सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

देवी प्रसाद मिश्र से बातचीत

[देवी प्रसाद और अविनाश की ये बातें कुछ दिनों पहले पाखी में देवी की दो कविताओं के साथ छपी हैं. दोनों कविताएं ऑनलाइन आ चुकी हैं. उन्हें यहां इस लिंक पर पढ़िए. इस रोचक बातचीत का कुछ अंश नीचे लगा हुआ है. पूरे के लिए टेक्स्ट के आखिर में रखे ई-बुक का रुख कर सकते हैं. तकनीकें जैसे-जैसे नयी होती जाती हैं, हिन्दी से उनका संबंध वैसे-वैसे कटुतापूर्ण होता जाता है. अच्छा है कि हम यहां कुछ कर सके हैं. इस बातचीत के लिए बुद्धू-बक्सा देवी प्रसाद मिश्र और अविनाश मिश्र का आभारी. ई-बुक में लगी तस्वीरें पावेल कुचिंस्की की, उनका भी आभार.]




हाल में अज्ञेय पर काफी विवाद होता रहता है। आप उन्हें कैसे देखते हैं? 
‘अपने-अपने अजनबी’ को छोड़ दीजिए तो शेखर : एक जीवनी के दो खंड और ‘नदी के द्वीप’ दो बहुत बड़ी रचनाएं हैं। 

क्या अज्ञेय का सारा काव्य-संसार खारिज करने लायक है?
कुछ गूंजें हैं उनके यहां भी, लेकिन उनको हर चीज का स्रोत बना लेना गलत है। उन्होंने बाकायदा मैनीपुलेशन और आयोजन करके मुक्तिबोध को नष्ट किया। उन्हें इग्नोर किया। सवाल यह है कि मुक्तिबोध को आप ‘तार सप्तक’ में ले रहे हैं, और उसके बाद आप उन्हें बिल्कुल गायब कर दे रहे हैं। मेरा मानना है कि मुक्तिबोध का पूरा लेखन अज्ञेय के मध्यवर्गीय ऑब्सेशन की इमारत को, उसके स्थापत्य को ढहा देने का प्रमाण है। यह उनका केंद्रीय नैरेटिव है। 

रघुवीर सहाय के निर्माण में अज्ञेय की क्या भूमिका है? क्या अज्ञेय के देहावसान से पहले रघुवीर सहाय की स्वीकृति तत्कालीन युवा कवियों के बीच जगह बना चुकी थी।
उस दौर के युवा कवियों के बीच रघुवीर सहाय का महत्व अज्ञेय के निधन से पहले ही बढ़ना शुरू हो गया था। उस हिंदुस्तानी अकादेमी के सभागार में मैं मौजूद था जिसमें उन्होंने अपना पार्थक्य अज्ञेय के साथ प्रकट किया था। उस समय वह एक हीरो की तरह लगे थे। रघुवीर सहाय में जो एक मुंशियाना समझदारी थी, उसके चलते उन्हें लग गया था कि अज्ञेय का जहाज डूब रहा है। इसमें एक खास किस्म की साहित्यिक सूझ थी। मैं इसे अवसरवाद कतई नहीं कहूंगा।

यह अज्ञेय की मृत्यु से कितने वर्ष पहले की बात है?
शायद आठ-दस बरस पहले की।

अज्ञेय के अवसान के बाद रघुवीर सहाय की हिंदी कविता में जो आइकॉनिक इमेज बनी, उसने हिंदी कविता को कैसे प्रभावित किया?
रघुवीर सहाय हमारे लोकतंत्र को समझने और उसे पढ़ पाने वाले व्यक्ति हैं। इस लिहाज से उन्होंने भारतीय प्रजातंत्र को जांचने के लिए कुछ टूल्स दिए हैं। उन्होंने ‘दिनमान’ के संपादक के रूप में भी काफी कुछ अर्जित किया। लेकिन मुझे लगता है कि रघुवीर सहाय को ओवर इस्टीमेट किया गया है। उनके पास एक बौद्धिक खीझ है, लेकिन कोई विकल्प उनके पास नहीं है। भारतीय राजनीति के प्रतिसंसार का जो मॉडल उनके पास है, वह किसी काम का नहीं है। वह लोहिया का है, जार्ज फर्नांडीस का है, योगेंद्र यादव का है, किशन पटनायक का है, वह लालू यादव का है। ठीक है इस सिलसिले में कर्पूरी ठाकुर थोड़ा बेहतर नाम हैं।

विजयदेव नारायण साही और लक्ष्मीकांत वर्मा सब लोहियावादी ही थे। मैं कहना यह चाह रहा हूं कि कवि प्रतिष्ठान-विरोधी तो होता ही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या आप कोई समानांतर यूटोपिया रच पा रहे हैं। इसकी जांच होनी चाहिए कि लोग मुक्तिबोध की ओर धड़धड़ाकर क्यों दौड़े, और यह सिलसिला खत्म क्यों नहीं हो रहा है। रघुवीर सहाय की तरफ भी कई कवि दौड़े, लेकिन ये वे कवि थे जिन्हें उनके कहने की शैली बहुत भाती थी — एक लेयर्ड लैंग्वेज — संस्तरों में छिपी हुई भाषा, एक अवगुंठन वाली भाषा, एक कलावाली भाषा, एक तराशी हुई भाषा, एक जो सीधे न कहे वो वाली भाषा, जबान का आधुनिकतावादी रूप।

अन्याय और तानाशाही की वजह से समाज में जो विद्रूप पैदा होता है, रघुवीर सहाय उसको देख पाते थे। लेकिन उस विद्रूप से निकलकर एक नया संसार रचा जा सकता है, यह वह नहीं देख पाते थे। यह एक किस्म का नव-कांग्रेसवाद ही था। मुक्तिबोध इसलिए ही उनसे भिन्न हैं, क्योंकि उनके यहां विजन है। दोनों के टूल्स भी भिन्न हैं। एक के टूल्स एसेंशियली मध्यवर्गीय टूल्स हैं। दूसरे के जो टूल्स हैं, वे मध्यवर्ग को पार करके और उसकी महत्वाकांक्षाओं को हटाकर जनाकांक्षाओं को देख पाने के हैं। रघुवीर सहाय मध्यवर्ग की महत्वकांक्षाओं पर चोट तो करते हैं, लेकिन वह उसके दायरे को तोड़ना नहीं चाहते हैं।

असद ज़ैदी रघुवीर सहाय से ज्यादा राजनैतिक कवि हैं या कम?
असद रघुवीर सहाय के मन-मिजाज वाले कवि हैं। भाषा को उसकी पेंचीदगी में बरतने वाले। उनके यहां जो मुस्लिम पक्ष है, उसके वह अकेले कवि हैं। मुस्लिम एलिनिएशन का जो वृत्तांत है, वह सिर्फ उनके यहां है। यह उनकी बड़ी ताकत है। 

और इब्बार रब्बी?
इब्बार रब्बी तो नागार्जुन के कायल हैं। कोई कहे या न कहे, लेकिन रब्बी मूलत: नागार्जुन की परंपरा के कवि हैं। वह रघुवीर सहाय को मानते जरूर हैं, लेकिन जब वह लिखते हैं तो रघुवीर सहाय का मॉडल उनके सामने नहीं होता।

क्या मंगलेश डबराल जब लिखते हैं तो रघुवीर सहाय का मॉडल उनके सामने रहता है?
मंगलेश ने सरल वाक्यों की जटिलता को पहचाना है। रघुवीर सहाय सरल वाक्य को पेंचीदा बनाने के कायल थे। कहें तो ग़ालिब की तरह। मंगलेश में मीर की रूहानियत है।

और वीरेन डंगवाल?
वीरेन बहुत अलग हैं। वह लिटरेरी पोएट नहीं हैं। वह लिखित परंपरा के कवि नहीं हैं। वह सुनी जाती कविता के कवि हैं। उनमें इसलिए ही साहित्यिकता कम है और इसलिए उनका पूर्ववर्ती ढूंढ़ना मुश्किल है।

नागार्जुन भी नहीं?
कुछ साम्याभास तो है।  

नागार्जुन और मुक्तिबोध के बारे में कुछ कहिए, इसलिए कि उन्हें प्रेरणा के तौर पर देखा जाता है। यह भी याद रखिए कि मुक्तिबोध अब सौ बरस के हो रहे हैं। 
मुक्तिबोध एक बड़ी रोशनी में सब कुछ देखते हैं। अगर दारिद्रय है तो इसके स्रोत क्या हैं, मेरी पत्नी अगर इस फटेहाली में है तो इसके राजनीतिक स्रोत क्या हैं। उनकी सीधी लड़ाई और उनका सीधा संबोध्य भारतीय राज्य है। वह लगातार भारतीय राज्य की जांच करते हैं। इससे नीचे वह बात ही नहीं करते हैं। इसलिए वह दैनंदिनता में बहुत ज्यादा नहीं उलझते हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ देखें तो एक आदमी बहुत साधारण ढंग से मिलता है, लेकिन जो डिबेट है वह कॉस्मिक ढंग से होने लगती है। वह शब्द, अर्थ, जीवन, राजनीति, कविता, सौंदर्याभिरुचि, संवेदन और ज्ञान पर जाने लगती है। मुक्तिबोध एक फिलॉसफर की तरह बिहेव करते हैं। कहानी का भी वह केवल स्ट्रक्चर लेते हैं। वह बुनियादी रूप से एक डिबेट छेड़े रखना चाहते हैं। मेरे ख्याल से इस रूप में वह हिंदी के एकमात्र मेटाफिजिकल पोएट हैं। अपने पूरे रचना-संसार में वह बहस की जगह तलाश रहे हैं— चाहे वह तालाब के किनारे हो, चाहे वह कोई घर हो, अंधेरा हो, सीढ़ियां हों, साथ में चलते हुए लोग हों, परिचित हों, अपरिचित हों...। वह सत्ता के रहस्यों को समझना चाहते हैं। एक कॉस्मिक इमेजरी रचना चाहते हैं। वह एक सांस्कृतिक उपनगर बसाते हैं, ताकि दूर से चीजों को देख सकें।

वहीं नागार्जुन जितने अभिधात्मक दिखते हैं, उतने हैं नहीं। जीवन की विंसगतियों को वह कई स्तरों तक उकेरते हैं, और इसके हमेशा राजनीतिक अर्थ होते हैं। उन्होंने भाषा को बहुत निष्कवच बनाया है। उसका एक निहंग रूप ग्रहण किया है— उसका अपनत्व। कविता की कला में प्राय: यह होता है कि वह जहां से ली जाती है, वहां से उसकी बहुत सारी मिट्टी और धूप हटा दी जाती है। नागार्जुन यह पाप नहीं करते। 

आपको लगता है कि यह इंटरव्यू उन लोगों को एक खिड़की देगा जो आपको जानना चाहते हैं?
मुझे लगता है।

आप किसके विरुद्ध हैं?
सांस्थानिक हिंसा के। 

और?
बुर्जुआ जीवन-पद्धति और दृष्टिकोण के।

और?
उन शहरी मार्क्सवादियों के जिन्होंने पक्षधरता की कोई कीमत नहीं चुकाई?

और?
जो फंडेड क्रांतियों के कोषाध्यक्ष से ज्यादा कुछ नहीं हो सके।

और?
जो मध्यवर्गीय पश्चाताप से आत्मन् का विकास चाहते रहे।

मुक्तिबोध में भी मध्यवर्गीय पश्चाताप है। 
मुक्तिबोध तो मध्यवर्गीय हैं ही नहीं। बांस की खटिया पर लिखना, सौ सवा सौ की पढ़ाने की अनिश्चित नौकरियां करना, वह पूरे सर्वहारा हैं। लेकिन मुक्तिबोध की बड़ी बात यह है कि वह पूरा विमर्श खुद को मध्यवर्ग का प्रतिनिधि मानकर करते हैं। वह अपने को impersonate करते हैं कि मैं मध्यवर्ग का विचलन हूं। इस तरह वह हिंदी की सबसे बड़ी the great Indian debate चलाते हैं। जो लिखा है उसका बार-बार भाष्य करते हैं : जिजेक की तरह वह self-plagiarism में जाते हैं कि कोई ऐसा न बचे जिसे यह बौद्धिक पुकार सुनाई न दे। वह प्रशिक्षण की एक वृहद पाठशाला खोले हुए हैं। वह एक समतामूलक समाज में मध्यवर्ग के वर्गापसरण का एक बड़ा एजेंडा सेट कर रहे हैं जो मध्यवर्ग का मक्कार किस्म का पश्चातापवाद भर नहीं है। बदलाव हो गया तो हमारे मध्यवित्तीय तंत्र और अवस्थिति का क्या होगा, यह दोमुंहापन और दुविधा उनमें नहीं है। मेरा कहना है कि मुक्तिबोध को इस तरह से भी देखने की जरूरत है। 
मुक्तिबोध युग-विमर्श में अपने लिए वह भूमिका तय करते हैं जो वह हैं नहीं? उनके पास तो वर्गापसृत आत्मन् हैं। उनका वर्गापसरण संपन्न हो चुका है, लेकिन वह इस मध्यवर्गीय दुविधा का केंद्रीय भाव बने रहते हैं। इसलिए मुक्तिबोध के पास एक त्रासद पर्सोना है। वह मध्यवर्ग की दुविधा का पात्र बने रहते हैं ताकि वह महाभारतीय विमर्शों को चलाते रह सकें। 

आप मानते हैं कि मुक्तिबोध का एजेंडा रिवर्स हुआ? 
देखिए, उनकी जैसी बौद्धिक महत्वाकांक्षा किसी में नहीं दिखती। कोई युगीन कार्यभार लेने को तैयार नहीं है। किसी में वह दार्शनिक तैयारी नहीं है। 

कविता दर्शन का भार उठा सकती है क्या? 
मुक्तिबोध यह सिद्ध करके चले गए। 

इसीलिए वह प्रतीकों और रूपकों में बात करते थे। 
बिल्कुल। अब यह विडंबना है कि उनकी आखिरी रचना ‘अंधेरे में’ में मनुष्य भरपूर संख्या में दिखते हैं और वह सबसे बड़ी कविता बनती है।

आपके रचना-संसार का पिता अक्सर बहुत पलायनवादी है, वह लड़ता नहीं है। ऐसा क्यों है?
क्योंकि जिस तरह के पुरुषों और पिताओं को मैं देखता हूं, वे बहुत गैर जिम्मेदार हैं। 

आपके पिता कैसे हैं? 
मैं अपने पिता को इस तरह नहीं देख पाता कि वह मेरे लिए रचना की सामग्री हो सकते हैं, क्योंकि वह जटिल नहीं हैं। वह सीधे व्यक्ति हैं। वह चीजों को उनकी लीनियरिटी में देखते हैं। इसलिए मैं एक ऐसे पिता-पात्र की उद्भावना करता हूं जो जटिल है, जो छोड़ता है, भागता है, जो गैरजिम्मेदार है। पिता का मतलब है— पुरुष। परुष और पुरुष, यानी जो कठोर है वह पुरुष है, पिता है। वह राष्ट्राध्यक्ष भी है। राजनीतिक होने पर वह तानाशाह होगा और बात नहीं सुनेगा। पलायनवादी भी होगा। मुद्दों से भटकने और भटकाने वाला होगा। वह तमाशे करेगा। पुरुषों को लेकर मेरे मन में यही बात है, मैं उन्हें ऐसा ही मानता हूं। जैसा कि मैंने पहले भी कहा स्त्रियां अधिक विश्वसनीय हैं।

क्या आप भी पलायनवादी हैं?
हां, मैं भी हूं। मैंने अमूमन बचने की कोशिश की है। मान लीजिए मैं किसी गोष्ठी में गया, तो वहां मैं किसी से मिलने की कोशिश नहीं करूंगा। मैं समझता हूं कोई मिलेगा तो कोई कटूक्ति कहेगा। मैं इससे बचता हूं, शायद इसलिए फेसबुक और ट्विटर पर जाने की भी अभी तक मेरी हिम्मत नहीं हुई।

रचना में भी क्या आप पलायनवादी हैं?
शायद नहीं।

शायद नहीं, श्योर बताइए।
मुझे लगता है कि एक फ्रेम में जितना अधिक प्रतिकार हो सकता है— एक ईमानदार प्रतिकार मैं वह करता हूं। एक हद तक मैं अपनी रचना को वहां तक ले जाने की कोशिश करता हूं। लेकिन इस प्रतिकार को मैं किसी स्वांग में नहीं बदल सकता। इससे वह अविश्वसनीय हो जाएगा। 
एक और बात, जब मैं एकांत में होता हूं तो मुझे लगता है कि समकालीन दुरभिसंधियां मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। यहां मैं उन्हें सहने के लिए प्रस्तुत नहीं हूं। इस तरह का पलायन मुझमें है।


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1 टिप्पणियाँ:

अजेय ने कहा…

बहुत जरूरी बात चीत । मैं पूरी चर्चा पढूंगा ।