शनिवार, 17 अगस्त 2013

विष्णु खरे की नई कविताएँ

(विष्णु खरे की ये कविताएँ उन कविताओं में शामिल हैं जो 'पहल' के ताज़ा अंक में प्रकाशित हैं. इनके आगे की कविताओं को भी यहाँ प्रकाशित किया जाएगा. विष्णु खरे की इन्हीं कविताओं का कवि की आवाज़ में पाठ हम जल्द आपसे साझा करेंगे और कवि का एक विस्तृत साक्षात्कार निकट भविष्य में आपके सामने होगा. इस निर्लज्ज समय में जब सच बोलना दुश्वार है, उस समय विष्णु खरे ये सुन-देखकर अफ़सोस से भर जाते हैं कि उत्तराखंड की त्रासदी पर कवियों ने कुछ नहीं लिखा(सिवाय विरोध-भर्त्सना-हस्ताक्षर करने के), कोई रचना विरोध की मुक़म्मिल भाषा नहीं बोलती, कोई रंगकर्मी या कोई कलाकार अपनी रचनाओं में समाज की व्याधियों से संवाद स्थापित नहीं करता और फेसबुक पर हरी बत्ती जलाने के सिवाय सबसे क़ाबिल गद्यकार और आलोचक कुछ ख़ास नहीं कर रहे हैं. हाँ, इन बातों का इन कविताओं से 'सीधा' या 'ख़ास' सम्बन्ध नहीं है, लेकिन हमारे समय से तो है. और ये कविताएँ इस समय के पर्यायों से होकर गुज़रती हैं, जहाँ दिल्ली के पुराने किले में गरीबों का झुण्ड बैठकर खाना खाता है, समूचे ब्रह्माण्ड पर 'तज दिया गया' लिख देने की चेष्टा है और सरस्वती को शार्दूल पर बुलाने का आग्रह है. बुद्धू-बक्सा कवि, 'पहल' और अपने अनन्य पाठकों का आभारी रहेगा.)

विलोम
कहना मुश्किल है
कि हर वह व्यक्ति
जिसके लिए शोक सभा की जाती है
उस शोक का हक़दार होता है भी या नहीं
जो शोक उसके लिए मनाया जाता है वह सच्चा होता है या नहीं
और जो उसके लिए शोक मना रहे होते हैं उसमें से कितने वाकई शोकार्त होते हैं
और कितने महज राहत महसूस करते हुए दुनियादार
बहरहाल जैसी भी रही हो उस एक ज़िंदगी को डेढ़-दो घंटों में निपटा देने के बाद
दो मिनट का वह वक्फ़ा आता है जब मौन रखा जाना होता है

मैनें अक्सर देखा है यह एक सौ बीस सेकण्ड
हर सिर नीचा किए या शून्य में देखते खड़े हुए शोकार्त पर भारी पड़ते हैं
लगता है तभी उनकी आत्मा का साक्षात्कार होता है दिवंगत और मृत्यु से
अपने भीतर की खला से
तुम नहीं जानते थे कि मौत इतने लोगों को तबाह कर सकती है
वे कनखियों से देखते हैं कलाई या दीवाल घड़ियों को या आसपास खड़े अपने जैसे लोगों को
या मंच पर खड़े खुर्राट पेशेवर शोकार्तों को
कि वे अपने शरीर की किसी भंगिमा से संकेत दें और अंततः सभा समाप्त हो
जबकि यह दो मिनट का मौन
उन्होनें मृतक के पूरे जीवन भर उसके कहे-किए पर रखा होता है
और अब जब कि वह नहीं रहा
तो सुविधापूर्वक बचे-खुचे इनके जीवनपर्यंत रखा जाएगा

मेरे साथ यह विचित्र है
कि अगर किसी शोक-सभा में जाता भी हूँ
तो मंच पर और मेरे आसपास आसीनों को देखते हुए उन पर
और उनके बीच बैठे खुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे ज़माने पर
लगातार खिलखिलाने या कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है
जिसे अपने निजी जीवन की चुनिन्दा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूँ

मेरा शोक-प्रस्ताव यह होता है कि
बहुत रख चुके
अब हम इस इंसान की स्मृति में एक सेकण्ड का भी मौन नहीं
बल्कि चुप्पी के सारे विलोम रखें और वह भी महज दो मिनट के लिए और यहीं नहीं
यानी आवाज़ बात बहस ध्वनि कोलाहल शोरगुल रव गुहार आव्हान तुमुलनाद बलवा बगावत चारसू

तिलिस्म
अच्छी किताबों को पूरा पढ़ पाना
इसलिए भी मुश्किल है
कि शुरू में तो वे हमसे खुल जाती हैं
कुछ दूर तक दाखिल भी होते हैं हम उनमें
कि रुक कर वर्कों के आरपार देखने लगते हैं
या उन्हें बंद करना तक भूलकर
उफ़क़ में ताकते रहते हैं अँधेरा होने तक

कहाँ-कहाँ भटका ले जाते हैं उनके अजीब मज़ामीन
जाने क्या-क्या तारी कर देती हैं वे
महज क़िस्सागोई या तग़ज्ज़ुल ही नहीं
किन ज़मानों किन दुनियाओं किन मसाइल में
हमारे जीवन से पहले की जिंदगियों
हमारी मृत्यु के बाद के जन्मों में
हमारे कितने भीतर और हमसे कितनी दूर
बाज़ औक़ात समझना नामुमकिन

और हम पर भी नाज़िल होता है वह अज़ाबी ख़्वाब
कि काश हमसे भी कभी वैसा कुछ हो सकता
हम भी बना पाते अर्श से इधर कोई तिलिस्म
जिसे निहायत हकीर हम ही अपने में खोलते
बेइंतिहा है यह बनती-बिगड़ती कायनात
और उसके ये सारे वास्तविक-काल्पनिक अक्स नुकूश ब्यौरे और बयान
उसमें न सही उतनी बलंदी पर लेकिन ऐसा एक मंज़र हमारा भी क्यों नहीं हो सकता

A B A N D O N E D
वे शायद हिन्दी में त्यागे या छोड़े नहीं जा सकते रहे होंगे
उर्दू में उनका तर्क या मत्रूक किया जाना कोई न समझता
इंग्लिश की इबारत का बिना समझे भी रोब पड़ता है
लिहाज़ा उन पर रोमन में लिखवा दिया गया अंग्रेज़ी शब्द
अबेंडंड

उनमें जो भी सहूलियतें रही होंगी वे निकाल ली गई होती हैं
जो नहीं निकल पातीं मसलन कमोड उन्हें तोड़ दिया जाता है
जिनमें बिजली रही होगी उनके सारे वायरों स्विचों प्लगों होल्डरों मीटरों के
सिर्फ़ चिन्ह दिखते हैं
रसोई में दीवार पर धुएँ का एक मिटता निशान बचता है
तमाम लोहा-लंगड़ बटोर लिया गया
सारी खिड़कियाँ उखड़ी हुईं
सारे दरवाज़े ले जाए गए
जैसे किन्हीं कंगाल फ़ौजी लुटेरों की गनीमत
कहीं वह खुला गोदाम होगा जहाँ
यह सारा सामान अपनी नीलामी का इंतज़ार करता होगा

रेल के डिब्बे या बस में बैठे गुज़रते हुए तुम सोचते हो
लेकिन वे लोग कहाँ हैं जो इन सब छोड़े गए ढांचों में तैनात थे
या इनमें पूरी गिरस्ती बसाकर रहे
कितनी यादें तजनी पड़ी होंगी उन्हें यहाँ
क्या खुद उन्हें भी आखिर में तज ही दिया गया

जो धीरे-धीरे खिर रही है
भले ही उन पर काई जम रही है
और जोड़ों के बीच से छोटी-बड़ी वनस्पतियां उग आई हैं
और मुंडेरों के ऊपर अनाम पौधों की कतार
सिर्फ़ वही ईंटें बची हैं
और उनमें से जो रात-बिरात दिन-दहाड़े उखाड़ कर ले जाई जा रही हैं
खुशकिस्मत हैं कि वे कुछ नए घरों में तो लगेंगी

पता नहीं कितने लोग फ़िर भी सर्दी गर्मी बरसात से बचने के लिए
इन तजे हुए हों को चंद घंटों के लिए अपनाते हों
प्रेमी-युगल इनमें छिप कर मिलते हों
बेघरों फ़कीरों-बैरागियों मुसीबतज़दाओं का आसरा बनते हों ये कभी
यहाँ नशा किया जाता हो
जरायमपेशा यहाँ छिपते पड़ाव डालते हों
सँपेरे मदारी नट बाजीगर बहरुपिए कठपुतली वाले रुकते हों यहाँ
लंगूर इनकी छतों पर बैठते हों
कभी कोई चौकन्ना जंगली जानवर अपनी लाल जीभ निकाले हाँफता सुस्ताता हो

किस मानसिकता का नतीज़ा हैं ये
कि इन्हें छोड़ दो उजड़ने के लिए
न इनमें पुराने रह पाएँ न नए
इनमें बसना एक जुर्म हो

सारे छोटे-बड़े शहरों में भी मैनें देखे हैं ऐसे खंडहर होते मकान
जिन पर अबेंडंड छोड़ या तज दिए गए न लिखा हो
लेकिन उनमें एक छोटा जंगल और कई प्राणी रहते हैं
कहते हैं रात को उनमें से आवाज़ें आती हैं कभी-कभी कुछ दिखता है
सिर्फ़ सूने घरों और टूटे या तोड़े गए ढांचों पर
आसान है छोड़ या ताज दिया गया लिखना
क्या कोई लिख सकता है
तज दिए गए
नदियों वनों पर्वतों गाँवों कस्बों शहरों महानगरों
अनाथालयों अस्पतालों पिंजरापोलों अभयारण्यों
दफ्तरों पुलिसथानों अदालतों विधानसभाओं संसद भवन पर
सम्भव हो तो सारे देश पर
सारे मानव-मूल्यों पर
किस किस पर कैसे कब तक लिखोगे
जबकि सब कुछ जो रखने लायक था तर्क किया जा चुका

कभी एक फंतासी में एक अनंत अंतरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूँ देखने
कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर
या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से
कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे
जैसे हाल ही में बनारस स्टेशन के एक ऐसे खंडहर पर पहली बार लिख देखा परित्यक्त

उसी तरह
कुछ ऐसा है
कि मैं अकेली औरतों और अकेले बच्चों को
ज़मीन पर बैठे खाना खाते नहीं देख सकता
पता नहीं क्यों मैं एक अनाम उदासी
और दुःख से घिर जाता हूँ
जबकि वे चुपचाप निवाले तोड़ते हुए या कौर बनाते
सारी दुनिया की तरफ़ पीठ किए हुए
एक अनाम दिशा में तकते जाने क्या सोचते अपना पेट भरते हैं
कभी-कभी एक आदिम लम्हे के लिए अचानक अपने आसपास देख लेते हुए
मैं इतना चाहता हूँ कि वे मुझे अपने पास इतनी दूरी पर इस तरह बैठने दें
जहाँ से वे मेरे चेहरे पर देख सकें कि मैं अपने मन में उनसे कह रहा हूँ
खाओ खाओ कोई बात नहीं

लेकिन मुझे मालूम है कि ऐसी किसी भी हरकत से
शान्ति से खाने की उनकी एकांत लय में विघ्न पड़ेगा
और वे आधे पेट ही उठ जाएँगे

इसलिए मैं खुद को इसी भरम से बहला कर चला आता हूँ
कि जहाँ ऐसी अकेली औरतें ऐसे अकेले बच्चे अपनी उस जून की कठिन रोटी खा रहे होते हैं
वहाँ एक वाजिब दूरी पर जो कुत्ते बैठे हुए हैं किसी खुश उम्मीद में बेहद हौले अपनी पूंछ हिलाते हुए
उनमें मैं भी शामिल हूँ अपनी वह बात कुछ उसी तरह कह सकने के लिए

सरस्वती वन्दना
तुम अब नहीं रहीं चम्पावेल्ली चंद्रमा और हिम जैसी श्वेत
तुम्हारे वस्त्र भी मलिन कर दिए गए
यदि तुम्हारे वीणा के तार तोड़े नहीं गए
तो वह विस्वर हो गयी है
जिस कमल पर तुम अब तक आसीत् हो वह कब का विगलित हो चुका
जिस ग्रन्थ को तुम थामे रहती थीं
वह जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर गया
तुम्हारा हंस गृध्रों का आखेट हुआ
मयूर ने धारण किया काक का रूप
जिस सरिता के किनारे तुम विराजती थीं वह हुई वैतरणी
सदैव तो क्या कदाचित भी कोई तुम्हारी स्तुति करने नहीं आता
तुम किसी की भी रक्षा नहीं कर पा रही हो जड़ता से
मुझ मूर्खतम की क्या करोगी

वीणावादिनि वर दे यही
जा कालिका में विलीन हो जा अब
बनने दे उसे उस सबकी देवी
जिसकी तुझे बनने नहीं दिया गया
आओ चंडिके कटे हाथों का अपना प्राचीन कटि-परिधान तज कर
छोड़ आओ अपनी बासी मुंड-माल
फेंक दो खप्पर-सहित रक्तबीज का सजावटी सिर
शारदा के समस्त विश्वासघाती भक्तों-पुरोहितों-यजमानों की प्रवृत्तियाँ
हो चुकी हैं तामसिक और आसुरी
कितना कलुष कितना पाखण्ड कितना पाप कितना कदाचार
मानव ही रक्त पी रहे हैं मानवों का
कितना करणीय है इधर तुम्हारे लिए कराली
तुममें समाहित सरस्वती तजे अपने रूधिर-पथ्य
तुम्हारी तृषा तुष्ट करने हेतु प्रचुर है यहाँ
क्षुधा का शमन करने के लिए पर्याप्त
टटके कर मुंड महिष शुम्भ-निशुम्भ रक्तबीज हैं
हंस पर नहीं शार्दूल पर आओ भवानी
और रचने दो यहाँ अपना नूतन स्त्रोत
या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेण तिष्ठिता

3 टिप्पणियाँ:

राजेन्‍द्र सिंह ने कहा…

क्‍या आप या श्री विष्‍णु खरे जानते हैं कि उत्‍तराखंड त्रासदी पर ग़लत सरकारी नीतियों और उसके पक्ष में खड़े बड़े-बड़े लोगों(जिसमें जगूड़ी जी जैसे लेखक भी हैं)का विरोध रचते हुए शिरीष मौर्य ने कितनी कविताएं लिखी हैं। शुक्रवार में ऐसी ही एक कविता आवरण कथा के रूप में छपी...इसके पहले कविता की टिहरी डूब गई जैसी कविता लगातार मैंने कई जगह छपी देखी, हाल ही में यह और एक और कविता समकालीन जनमत में देखी।

शिरीष मौर्य का उदाहरण तो सामने है...और भी लोग हैं जो चुपचाप प्रतिरोध का साहित्‍य लिख रहे हैं। पर आजकल इंटरनेट पर जिसका हल्‍ला है वही बड़ा है।

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

इतनी अच्‍छी कविताओं के बीच मेरा नाम आ जाना स्‍वाद बिगाड़ता है। राजेन्‍द्र जी को टिप्‍पणी इन कविताओं पर करनी चाहिए न कि अवांतर प्रसंगों पर। पहल में इन्‍हें पढ़ा। बड़े आखिर बड़े होते हैं,ये इन्‍हें और दूसरे अग्रजों की कविताएं पढ़ते हुए लगातार महसूस हो रहा है इन दिनों।

archana ने कहा…

काफ़ी अच्छी और प्रतिरोध से भरी कविता बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिली बहुत-बहुत धन्यवाद....