होली
वहां मनुष्यों के धड़ खड़े थे
किसी ने रंग से उनके चेहरे बनाए, बाल
हरे गुलाल से.
कुछ पड़ जाने के मले जाने से बेतरह लाल बनाई आँखें,
आवाज़ बनाईं एक फोहश गाली से.
कोई होली नहीं खेलना चाहता था
सब चाहते थे खेलना होली
वहां कुछ सिर लटकते थे हवा में
एक शराबी आलिंगन ने उनके लिए
धड़- यौनिकता और लड़खड़ाहटें बनाईं,
लड़खड़ाहटों से टांगें और आलिंगनों से उत्तेजनाएं बनाईं
आगे के एक बरस के लिए
इस तरह यह तैयार हुई देह
कल रात ही उसको राख होता देखा था सम्मत में
जर्जर देह पिछले साल की.
दो
सफाई से और बिलकुल बराबर बराबर
काटने पर भी वे दो स्वतंत्र चीजेँ हुईं.
उनमें एक दूसरे को लेकर जो अधूरापन था
वह बस शुरुआत के कुछ समय तक रहा. वे प्रतिरूप
नहीं हैं क्योंकि उनमें अनेक भिन्नताएं हैं.
संरचना ही कुछ ऐसी है कि
जब ये अविछिन्न थीं तो उस समय भी
कुछ स्वतंत्र सतहें अस्तित्व में थीं.
अगर
आप भविष्य में देख सकते हैं या कुछ कमज़ोर
अनुमान ही लगा पायें-
तो देखेंगे कि दोनों की नियातियाँ कितनी भिन्न हैं.
इसे आप लकड़ी, हँसी या धुएं के उदाहरण से भी समझ सकते हैं.
सितारा डूबने दो
एक अलसाये प्यार की कोमलता और गाढ़ी उदासी के बीच
मैंने गिर जाने दी अपनी देह अतल में
यह एक विस्तृत चुम्बन के दबाव की तरह था
या आत्महत्या की आदिम इच्छा की तरह,
समयहीन बहुत देर ऐसे ही आनंद और अनिर्णय के बीच
आँख मींचे मैंने कहा कि
मैं तैयार हूँ गुस्सैल थपेड़ों में उछाले जाने के लिए
कि जैसे एक सजायाफ्ता देह, एक अचेत शरीर
जो किसी समुद्र-कथा का आलंबन मिलने पर ही
कुछ कह पाए
यूँ ही धूप, मौसम और बदमिजाज झाड़ियों से उलझता
घुटने फुड़वाता
मैं डूबता हूँ सूर्यास्त के अंधकूप में.
अनुकूल
हवाएं पीठ की ओर से बहती थीं
स्वास्थ्य अनुकूल था कि सरदर्द नहीं था.
कोई चापलूसी व्यर्थ नहीं जाती थी
प्रमेय की तरह सिद्ध होता था हर मुस्कान का प्रयोजन
और तो और
छींकने से पहले हाथ आ जाता था रूमाल
फूटे हुए शीशे में
चमकता दिखाई देता था भाल.
अजनबी
फिर मैंने ऊपर देखना ही बंद कर दिया रातों को
यह चाँद की वजह से हुआ
उसका पीला चेहरा मुझमें
अजब सी ऊब और निराशा भर देता था, एक बार तो
मरने का मश्वरा देते मैंने उसे साफ़ साफ़ सुना.
धीरे धीरे मैं आकाश को भूला तो उसे पता ही नहीं चला
वह मुझे पहले ही भूल चुका था.
बहुत समय के बाद मैंने
यूं ही सर उठाया तो
हम एक दूसरे को पहचान ही नहीं पाए.
[शिल्प को लेकर जजमेंटल तो नहीं हुआ जा सकता लेकिन महेश वर्मा ने कविताओं को लेकर लगभग नया और सम्पूर्ण प्रयोग किया है, यह तय है. कई सारे उदाहरणों, लोक-प्रसंगों और नितांत निजी प्रेम सम्बन्धों के साथ-साथ सेल्फ़-प्रोजेक्शन का जो तरीका महेश वर्मा ने विकसित किया है, वह बड़ा दुर्लभ है. प्रथमदृष्टया कठिन लगती ये कविताएं हमारे बीच के प्रसंगों का ही तो गान हैं, उनसे दूर होने का कोई लाज़िम कारण तो नहीं मालूम होता है. इन कविताओं और नितांत आत्मीय समर्थन के लिए बुद्धू-बक्सा महेश वर्मा का आभारी. उनकी पिछली रचनाओं का पता यहां.]
3 टिप्पणियाँ:
महेश जी को पहली बार पढ़ रहा हूँ । अच्छी कविताएँ हैं । 'अजनबी' कविता बहुत पसंद आई ।
ये कवितायेँ भी उतनी ही बेचैन उदासी की कवितायेँ हैं . सूर्यास्त का गहरा अन्धकार और संभावनाओं के रंग भी , चाहे वे कुछ बदरंग भी हों . ये कविताएँ सहसा याद दिलाती हैं कि अगर कोई इस दौर में उदास नहीं है तो उसके साथ कुछ गडबड जरूर है .
Gyasu Shaikh said:
प्रयोगशील नवरचित और नवस्थापित सी कविताएं !
अनुभूतियों का और कल्पनो का व्यय नहीं और रूढ़ भी न हो कविताएं ! बिंब और कविता का फॉर्म रम्य। कवि और कविताएं नवरचित और सारपूर्ण…
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