा होने तक कपड़े पहुंचाते रहते हैं. बहरहाल, किरण राव मुंबई को इंसानियत का धोबी घाट नहीं बना पाई. मुन्ना को रंगरेजी का दावा करनेवाला भी दिखाया गया है, लेकिन यदि किसी पोशाक के कपड़े में नुक्स हो तो दर्जी, धोबी, प्रैसवाले और रंगरेज़ उसे कहाँ तक सँवार पायेंगे?
काश कि 'धोबी घाट' के न चलने की वजह उसकी 'गंभीरता' होती, क्योंकि गम्भीर फ़िल्में तो बिलकुल भी न चलकर हमेशा चलती हुई होती हैं. 'धोबी घाट' में न तो कला है और न मनोरंजन. यदि आप देखें तो उसके अधिकांश पात्र 'क्लीशे' हैं - एक तलाकशुदा आधुनिक चित्रकार जो मुम्बई की नकली कला-दुनिया से ऊबा हुआ गरीब मुहल्लों में शायद जीवन और कला के अर्थ और प्रेरणा खोज रहा है, भारतीय मूल की न्यूयॉर्क-स्थित 'बैंकर' युवती जो 'सैबेटिकल' और कैमरे लेकर कलर और ब्लैक-एंड-वाइट इंडिया खोजने मुम्बई आई हुई है, दरभंगा का एक मुस्लिम नवयुवक ज़ोहैब जो मुन्ना बनकर अपनी ख़ाला की झुग्गी में रहकर रईसों के कपड़े प्रैस करता हुआ 'इंडस्ट्री' में 'हीरो' बनने के लिए 'स्ट्रगल' कर रहा है. किरण राव मुम्बई को लेकर लगभग सभी 'स्टीरिओटाइप्स' का इस्तेमाल कर रही है. इस झोंक में उसने यह भी दिखा दिया कि अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए मुन्ना रात को मुम्बई की मुनिसपैल्टी के लिए चूहों को लाठी से मारने का काम भी करता है. 'नाईट रैट किलर' कहलाने वाले इन चूहेमारों को हर रात न्यूनतम तीस चूहे मारने पड़ते हैं और उससे ऊपर प्रति चूहा पच्चीस पैसा एक्स्ट्रा मिलता है. मुन्ना न्यूयॉर्क की शाइ और मुम्बई के अरुण दोनों के कपड़े प्रैस करता है. एक रात बैंकर शाइ के साथ अचानक सो लेने के बाद चित्रकार अरुण उससे कह देता है कि ऐसे रिश्तों में उसका कोई यकीन नहीं लेकिन शाइ है कि उसे 'प्यार' किए जाती है. उधर गरीब चूहेमार धोबी 'स्ट्रग्लर' शाइ मेमसाब से अपने पोर्टफोलिओ के लिए फोटो खिंचाने की प्रक्रिया में उससे 'काफ़-लव' करने लगता है और शाइ भी शायद अरुण और मुन्ना के बीच दोमुंही है. यह भी इशारा है कि एक अधेड़ अमीर औरत मुन्ना का कभी-कभार यौन-शोषण करती है. आया के स्तर की नौकरानियां मुन्ना को कतई नापसंद करती हैं - वह उन्हें निम्नवर्ग का उचक्का लगता है. फ़िल्म को और मुम्बइया बनाने के लिए किरण राव एक ड्रग माफ़िया की उपकथा भी ले आती हैं जिसमें फंसकर मुन्ना का खालाजाद भाई मारा जाता है, हालांकि फ़िल्म का एक प्रभावशाली दृश्य वह भी है जिसमें मुन्ना मातमपुर्सी करने आए हत्यारे माफ़िया सरगना को अपनी झुग्गी में लाठी से पीटता है, भले ही अंत में वह ख़ुद ज़्यादा पिटता है.
मुझे लगता है कि फ़िल्म के चार प्रमुख पात्रों में सबसे मार्मिक वह नव विवाहिता मुस्लिम युवती है जो प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होती लेकिन एक सिनेमाई युक्ति के माध्यम से तीन वीडियो-पत्रों के फ्लैशबैक के ज़रिए 'धोबी घाट' में आवाजाही करती है. किराये के घर में एक पुरानी अल्मारी में अरुण को तीन डीवीडी पत्र मिलते हैं जो एक छोटी वृत्तनाटिका की तरह हैं जिसे उसकी 'नायिका' ने ख़ुद शूट किया है. शाइ की कुतूहल भारत-यात्रा और इस मुस्लिम नववधू की मुम्बई-यात्रा में फ़ोटोग्राफ़ी ही साझा तत्व नहीं है, दोनों का मोहभंग भी है जो मुस्लिम युवती के लिए जानलेवा है. फ़िल्म के इस ट्रैक का कोई सम्बन्ध मुन्ना और शाइ से नहीं है लेकिन अरुण, जो एक 'वायोर' की तरह इन दृश्य-श्रव्य 'पत्रों' को पढ़ रहा है, उन्हें पढ़कर, विशेषतः उनके भयावह त्रासद अंत से, इतना विचलित हो जाता है कि उसके चित्र शायद हमेशा के लिए प्रभावित होने लगते हैं - उसकी अमूर्त कला में मानवीय चेहरे प्रवेश करते हैं. क्या यह एक मात्र संयोग है कि 'धोबी घाट' के दो सम्पूर्ण पात्र एक युवती और एक युवक, दोनों त्रासद हालात के शिकार, मुस्लिम हैं? या वे हिन्दू दिखाए जाते तो भी कोई फर्क़ न पड़ता? शाइ अरुण पर 'स्पाइ' भी कर रही है, लेकिन आखिर में जिसे वह अपनी मुट्ठी में मसोस रही है वह अरुण का नया पता है या उसका अपना दिल? सबसे ज़्यादा ओपन-एंडेड किरदार मुन्ना का ही है - वह वापस प्रेस्ड कपड़ों की डिलीवरी करेगा, अपने भाई की हत्या का बदला लेगा, अपने आदर्श सल्मान खान की तरह फिलिम लाइन में दबंग बनेगा या अपनी खाला और उसके बचे हुए बेटे को लेकर दरभंगा के मुसलमानों के बीच लौट जाएगा? 'धोबी घाट-टू', किरण राव?
अब दरअसल 'पूँजीपति', 'एलीट', 'क्रीमी लेयर', 'बूजर्वा' आदि उच्च-वर्गों में भी कई वर्ग-उपवर्ग बन चुके हैं. आप यदि टेलीविजन, अंग्रेजी अखबारों के विज्ञापनों और पेज थ्री को ध्यान से देखें तो एक जाति-प्रथा धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग में भी सक्रिय है. 'धोबी घाट' में एलीट है जरूर लेकिन वह अम्बानियों-टाटाओँ-वाडियाओं-मल्यों के वर्ग की नहीं है. वह आर्टी-फार्टी विश्व है, वहाँ आधुनिक 'रीति' काल है, कॉमेडी ऑफ़ मैनर्स है, भंगिमा, मुद्रा, अभिनय है, एटीट्यूडिनाइज़िन्ग या नाज़-ओ-नखरा, अदाबाज़ी, छद्म है. गुणवता और कलात्मकता को लेकर एक एलीटिज्म हमेशा सम्भव और सह्य भी हो सकता है लेकिन उनकी अधकचरी समझ हास्यास्पद और त्रासद भी होती है, वह कितनी भी सदाशय क्यों न हो. 'धोबी घाट' में मंझोले दर्ज़े के दो एलीटिज्म हैं - एक तो मुम्बई के 'कला-जगत' का है, दूसरा एन.आर.आइ. शाइ का है, जो सारी सुख-सुविधाओं के साथ अपनी रूट्स वाले इंडिया को कैनन के टेली-लेंसों के माध्यम से डिस्कवर, कलेक्ट और रिकॉर्ड करने आई है - इनके मुक़ाबले यास्मीन के उस दृश्य को याद कीजिए जब वह एलोरा में त्रिमूर्ति से मुख़ातिब है, वह भी है फ़िल्म का हिस्सा, उसे भी किरण राव ने ही शूट किया है, लेकिन इसके बावजूद उसमें एक बहुयामी असलियत - औथेंटिसिटी - है.
मुझे किरण राव की नीयत पर शक़ नहीं है, न उसकी समझ पर. वह मुम्बई फ़िल्म उद्योग की उन युवा प्रतिभाओं में से है जिन्हें आधुनिक विश्व-सिनेमा की लगभग सारी जानकारी है. यातायात और संचार-संसाधनों ने यह भी सम्भव कर दिया है कि संसार के किसी भी कोने में आज रिलीज़ हुई फ़िल्म को आप अगले अधिकतम 48 घंटों में घर-बैठे देख़ सकते हैं. उस पर 'ट्विटर' और 'फेसबुक' के माध्यम से हज़ारों मील दूर चलती फ़िल्म के दरम्यान ही दर्शकों और विशेषज्ञों की राय जान सकते हैं. फ़िल्म-निर्माण तकनीक ने चमत्कारिक प्रगति की है जो अभी सिर्फ़ शुरू हुई है. प्रोड्यूसर-डायरेक्टर को एतराज़ न हो तो आप सीधे प्रसारण के ज़रिए फ़िल्मों की शूटिंग अपने ड्राइंग-रूम में देख़ सकते हैं, वह भी थ्री-डी में. अच्छी फ़िल्म बनाने के रास्ते में अब एक ही अड़ंगा बचा है और वह है निदेशक में प्रतिभा की कमी. जानकारी है, समझ है, सदाशयता है, यदि आपका पति आमिर खान है तो आपके पास सारे संसाधन भी हैं, लेकिन इन सबके बावजूद यदि आपमें कारयित्री प्रतिभा की कुछ कमी है तो आपकी 'धोबी घाट' 'अच्छी' फ़िल्म मानी जा सकती है, उसे 'दिलचस्प' और 'बहसतलब प्राम्भिक प्रयोग' कहा जा सकता है, लेकिन बड़ी फ़िल्म तो वह हो नहीं पाएगी. यहाँ समस्या 'फॉर्म' और 'कंटेंट' की नहीं है, वह तो आपको मालूम ही हैं, सवाल उन्हें प्रतिबद्ध रचाव-बसाव वाली कलाकृति में कायांतरित करने का है जो एक तरह के आत्म-नाश से ही हासिल हो पता है.
मैं प्रतिभा की आनुवांशिकता में यक़ीन नहीं करता, देखिये कि अमिताभ और जया बच्चन जैसे पिता-माता और बीसेक फ़िल्मों के बावजूद सपत्नीक अभिषेक बच्चन कितना दयनीय और हास्यास्पद अभिनेता चला आता है, लेकिन हाँ, राज बब्बर में भी कभी एक अच्छा अभिनेता बनने की संभावना थी और स्मिता पाटिल तो बड़ी अभिनेत्री थी ही, इसलिए प्रतीक में कुछ जन्मजात अभिनय-प्रतिभा हो तो क्या आश्चर्य? 'धोबी घाट' में उसकी वैसी-ही 'सबड्यूड' भूमिका है जैसी 'शक्ति' में अमिताभ बच्चन की थी. फ़िर भी, किरण राव अभी पूर्णरूपेण विकसित निदेशक नहीं हैं, उसे 'धोबी', 'दरभंगा', निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार, निम्नवर्ग-उच्चवर्ग सम्बन्ध, 'मुन्ना' सरीखे किरदार की मानसिक-बौद्धिक-सांस्कृतिक-सामाजिक बनावट के सारे न्यूआन्सेज़ का अहसास कुछ कम ही है. प्रतीक के अभिनय की कमियाँ निदेशक के भारतीय अनुभवों की कमियाँ हैं जो, सौभाग्यवश, उसी के सामाजिक वर्ग के 'स्वाभाविक' अटपटेपन-गॅाकीनैस-में छिप भी जाती हैं. हम चूँकि अपेक्षाकृत जागरूक भारतीय हैं इसलिए हम पकड़ लेते हैं कि प्रतीक दरभंगा का मुस्लिम युवक हो नहीं सकता. लेकिन सामान्य उत्तर भारतीय दर्शक और लगभग सभी दक्षिण भारतीय दर्शकों को वह नहीं खटकेगा और विदेशी दर्शकों को तो समूची भारतीय भू-संस्कृति से ही कुछ लेना-देना नहीं है, जबकि मेरा यह हाल है कि मैनें अपनी लम्बी ज़िन्दगी में मुस्लिम दर्जी तो बहुत देखे हैं और वे होते भी चश्मेबद्दूर माहिर और ईमानदार हैं लेकिन मुस्लिम धोबी या प्रैसवाला आजतक नहीं देखा-सुना, मुस्लिम-बहुल इलाकों में होते हों तो होते हों. दरअसल स्वयं किरण राव में अपनी नायिका शाइ जैसी नेकनीयती है और ठीक उसी जैसे भारत से नावाकफ़ियत भी है. शाइ अभी पहली पीढ़ी की एन.आर.आइ. है, 'भारतीयता' में रचे-बसे उसके माँ-बाप दोनों मौजूद हैं. वह मुन्नासरीखे किसी नवयुवक से एक ठेठ अमरीकी युवती जैसा बराबरी का बर्ताव करेगी इसमें मुझे शक़ है. शाइ की बेटी या नातिन ज़रूर फ़रागज़ेहन होगी.
देखा जाए तो यास्मीन का ट्रैक 'धोबी घाट' में सबसे मार्मिक, सार्थक और कलात्मक है. वह मलीहाबाद की मुस्लिम लड़की है जो अपने शौहर के साथ मुम्बई आती है और उसे कहीं से एक डीवीडी कैमरा मिल जाता है जिसपर वह मिनी डीवी टेप पर अपने मायकेवालों को ऑडियो-विजुअल 'ख़त' लिखती है. ये चिट्ठियाँ धीरे-धीरे उसके रोजनामचे, उसकी डायरियां बन जाती हैं यानी उसका मिनी (ऑटो) बायो-पिक्, उसका लघु आत्म (कथा-वृत्त) चित्र. ये ख़त मलीहाबाद क्यों नहीं भेजे जा सके यह एक राज़ ही रहता अगर चित्रकार अरुण को वे अपने 'नये', मामूली किराये के घर की एक पुरानी लकड़ी की अल्मारी के बक्से में कुछ सस्ते गहनों के साथ न मिले होते. यूं तो सभ्यता का तक़ाज़ा है कि किसी भी और के - अपनी पत्नी तक के - निजी ख़तों और डायरियों को नहीं पढ़ा जाना चाहिए लेकिन हममें से कितने हैं जो इसका लोभ सवरण कर पाते हैं और चित्रकार अरुण तो अभी अपने राहबर को पहचानता नहीं है इसलिए उन्हें अपने टीवी पर पढ़ता है और एक जीवंत नवोढ़ा को एक अभागी बीवी में बदलती देखने वाला शायद पहला और अन्तिम शख्श बन जाता है. यास्मीन से वाबस्ता दो दृश्य स्मरणीय हैं - एक में वह रेत पर उर्दू में अपना नाम लिखती है जिसे समंदर की लहरें आकर मिटा देती हैं, जिसके कई प्रतीकार्थ हो सकते हैं और दूसरा कुछ और जटिल है - शाइ चोरी-छिपे अरुण के फोटो ले रही है, जो 'अनैतिक' रूप से यास्मीन के वीडिओ देख़ रहा है, यास्मीन अपने कैमरे में देख़ रही है, और हम दर्शक इस सबको पर्दे पर 'धोबी घाट' के कैमरामैन के ज़रिए देख़ रहे हैं. यह बहुस्तरीय, अनेकार्थी वॉयोरिज़्म है. यदि किरण राव ने अपनी इस पहली फ़िल्म से कुछ सही सबक़ लिए तो उनकी अगली फ़िल्म वैसी ही हो सकेगी जैसी वह 'धोबी घाट' को बनाना चाहती थी.
6 टिप्पणियाँ:
विष्णु जी को पढ़ना हमेशा एक नया और पिछले से अलग अनुभव देता है, बड़ी ख़ुशी होती है जब कोई किसी बात को अपने साफ़-सुगम तरीक़े से बतला जाता है. अधिकांश फ़िल्म-आलोचक भाषा कठिन करते हुए सतही तौर पर फ़िल्मों पर बात करना ज्यादा पसंद करते हैं, जो गड़बड़ है. इस पोस्ट के लिए धन्यवाद.
यूं तो मैं वर्चुअल स्पेस से दूर रहती हूँ, लेकिन आज इसे पढ़कर फ़िल्म समीक्षा के बारे में काफ़ी-कुछ रोचक और शिक्षाप्रद जानने को मिला. फ़िल्म समीक्षाएं सतही न होकर, यदि भीतर तक घुसकर देखने वाली हों, तभी आनन्द प्राप्त होता है. सिद्धान्त जी का धन्यवाद.
पूजा पाठक,
लखनऊ.
Vishnu ji ko cinema par padhna hamesh ek naya nazariya deta hai lekin asia nahi ki dhobi ghat par achha likhne wale log murkh hain. Do alag alag nazariye apne apne karanon ke saath bilkul sateek ho sakte hain. Sateek, sahi nahi kyonki sahi kuchh nahi hota. badhiya alekh ke liye dhanyawad
Vimal Chandra Pandey
विमल भाई,
मुझे लग रहा है मेरा लिखा कुछ गलत तरीके से प्रेषित हो रहा है, इसके लिए क्षमा. इधर हाल में ही कुछ पत्रिकाओं में और कुछ ब्लॉग्स पर समीक्षा के नाम पर सिर्फ फिल्म की मूल कथा-वस्तु ही देखने को मिल रही थी और आलोचना की भरपाई करने के लिए सिर्फ एकाध वाक्यों में फिल्म को आमिर खान प्रोडक्शन का उत्पाद मानते हुए अच्छा बताया जा रहा था. मेरा स्पष्ट आशय इन्हीं समीक्षाओं से था, फिल्म को अच्छा-बुरा कहने के लिए टैग-लाइन की ज़रुरत नहीं होती है, उसे आंकना पड़ता है, मैनें इन्हीं विचारहीन समीक्षाओं को मूर्ख कहा है. यदि कोई इस फिल्म पर अच्छा लिखता है, तो उसके पास भी निश्चय ही स्पष्ट कारण होंगे या होने चाहिए.
interesting :-)
Haan Sidhhath, kyonki Dhobi Ghat bataur film mujhe bhi koi khas nahi lagi lekin uski Rahul ki sameeksha kafi achhi lagi kyonki unke tark aur karan bahut achhe aur sateek hain. film ki kuchhe khubiyon ko unhone bahut achhe se uthaya hai...jin alochakon ne ise Amir Khan production ka product hone se achha bataya hai ve sab bike hue sameekshak hain
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