बुधवार, 2 नवंबर 2016

हंस साहित्योत्सव पर प्रियंवद का पत्र

साहित्य के संसार में आपकी कथनी अगर आपके कर्मों से मेल नहीं खाती, तब वह बिल्कुल व्यर्थ है। समादृत लेखक प्रियंवद अपनी कथनी और करनी की एकरूपता की वजह से भी इस साहित्य-समय में समादृत हैं। उन्होंने एक पत्र मुझे भेजा है। यह पांच नवंबर 2016 को राजेंद्र यादव की तीसरी पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित होने जा रहे ‘हंस साहित्योत्सव 16’ को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कथा-केंद्रित यह आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सौजन्य से संभव हो रहा है। 
इस सिलसिले में प्रियंवद की बातें एक पत्र की शैली में सामने जरूर आई हैं, लेकिन ये बातें सिर्फ मुझे ही संबोधित नहीं हैं। इनका एक सार्वजानिक अर्थ और अहमियत है, और इसलिए ही ये बातें एक पीढ़ी और एक समग्र समकालीनता को भी संबोधित हैं। 
इस पत्र का लक्ष्य इस आयोजन का अंश बनने जा रहे लेखकों-लेखिकाओं को इस आयोजन में जाने से रोकना कतई नहीं है। दरअसल, यह दूसरे की आजादी और अभिव्यक्ति का ख्याल रखते हुए अपने कहने के अधिकार को बनाए रखना है। 
इस पत्र का शिल्प शंकाओं का शिल्प है। इसमें शंकाओं को ध्यान की परिधि में ले आने का आग्रह अनुस्यूत है कि कहीं आप कोई भूल तो नहीं कर रहे, कि कहीं आप कुछ भूल तो नहीं रहे.. 


- अविनाश मिश्र



प्रिय अविनाश,

यह पत्र एक खास मकसद से लिख रहा हूं। तुम दिल्ली में रहते हो, हिंदी जगत में सक्रिय हो, उससे परिचित हो, इंटरनेट की दुनिया में भी लोगों से संवाद में हो, युवा साथियों के साथ उठते-बैठते हो... इसलिए अपनी कुछ शंकाओं या कि चिंताओं को तुमसे बांटना चाह रहा हूं। दूर बैठकर अनुमान लगाना या आकलन करना गलत हो सकता है।

अभी ‘हंस साहित्योत्सव 16’ का निमंत्रण मिला। राजेंद्र यादव की तीसरी पुण्यतिथि के अवसर पर यह आयोजन संस्कृति मंत्रालय के सौजन्य से हो रहा है। यह कार्ड पर उल्लिखित है। कोई भी आयोजन किसी के भी सौजन्य से हो, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन बात यहां राजेंद्र यादव की पुण्यतिथि पर, उनके नाम पर किए जाने वाले आयोजन को, इस सरकार के सौजन्य से करने पर उठती है। राजेंद्र यादव ने जीवन भर ‘हंस’ के संपादकीय पृष्ठों पर भारतीय जनता पार्टी का उग्र विरोध किया - लगभग निंदा या तिरस्कार के स्तर पर। यह विरोध इतना प्रकट और स्पष्ट था कि सब इसे ‘हंस’ का मूल स्वर मानते थे। क्या यह अनायास है कि उन्हीं राजेंद्र यादव की तीसरी पुण्यतिथि पर ‘हंस’ का आयोजन भारतीय जनता पार्टी के सौजन्य से किया जा रहा है? यह उनसे अपरिचित लोगों द्वारा नहीं, उनके नितांत आत्मीय और सहयोगी रहे लोगों द्वारा आयोजित है। ऐसा तो नहीं होगा कि वे इस तथ्य और सच्चाई को नहीं जानते होंगे। इसके पीछे जरूर कोई तर्क, कोई सिद्धांत, कोई नैतिक आधार होगा? तुमने कुछ सुना हो तो बताओ? हां, लेकिन यह चालू और धूर्तता भरा तर्क मत देना कि ‘जनता का पैसा है’ या यह कि ‘काकोरी के शहीदों ने भी रेल डकैती डाली थी।’

दूसरी बात वामपंथी लेखक संगठनों के पदाधिकारी, या उनके वैचारिक समर्थक या वे लोग जो गोधरा कांड के बाद निर्मल वर्मा के मौन को ‘चुनी हुई चुप्पियां’ कहकर दहाड़ रहे थे और ललकार रहे थे, इस आयोजन में सगर्व आमंत्रितों में शामिल हैं। इसके पीछे भी कोई सैद्धांतिक तर्क-विचार जरूर होगा? खासतौर से वामपंथी लेखक संगठनों के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के पास, जिन्होंने जीवन भर भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से प्रभावित लेखकों पर सांप्रदायिक होने का चाबुक फटकारा है। उन्हें साहित्य से बहिष्कृत रखा है। तुम कुछ जानते हो तो बताओ? तुमने शायद यह खबर सुनी होगी, हालांकि अभी यह पूरी तरह सामने नहीं आई है, कि संस्कृति मंत्रालय ने ‘नोबेल पुरस्कार’ की तर्ज पर ‘नैमिष्य पुरस्कार’ देने की योजना बनाई है। संभवत: अगले माह वाराणसी में किसी आयोजन में इसकी शुरुआत होगी। इसका कुल बजट 220 करोड़ रुपए है जिसमें से 70 करोड़ रुपए पुरस्कार-राशि के रूप में बांटे जाएंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रत्यक्ष रूप से या मंचों पर सदैव भारतीय जनता पार्टी का विरोध करने वाले लेखक, यहां तक कि ‘भारत भवन’ के कार्यक्रमों में भी शामिल होने से परहेज करने वाले (हालांकि बी.जे.पी. सरकार के विज्ञापन लेने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है) हिंदी के कई सूरमाओं को जो हिंदी साहित्य को टकसाल की तरह सिक्के उगलने में इस्तेमाल करते हैं, उन तक यह सूचना पहुंच गई हो, और वे इस आयोजन में इसलिए शामिल हो रहे हों कि उन्होंने इस विपुल पुरस्कार को सूंघ लिया है और उनकी गिद्ध-दृष्टि इस पर गड़ चुकी है? कहीं यह पूरा आयोजन इस पुरस्कार में सेंध मारने की पूर्व-पीठिका तो नहीं है? दिल्ली में कुछ चर्चा तो होगी ही, कुछ सुना हो तो बताओ?

तीसरी बात, कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘हंस’ संभालने वाले राजेंद्र यादव के वारिसों द्वारा सत्ता में घुसपैठ बनाने और सेंध लगाने के लिए ‘हंस’ के नाम और मंच का दुरुपयोग किया जा रहा हो? तुम तो ‘हंस’ के कार्यक्रमों में शामिल होते ही होगे? तुम्हें और तुम्हारे युवा साथियों को क्या लगता है? वे क्या सोचते हैं? राजेंद्र यादव क्या यह पसंद करते कि उनकी पुण्यतिथि मनाने के लिए बी.जे.पी. सरकार से धन लिया जाए? क्या ‘हंस’ की आर्थिक स्थिति इतनी गई-गुजरी है कि बगैर बी.जे.पी. सरकार के आर्थिक सहयोग के राजेंद्र यादव की पुण्यतिथि का आयोजन नहीं हो सकता? संभवत: हिंदी के सबसे संपन्न लोगों के हाथों में ‘हंस’ की विरासत है। यह न भी हो तो भी क्या राजेंद्र यादव के नाम पर उनके गमगुसार न चले आते? लेकिन शायद इस आयोजन का मकसद कुछ और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजेंद्र यादव के नाम पर कुछ लोगों के दरवाजे पर दस्तक दी जा रही है या कुछ लोगों के लिए दरवाजे खोलकर वंदनवार लटका दिए गए हैं?

हर दर्शन की हत्या उसका धार्मिक रूप तय करता है। हर बड़े व्यक्ति की वैचारिक और भावनात्मक हत्या उसके अपने करते हैं। बुद्ध की बौद्धों ने की, मार्क्स की मार्क्सवादियों ने, गांधी की गांधीवादियों ने। आगामी पांच नवंबर को त्रिवेणी सभागार में तुम जाओगे ही। शायद वहां भी ऐसा ही कुछ हो। बताना जरूर कि क्या ऐसा हुआ? यदि नहीं तो गहरी आश्वस्ति मिलेगी। इस रचनात्मकता-विरोधी समय में जब छली शब्दों द्वारा दुरभिसंधियों और धुंधलकों की गहरी अस्पष्टताएं रची जा रही हैं, एक साहित्यिक कोना है जहां बैठकर थोड़ी धूप, थोड़ी हवा मिलती है। मैं सहम रहा हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अंधेरे इधर भी बढ़ रहे हैं। मेरी शंकाएं, मेरी चिंताएं नितांत मेरी अपनी हैं, इसलिए तुमको लिख रहा हूं। अगर तुम बताओगे कि यह सब मेरा पिछड़ापन है, समय और बदलती साहित्यिक परिभाषाओं से अपरिचय है, मैं पूरी तरह गलत और निराधार हूं, मेरी चिंताएं झूठी हैं और साहित्य का कोना अधिक प्रकाशमान और अधिक रचनात्मक हो रहा है तो मैं तुम्हारा दिल से आभारी रहूंगा। मेरे लिए इतना कष्ट उठाओगे ऐसा विश्वास है...

तुम्हारा
प्रियंवद

[मौजूदा वक़्त में लेखकों की मुस्तैदी क़ाबिल-ए-गौर है. उस मुस्तैदी में संभावनाएं बहुत तेज़ी से घर करती हैं. हंस का यह आयोजन भी उसी तौर पर एक संभावना भी है. इतने तेज़ समय में यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि संस्थान बिकेंगे नहीं, या वे अपने पुराने समीकरणों में बदलाव नहीं करेंगे, या लेखक उन समीकरणों के बचाव में नहीं उतरेंगे. लेकिन जो लोकतांत्रिक जवाबदेही होती है, उससे तो आप किसी हाल में पार नहीं पा सकते हैं. संस्कृति मंत्रालय अयोध्या में रामायण म्यूज़ियम बना रहा है, इस म्यूज़ियम के पीछे-पीछे राम मंदिर की बेहद मुखर आवाज़ भी चल रही है. ऐसे में हंस के इस आयोजन का जो हो सो हो, क्या लेखक ज़रा भी मुखर नहीं होगा?, यह प्रश्न बना रहेगा. इस पत्र को प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए बुद्धू-बक्सा अविनाश मिश्र का आभारी.]

2 टिप्पणियाँ:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

हंस को लगातार मध्यप्रदेश सरकार से विज्ञापन प्राप्त होते रहे हैं। इससे भी आपत्ति होनी चाहिए थी। कई और भाजपा सरकारें हंस और अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन दे रही हैं।

Giriraj Kishore ने कहा…

प्रियंवद का पत्र मैैंने अभी देखा। जब मुझे निमंत्रण मिला था तो मैंने रचना जी से बात की थी क्योंकि मैं भी चकित हुआ था। राजेन्द्र जी को मैं जितना जानता था, मेरी भी प्रतिक्रिया यही हुई थी। उन्होंने बताया कि संस्थान को यह अनुदान राजेन्द्रजी के काल से मिलती थी। उसका पैसै बचा हुआ था उसी का उपयोग किया है। क्योंकि उसकी भरपाई दिखानी थी। बेहतर होता कि राजेन्द्र के कार्यक्रम में उस पैसे को इस्तेमाल न किया जाता। नामवर जी के संस्कृति मंत्रालय द्वारा सम्मान समारोह के बाद लगता है वामवंथियों की दीवार समााप्त हो गई।