शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

बहस फ़िर से हो....

जब कुछ भी लिखा जाए, तो सारे कुछ के समझे जाने के लिए पर्याप्त जगह होनी चाहिए. लिखना इस तरह से होना चाहिए, कि वहाँ आगे लिखवा पाने की संभावनाएं होनी चाहिए. जब-जब कविता लिखी जाए, वहाँ सिर्फ़ कविता ही लिखी जानी चाहिए, ऐसा कुछ भी नहीं जहाँ कविता के अनुपस्थित होने की संभावनाएं होती हैं. इस लेख के लिखे जाने के कई कारण थे. विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण मैनें ये जाना कि कविता सिर्फ़ हिन्दी-साहित्य के विद्यार्थियों और रहस्य-ज्ञाताओं के लिए नहीं होनी चाहिए, इससे कई विषय के छात्रों का परिचय कराना ज़रूरी है. ये बात तो सच है कि कविता सबसे सरल साधन रही है, अभिव्यक्ति का.....लेकिन इसी धारणा के साथ कुछ कविताएँ ऐसी भी लिखी जा रही हैं, जहाँ हिन्दी-विकास के रास्ते बंद होते दिखाई दे रहे हैं, अज्ञानी और ढोंगी जब कुछ भी लिख, उसके कविता होने का ढोल पीटते हैं तब हमें याद आती है उन लोगों की जिनकी रचनाओं से हमने जाना कि कविता को कब कविता कहा जा सकता है, सोचा कैसे जाता है और फ़िर से लिखा कब जाता है.

इतनी ज़्यादा तल्लीनता से बुद्धू-बक्सा का एक वर्ष पूरा कर पाऊँगा, विश्वास नहीं था लेकिन आशा थी, मित्रों और बड़ों का इतना साथ मिला कि आभार व्यक्त करना औपचारिक लगता है. आगे लिखे गए को लेख न समझें, तो बेहतर...विचारों का बेहद रैंडम संकलन कह लें या नोटबुक का हिस्सा कह लें, तो और अच्छा.

हम जब लिखें तो सोचें :

कविता क्यों लिखें
सिर्फ़ इसलिए, कि वहाँ कविता के अलावा और कुछ नहीं लिखा जा सकता था? इस शर्त पर कविता लिखना, पेशाब करने जैसा है, क्योंकि इस तरह के काम में सब कुछ निकाल देने की चाह होती है, जो कविता के मूल को परेशान करती है. लिखा जाए, तो सिर्फ़ लिखने के लिए और उसे समझा पाने के लिए. क्योंकि हिन्दी कविता की भाषा-दिशा इतनी अनिश्चित होती दीख रही है, कि वहाँ दख़ल करने की आकस्मिक ज़रूरत है. ये दखलंदाज़ी 'अभी नहीं तो कभी नहीं' के आधार पर होनी चाहिए, क्योंकि कुछ युवा-बुद्धिजीवियों को छोड़ दें, तो कविता का बेड़ा गर्क़ माना जा सकता है.

निश्चितता का होना ही कविता नहीं, बल्कि निश्चितता की आसान उपलब्धता असल कविता की पहचान है. समाज के लिए कविता नहीं लिखना, क्रांति के लिए कविता नहीं लिखना या विद्रोह के लिए कविता नहीं लिखना, दरअस्ल कविता नहीं लिखना है. समाज को न गिनते हुए सोचना, कवि-मन की पहचान नहीं है.

प्रेम कविता, सही मायनों में प्रेम के लिए नहीं होती है, वह अपने-अपने निजी प्रेम के लिए होती है, या विषय-वस्तु में थोड़ा परिवर्तन कर अपने प्रेम को दूसरे तरीक़े से दिखाने का माध्यम होती है. किसी उदाहरण की आवश्यकता या अपवाद की उपलब्धता नहीं है.

दुखों के लिए लिखना, आसान नहीं है, लेकिन अभिव्यक्ति हमेशा आसान लगती है. दुःख-दर्द कभी कविता में अपने पूरे रूप के साथ नहीं आ पाते, कहीं न कहीं कुछ बचा रह जाता है, यह अधूरापन कविता की दिशा-दशा पर काम करता है.

जब सेक्स के लिए लिखा जाए, तो उसे क्यों न अनुभूति के बराबर वाले चरमोत्कर्ष पर ले जाकर ख़त्म किया जाए? वहाँ क्यों उभार-गहराइयों में सीमित रहा जाए? उसमें कामुक फ़िल्मों सरीखे प्रयोग करके देखे जाएँ, जिसे कभी हार्डकोर बनाने की दिशा में काम किया जा सके.

कविता तब लिखें, जब मन करे न बोलने का...या ख़ूब बोलने का, कविता को भाषा के क्षेत्र में बचाए रखने के लिए, उसे भूख़ की तरह लिखा जाए, कल्पना के आधार पर न लिखा जाए, क्योंकि अब बहुत कल्पनाशील बन चुके हम, क्यों न सत्यवादी बन लिखा-पढ़ा जाए, तथ्यों पर कविता लिखी जाए....प्रेम के भी तथ्यों पर.

कविता कब लिखी जाए 
लिखें, जब लगता हो कि आपके अलावा सबकी लिखने की ताक़त ख़त्म हो चुकी है. कोई उबाल नहीं बचा, न कोई भाव. परिणाम-जनक प्रभाव पैदा करने की स्थिति में कतई न लिखें, हताशा-निराशा में ज़रूर लिखा जाए, इसलिए नहीं कि इस दौरान सबसे अच्छे से लिखा जा सकता है, बल्कि इसलिए क्योंकि इस दौरान सबसे बेहतर लिखने की कोशिश की जा सकती है.

न लिखा जाए प्रेम के दौरान...प्रेमान्त में लिखा जाए...या उस समय लिखा जाए, जब प्रेम चरम पर हो और उसके बहाव को रोका जा सके. ग़रीबी के लिए कम से कम, भ्रष्टाचार के लिए कम से कम, भुखमरी और दंगों के लिए भी, और धोखाधड़ी के लिए भी .... ऐसा इसलिए है क्योंकि यहाँ कुछ भी बदल सकने लायक नहीं है...न ग़रीबी ख़त्म होगी, न भ्रष्टाचार और न ही दंगे. प्रेम भी इसी श्रेणी में आ सकता है, यहाँ भी बदलने लायक कुछ नहीं है, लेकिन इसके कई प्रकार हो सकते हैं, जो रचनाशील होने में मददगार हैं.

लम्पटों और मूर्खों के बीच घुस कर लिखिए, ये लोग ज्ञान में सबसे पीछे और विद्रोह या बहसों में सबसे आगे रहते हैं, तमाम नौकरशाह और धर्मान्ध - बाबा इसी श्रेणी में आते हैं, ऐसे ही लोग रचना-रचनाकार को ले डूबते हैं. ये कष्टकारी है, लेकिन इस समय हिन्दी के ग़ैर-ज़िम्मेदार छात्र इसी श्रेणी में आते हैं, उस धारणा से अलग जहाँ युवाओं को हिन्दी-साहित्य का सारथी माना जा रहा है.

सिर्फ़ छपने की चाह में न लिखा जाए, लेकिन न पढ़े जाने की बेफ़िक्री के बिना भी न लिखा जाए, अभिव्यक्ति भी तो ज़रूरी है, पहचान भी, ख़ासकर हिन्दी के विषय में. ख़ूब सोचकर लिखने से बेहतर है, ख़ूब लिखकर सोच जाए, सोचकर लिखने से एक तरह की स्थिरता आती है, या कहें कि स्थूलता का आगमन होता है जिसके आगे बढ़ पाने में कठिनाइयां आती हैं.

कविता - क्या लिखा जाए
सरल लिखा जाए तो बेहतर, भाषा को जान-बूझ कर कठिन रखना बेवकूफी है. काव्य को अधिक बड़े पाठक वर्ग के लिए न लिखकर, हर छोटे से छोटे पाठक वर्ग के लिए लिखा जाना चाहिए, ऐसी कवितायें, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बेहतर काम करती हैं. कविता की भाषा और स्वरूप पर ज़्यादा सोचे बग़ैर उसके विषय को प्रभावकारी बनाना चाहिए. बात साफ़ है, जब किसी चीज़ को कविता में लाया जाए तो उसके हर आयाम पर सुलझी बहस होनी चाहिए, भले ही वह कोण-आयाम कितना ही कठिन क्यों न हो. जो कवि कठिन लिखने में 'सहज' हों, वे भाषा के प्रभाव को त्याग, कविता के प्रभाव को अपनाने की कोशिश करें, बेहतर लगेगा. यही कारण है कि रघुवीर सहाय की कविता का विषय भले ही कितना क्लिष्ट क्यों न हो, लेकिन उनकी भाषा का जवाब नहीं? रघुवीर सहाय को पढ़ते वक़्त कविता पढ़ने जैसी मेहनत नहीं करनी पड़ती, ऐसे और भी कई कवि हैं, लेकिन जिस सहजता से रघुवीर सहाय का नाम लिया जा सकता है,, शायद किसी दूसरे का नहीं.
उदाहरण:

यह उदास मौसम
और मन में कुछ टूटता सा

अनुभव से जानता हूँ
वसंत है


समय को लिखा जाए, उस तरीक़े से जिसका इस्तेमाल पहले न हुआ हो... समय में घटित घटनाओं के ज़िक्र की ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ समय लिखा जाए,

आन्दोलन को लिखा जाए, आन्दोलन यदि सही चीज़ के लिए हो (जैसा होता आया है) तो उसे भड़काने की दिशा में लिखा जाए. जनकवि होने की चेष्टा करनी चाहिए, विद्रोह को हवा देने के आशय से कविता लिखें तो क्या ग़लत है? खुलकर लिखा जाए अमेरिका के ख़िलाफ़ या ऐसी ही किसी पूंजीवादी महाशक्ति के ख़िलाफ़, जब किसी तंत्र के खिलाफ़त में कविता कही जाए, तो कोशिश रहे कि भाषा को उस दौरान पूरे रौ में लिखा जाए, असहमति को पूर्ण रूप से स्पष्ट करते हुए. क्रांति, विद्रोह और आन्दोलन की बातें करते हुए मुझे हमेशा गोरख पाण्डेय का ख़्याल सबसे पहले आता है, जिन्होंने क्रान्ति और मजदूरों को बंद मुट्ठी की ताक़त के साथ लिया.
उदाहरण:
वे डरते है
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।


प्रेम, सबसे ख़राब चीज़ जो कविता को अपने ढंग से चलाता है. प्रेम-कविता में प्रेम को अपने नियंत्रण में रखें. सिर्फ़ प्रेम ही क्यों लिखें, प्रेमान्त का ज़िक्र भी होना चाहिए, शारीरिक प्रेम को कवि अच्छे से कह पाते हैं, क्योंकि वहाँ पर भौतिकता के अलावा कुछ नहीं होता, मुश्किल होती है जब भौतिक-स्वरूप को छोड़ना पड़ता है. शरीर को हथियार बनाकर इतना लिखा जा चुका है, कि अब एक आम पाठक किसी साधारण कविता(प्रेम!) में शरीर और उसके तमाम तिलिस्मों को खोजता है, शारीरिक प्रेम का कविता में आना कहीं से ग़लत या उबाऊ नहीं है, लेकिन "शरीर बराबरप्रेम " का नियम मुझे तर्कसंगत नहीं लगता. प्रेम को जब पहचान दी जाए, तो वहाँ होने वाली मानसिक फुरक़त को बता सकें तो बहुत अच्छा, जो हमेशा प्रेममार्गी से भी अलक्षित रहती है, जिस दौरान घर वाले थोड़े कम अच्छे लगने लगते हैं, तो उस समय को बिना तथ्यों के लिखा जाना चाहिए.

बाद का तो मालूम नहीं, लेकिन दंगे में तलवार घोंपने के पहले दिमाग में चलने वाली बातों को समझाना चाहिए. प्रकृति को भी फ़िर से और अच्छे तरीक़े से कहा जाना चाहिए. 

तुकबंदी लिखी जाए फ़िर से, मुक्त छंद न लिखे जाएँ तो क्या बुरा?


समझ
'बहुत अच्छे', ' वाह', 'अद्भुत' जैसा अलंकरण पाने वाले कवि ख़ुश रहें, वे जनकवि होने की दिशा में बेहतर काम कर रहे हैं क्योंकि जनता उनके बारे में सोच रही है. विषय का चुनाव ही सबकुछ नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति का लोहा मनवाना आम आदमी की कविता है. अगर मैं ग़लत नहीं सोच रहा, तो अगला युग युवा-जनकवियों का होने वाला है (शायद अभी भी यही), क्योंकि विश्व की हालत इतनी ख़स्ता और लचकती हुई है कि जनता को संबोधित कर सकने वाले लोग ही अब आगे दिख सकेंगे.

कविता की विधा दिन-ब-दिन और ज़्यादा परेशान करने वाली होती जा रही है.....कुछ छिछले लेखक गद्य लिखते-लिखते, कविता की ओर मुड़ जाते हैं ऐसे समय पर वे दोनों ही विधाओं का भरपूर शोषण करते हैं, तब जो चीज़ सामने आती है उसे "ख़राब कविता" कहते हैं. मैं ये कतई नहीं कहता कि एक व्यक्ति - एक विधा. लेकिन थोड़ा सा प्रेम विधा से भी चाहिए होता है, इसलिए कहानीकार एक सफ़ल कहानीकार भी होता है और आलोचक एक अच्छा आलोचक.

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