रविवार, 11 जुलाई 2010

मेरा यार मिला दे….

रात के दो बजने जा रहे हैं, घर में सब सो रहे हैं, बस मैं ही उलझ गया…. कंप्यूटर का वो हिस्सा, जिसमे मैं गाने रखता हूँ, उसे खंगालते-खंगालते एक फोल्डर पर नज़र पड़ी…साथिया.

शाद अली की पहली फ़िल्म है, कहानी आई है बरास्ते मणिरत्नम. गीत लिखा हैं गुलज़ार ने और हारमोनियम-कंप्यूटर संभाला है रहमान ने.

फ़िल्म तो कुछ ख़ास नहीं है कि ये मुझे रात को इतनी देर तक जगा सके, हाँ, लेकिन संगीत ज़रूर है. ये बात तो है कि रहमान बहुत ज़्यादा अपने कंप्यूटर वाले हिस्से पर निर्भर हो जाते हैं, लेकिन सारे ऐब को नज़रंदाज़ करते हुए ध्यान दिया जाये मेरे पसंदीदा गाने मेरा यार मिला दे… पर.

हमान ने गाया है और शायद जी खोल कर गाया है, कभी तो इसे सुनकर लगता है कि गाने वाला सचमुच किसी से मिलने की ज़िद में बैठा है. पार्श्व में लय एकदम खुल के चल रही है जैसे वो अपने से अलग के सभी सांगीतिक प्रभावों को मुंह चिढ़ा के कह रही है – आओ! मेरे जितना बह के दिखाओ, मेरे जैसा बह के दिखाओ…..चाहो तो छूट के दिखाओ उस सीमित सौंदर्य से. एक-एक थाप खुल कर सुनाई पड़ती है और यही खुलापन समूचे गीत के माहौल को और खुला बनाता जाता है.

शायद रहमान भी नहीं रोक पाए हैं उसे, रहमान के बारे में ये कहा जा सकता है कि उनकी आवाज़ बड़े ही धीमें क़दमों के साथ कान में पड़ती है और फिर घुलने लगती है. आवाज़ में हल्का सा दोहरापन पता चलता है लेकिन बढ़िया है.

गीत में और कोई दूसरी आवाज़ नहीं सुनाई देती है बस डरे-सहमे से वाद्ययन्त्र.

अगर आप चाहें तो एक और बात नोटिस कर सकते हैं कि अधिकतर गानों में कोई ऐसा प्रभाव नहीं सुनाई देगा जो गायक की आवाज़ को दबाये….. जैसा सुनने को मिलता है अदनान सामी के गाये गाने ऐ उड़ी उड़ी उड़ी….. में. यहाँ पर आपको गिटार की बेस पिच का बेजोड़ इस्तेमाल सुनने को मिलेगा. यहाँ उलझने के साथ खुली हुई लट रात भर बरसी थी और रहमान ने भरपूर समय लिया है इस गीत को उसी शरारती लहज़े में ढालने के लिए. बस यूं ही कहना चाहता हूँ कि अगर अदनान के अलावा कोई गायक होता तो उस ख़ास प्ले का दीदार होना शायद नामुमकिन होता.

दरअसल, रहमान बहुत कम ही फ़िल्मों में मेरे मन को भाने वाला संगीत दे पाते हैं. लेकिन साथिया का संगीत थोड़ा बहुत उस रहमान की याद दिलाता है जो इल्लैयाराजा के साथ रहता था और ये बड़ा ख़ुशनुमा एहसास है. अगर देखा जाये चुपके से लग जा गले…… जैसे गीत को तो पता चलता है हर छोटी-छोटी चीज़ अपना व्यापक प्रभाव श्रोता पर डालती है. मसलन, इस पूरे गीत में पीछे बज रहे घुंघरुओं और पायल को शायद आपने कभी ध्यान से सुना हो. यदि नहीं सुना तो सुनियेगा ज़रूर. एक बड़ा विस्मृत करने वाला क्षण आता है जब इस गीत के ठीक बीच में बहुत थोड़े समय के लिए लय ब्राजीलियाई साम्बा जैसे कुछ में बदल जाती है. अरे ये तो बताना भूल गया कि यहाँ साधना सरगम हैं और साथ में मुर्तज़ा खान और क़ादिर खान भी हैं.

कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि रहमान किसी भी गायक/ गायिका से कुछ भी गवा सकते हैं, लेकिन शंकर-एहसान-लॉय को मैं रहमान से ऊंचे पायदान पर रखता हूँ, लेकिन उनके बारे में फिर कभी बात करूंगा.
फ़िल्म का संगीत अपने आप में बड़ा फैला हुआ है. और भी गाने हैं इस फ़िल्म में, लेकिन उनके बारे में मैं खुल के बात नहीं कर सकता हूँ. इस बार कोई वीडियो नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि ये सारे गाने सिर्फ़ कान के रास्ते ही दिमाग को धनधनाते हैं.

2 टिप्पणियाँ:

jandunia ने कहा…

शानदार पोस्ट

manoj kumar ने कहा…

आपको पढना अच्छा लगा!