बुधवार, 10 जुलाई 2013

I like the way you die, boy! क्योंकि जैंगो इज़ अनचेंड

सिद्धान्त मोहन तिवारी                                                                    

‘ब्रूमहिल्डा’ बेटी थी भगवानों के भगवान, वॉटन की.

उसने कुछ ऐसा किया जो उसके बाप को पसंद नहीं आया और उसने उसे पहाड़ की चोटी पर बिठा दिया. (जानते हो, जर्मन लोककथाओं में हमेशा कोई न कोई और कहीं न कहीं पहाड़ होता ही है) और पहाड़ के नीचे निगरानी के वास्ते उसने आग़ की साँस लेने वाले ड्रैगन को बिठा दिया और उस ड्रैगन ने पहाड़ी को आग़ से घेर दिया.

और फ़िर सभी कहानियों की तरह हीरो सिगफ्रायड आ पहुँचा, उस राजकुमारी को बचाने के लिए. उसने उसे बचाया क्योंकि वह पहाड़ की ऊँचाई से नहीं डरता था, क्योंकि वह उस ड्रैगन से भी नहीं डरता था, क्योंकि वह किसी भी चीज़ से नहीं डरता था.......क्योंकि, वह उससे प्यार करता था.

और इस तरीके से जैंगो फ्रीमेन यह जान जाता है कि सिगफ्रायड कोई और नहीं है, जैंगो खुद है और उसे अमरीकन लड़ाईयों से नहीं घबराना है, सामंतों से नहीं डरना है और अपनी चमड़ी के लोगों से भी नहीं डरना है.

कुछ ऐसी ही है, तारांतिनो की नई फ़िल्म ‘जैंगो अनचेंड’. पश्चिमी अमरीका को सँजोकर बनायी गई फ़िल्म असल में दक्षिण की कहानी कहती है. यह उस वक्त की कहानी है जब दास-प्रथा बर्बरता के चरम पर थी और सिविल युद्ध छिड़ने की एकदम कगार पर था. और ऐसे ही किसी रोज़ एक रात को डॉ० शुल्ज़ को तलाश हो आती है जैंगो की, जो दासों के किसी खरीद-फ़रोख्त के मेले में से खरीद कर लाया जा रहा है. क्रिस्टफ वाल्टज़ सूत्रधार और किस्सागो को वहन करते हुए, जैंगो के लगभग एकमात्र दोस्त-पिता-गुरु की भूमिका में आते हैं, जिसका नाम डॉ० शुल्ज़ है. अपनी घोड़ागाड़ी और अपने झूठ से शुल्ज़ एक दाँत का डॉक्टर है, लेकिन असल में वह एक जर्मन बाउंटी हंटर है (बाउंटी हंटिंग भगोड़े अपराधियों को पकड़ लाने या मारकर उसका शव लाने की एक कवायद है, जिसे कई देशों में मान्यता भी है. हंटर को उस अपराधी के सिर पर रखे गए ईनाम की धनराशि भी मिलती है, और सम्मान तो मिलता ही है). किन्हीं तीन भाईयों की हंटिंग के लिए उसे जैंगो की तलाश है, उसे हासिल कर उसके साथ लिवाए जा रहे दूसरे दासों को भी मुक्त कर देता है. फ़िर जैंगो अपनी पत्नी ब्रूमहिल्डा की खोज में शुल्ज़ के साथ निकल पड़ता है. शुरुआत में शुल्ज़ द्वारा की जाने वाली कुछेक हंटिंग से तो वह घबराता है, लेकिन उनकी कानूनी ज़रूरत को समझ कर वह उनसे समझौता कर लेता है. तीन वांछित भाईयों में से दो की हत्या वह खुद करता है, जिन्हें वह इसलिए याद रखता है कि उन्होनें ब्रूमहिल्डा पर कोड़े बरसाए थे और तीसरे को शुल्ज़ खत्म करता है.

एक जागीरदार मिस्टर कैंडी के घर पर ब्रूमहिल्डा के होने का पता चलता है, जागीरदार की भूमिका में लियोनार्डो हैं. उसकी समूची रियासत जो कैंडीलैंड के नाम से मशहूर है, काले सेवकों और नौकरों से भरी है. जिन पर राज करने के लिए कैंडी की विधवा बहन है और एक काला बूढ़ा खूसट स्टीवन(सैमुअल जैक्सन) है. स्टीवन भी काली चमड़ी का आदमी है, लेकिन अपने ही लोगों पर ज़ुल्म कर और तमाम चापलूसियों से वह मिस्टर कैंडी के कैंडीलैंड का मैनेजर नियुक्त कर दिया गया है. जो भी काले सेवक कैंडीलैंड से भागने की कोशिश में होते हैं, उन्हें धूप से तप रहे ज़मीनी गड्ढे में या खूंखार कुत्तों के आगे मर जाने के लिए छोड़ दिया जाता है. मिस्टर कैंडी काले पहलवानों की जानलेवा कुश्ती (Mandigo Fighting) का शौक़ रखता है, जिसकी ज़द में वह पहलवानों को पालता भी है और दूसरे जागीरदारों के पालतू पहलवानों से मर जाने की हदों तक लड़ाता है. कैंडी के अपनी बहन से रिश्ते भाई-बहन के रिश्ते से कुछ अलग दीखते हैं, यह कुछ incest किस्म का सम्बन्ध प्रतीत होता है. डाक्टर और जैंगो पहलवानों के सौदागर बनकर ‘मोश्योर’ कैंडी से मिलते हैं और कुछ आसानी से ही जैंगो अपनी पत्नी से मुलाक़ात करने में सफल हो जाता है, और कठिनाइयों के बावजूद उसे हासिल करने में सफल हो जाता है, एक अटपटी मुठभेड़ में शुल्ज़ मारा जाता है और गुस्से से भरा जैंगो समूचे कैंडीलैंड और ‘मोश्योर’ कैंडी के ख़ानदान को ख़ाक कर जाता है.

‘पल्प फ़िक्शन’ के बाद तारांतिनो से उतनी ही पकी फ़िल्म की आस थी, लेकिन सामने ‘किल बिल’ और ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ जैसी अधूरी फ़िल्में आयीं. तारांतिनो ने बाद में खुद भी कहा कि वे ‘पल्प फ़िक्शन’ के स्तर को दोबारा हासिल नहीं कर पाए, पूरी तरह से गल्पाधारित ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड’ तारांतिनो-मार्का-सिनेमा के कुछ ही पास पहुँच पाती है. ऐसे में ‘जैंगो अनचेंड’ का इन्तिज़ार बेसब्री से किया जा रहा था, क्योंकि ट्रेलर और विज्ञापनों में तारांतिनो की कमजोरी (या ताक़त ही कह लें), नीग्रो दिख और बोल रहे थे और इसके रचनाकाल में ही फ़िल्म के निर्माण को क़रीब से देखने वाले समीक्षकों ने (हिन्दी के पेड समीक्षकों की तरह नहीं) इसकी शुद्धता की परिभाषा लिख दी थी. यह फ़िल्म उन मानकों को समेटकर फ़िर से तारांतिनो की गोद में भर देती है, जो पल्प फ़िक्शन बनने के बाद बाज़ार में फ़िर रहे थे. ‘जैंगो...’ कई मायनों में एक सम्पूर्ण फ़िल्म है, और मेरे हिसाब से यह पल्प फ़िक्शन से भी आगे की संरचना है. सधा और साफ़दिल प्रेम तारांतिनो की किसी फ़िल्म में पहले नहीं दिखा, तो इस लिहाज़ से तारांतिनो की किसी भी फ़िल्म में ‘जैंगो...’ के पहले कभी प्रेम नहीं रहा. ‘जैंगो..’ में दिखाया गया प्रेम अमरीकन सिनेमा के विरोध में खड़ा पाया जाता है, काली चमड़ी के बाशिंदों का आपसी प्रेम आपको जड़ कर सकता है, जड़ भी इसलिए क्योंकि जिन हालातों और संभावनाओं के बरअक्स यह प्रेम सम्भव होता दिखाया है, उसमें प्रेम की कल्पना भी असंभव है.

‘जैंगो...’ की कहानी पर मेहनत की गई है लेकिन सिविल युद्ध के दौरान अमरीका की हालत को तारांतिनो दिखा पाने में असफल रहे, लेकिन उसी सिविल वार की बारीकी को Lincoln (2012) ने जिया है. दरअसल, ‘जैंगो...’ किल-बिल के माहौल और पल्प फ़िक्शन के यथार्थ का एक साझा रूप है. हत्या के सलीकों-तरीकों और व्यक्तिपरक निर्ममताओं का पाठ  जिस तरह ‘किल-बिल’ करती है, ‘जैंगो...’ भी उसी लहज़े का अनुसरण करती है. सांगीतिक हत्याओं का अनुपात ‘जैंगो...’ और ‘किल-बिल’ में लगभग बराबर है लेकिन यहाँ Being nigger (काली चमड़ी वाला होने की परिभाषा) की करवटें पल्प फ़िक्शन के बराबर हैं. फ़िल्म की कहानी पर एक अलग कारण से चर्चा होनी चाहिए, जब आप इस पूरी फ़िल्म को कई बार देखेंगे(क्योंकि मैं अभी तक बारह-तेरह बार देख चुका हूँ) तो ये जान पाने में कठिनाई नहीं होती कि फ़िल्म शुरुआत और आखिर में जितनी सुलझी है, बीच में उतनी ही उलझी है. यदि पूरे फ़िल्म में बीच की उलझनें रख दी जातीं, तो संभवतः कोई नई चीज़ निकल आती.

फ़िल्म के संवाद बेहद पके हुए और नेक हैं. उनमें किसी तरह की कठिनाई नहीं है. कुछ तो ऐसे हैं कि जिन्हें आप नोटबुक में लिखकर रोज़ आयत की तरह पढ़ें. यह आपको लफ्फाज़ होने पर ही पसंद आ सकते हैं, क्योंकि The ‘D’ is silent जैसी आसान और सपाट बात किसी ख़ास सिने-संजीदगी की माँग आपसे नहीं करती. फ़िल्म की फोटोग्राफ़ी कमाल है, लोगों और माहौल को बेहद सुविधाजनक लहज़े में क़ैद करने की सफलता है इस फ़िल्म में. 

मैनें जब ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के बारे में लिखा, तो कुछ दोस्त ये कहने लगे कि आपको ‘इनग्लोरियस....’ पसंद है, लेकिन आप वासेपुर की प्रासंगिकता से दूर भाग रहे हैं और जबकि ‘इनग्लोरियस....’ भी इथिकली सही नहीं है. मैं यहाँ ये धुंधलका साफ़ कर दूँ कि ‘इनग्लोरियस....’ गलत कब साबित हुई थी, उसे गलत बनाया ही गया. लेकिन ‘गैंग्स...’ के साथ दिक्क़त ठीक उलट है, इसे सही और प्रासंगिक बताकर बेचा गया, लेकिन यह गलत साबित हो गई. ‘गैंग्स...’ और ‘इनग्लोरियस...’ एक दूसरे से दूर की चीज़ें हैं, मैं ‘सिटी ऑफ़ गॉड’ की जितनी प्रशंसा कर सकता हूँ, इससे प्रभावित ‘गैंग्स...’ की इतनी प्रशंसा मुझसे सम्भव नहीं है.

हम तक आने के लिए यह फ़िल्म इतिहास से बेतरह खेलते हुए आती है, शायद उतनी ही बेरहमी से जितनी बेरहमी से ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ खेलती है. ‘जैंगो....’ मैंडिंगो लड़ाई जैसे पूर्ण-कल्पित शब्द-संज्ञा की रचना बस ‘मैंडिंगो’ नामक फ़िल्म के आधार पर कर देती है. इस लड़ाई में दो काले पहलवान किसी एक की मौत तक कुश्ती लड़ते रहते हैं, जिसे फ़िल्म में एक ख़ास क्रूरता के साथ दिखाया गया है, लेकिन यह जान लेना चाहिए कि दासप्रथा के वक्त मैंडिंगो फाइटिंग जैसी कोई चीज़ अस्तित्व में नहीं थी. न ही काली चमड़ी के किसी दास के अंदर इतना जिगरा था कि दूसरे गोरे मालिकों के सामने लड़ाई करने के बाद शैम्पेन की बोतल से मुंह लगाकर हांफता हुआ चला जाए. मुमकिन तो यह भी नहीं था कि एक काला दास उटंगा घोड़े पर बैठ शहर के बीचों-बीच चला आए, और साथ यह भी नहीं कि किसी जागीरदार की ज़मीन पर तीन भाईयों को मार देने के बाद इतनी आसानी से अपने दोस्त के साथ निकल जाए. अमरीकी दासप्रथा के हालात सचमुच बेहद बुरे थे, साथ दिख भी जाने पर लोगों को गोलियों से उड़ा दिया जाता था(चाहे वे गोरे ही क्यों न हों), उन्हें सेक्स पार्टनर तो नहीं सेक्स टूल ज़रूर बनाया जाता था. उन्हें तपते लोहे के डब्बों में छोड़ा जाना एक बात है, गलतियां होने पर उनके साथ लगभग अबू-गरीब जेलों सरीखा व्यवहार किया जाता रहा, लेकिन यदि इन बुराइयों को तारांतिनो जैसा ओवर-क्रिमिनल डायरेक्टर जी नहीं पाता, तो इस मोड़ पर यह तारांतिनो की विफलता है. इन कुरीतियों को फिल्माने के बजाय तारांतिनो ने इने ग्लैमराईज़ किया है. अनुराग कश्यप तारांतिनो के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं, आपको ये फ़िल्म देखने के बाद साफ़ पता लग जाएगा. लेकिन कश्यप और तारांतिनो में अंतर कर पाना बेहद आसान है, कश्यप जहाँ इतिहास और तथ्यों से परास्त हो जाते हैं, वहीं तारांतिनो का इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है. वे हिटलर को अपने ही तरीकों से मार देते हैं, जर्मन और अंग्रेज़ फौजों की मनमौजी टुकड़ीयां बना देते हैं, सिविल युद्ध के चलन को नए तरीकों से दिखा देते हैं. फ़िल्म पूरी तरह से असफल है यह बताने में कि जैंगो को बाऊंटी हंटर बनने की क्या ज़रूरत थी? हाँ, इसकी प्रासंगिकता फ़िल्म के अंत में उजागर होती है, लेकिन ब्रूमहिल्डा की जानकारी मिलने के पहले से ही जैन्गो बाऊंटी हंटर बन चुका होता है लेकिन इस प्रासंगिकता का फ़िल्म में जैंगो के वर्तमान से कितना साक्षात्कार है? क्या ब्रूमहिल्डा को पूरी तरह से पाने के बाद जैंगो इतने जोखिम भरे काम से जीवन यापन करेगा? या जैंगो सिविल युद्ध में कूद पड़ेगा? या जैंगो बाऊंटी हंटिंग के हुनर का इस्तेमाल अपनी और अपनी पत्नी की स्वतंत्रता को बचाने के लिए करेगा, तब भी जब शुल्ज़ उसका गुरु रह चुका है? फ़िल्म में मिस्टर कैंडी को खुद को ‘मोश्योर कैंडी’ कहलवाना पसंद है. नाम के आगे बेहद सम्मानजनक लहज़े में मोश्योर जोड़ना एक फ्रेंच परम्परा है, जो अभी भी फ्रांस में ही दुनिया के दूसरे देशों से कहीं ज़्यादा प्रचलित है. सिविल युद्ध के समय अमरीका के पास फ्रांस की दो ही चीज़ें हुआ करती थीं, एक नेपोलियन तृतीय का थोड़ा व्यापार और फ्रांस के बने हथियार जो साल 1861 से 1865 के बीच के युद्धों में बेहद इस्तेमाल में लाए गए. फ्रेंच सभ्यताओं का इतना भी व्यापक प्रभाव नहीं था कि कोई जमींदार खुद को मोश्योर से सुसज्जित करे. अभी यह एक आसान-सी दिख रही बात है, लेकिन 19वें दशक के आखिर में, जहाँ सभी पश्चिमी देश अपने आतंरिक हालातों और दूसरे देशों में व्यापार फैलाने की बातों से चिंतित थे, किसी दूसरे समाज से प्रभावित होना एक बड़ी और गौर करने लायक बात होती थी. अमरीका ने संभवतः 1870 के बाद फ्रांस के साथ औपनिवेशिक समझौते करने किए शुरू किये, उससे पहले अमरीका फ्रेंच समाज से बेहद अपरिचित था. कैंडी के घर के भीतर के कुछ सजावटी सामान भी उस समयांतराल में न पाए जाने वाले सामान हैं. लेकिन इन कठिन चीज़ों पर बात करने से कोई फ़ायदा नहीं, तारांतिनो को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और न ही कभी वे इन आरोपों का जवाब देने आएंगे. एक बात तो साफ़ होती ही है कि इतिहास से खुलेहाथ खेलने वाले एक निर्देशक पर यह प्रश्न उठाना एक गैरज़रूरी मुद्दा है कि उसने Historically Correct फ़िल्म क्यों नहीं बनाई?

मेरे हिसाब से शायद ही अपनी पत्नी-प्रेमिका यहाँ तक कि किसी और की पत्नी को बचाने के लिए शायद ही किसी काली चमड़ी वाले ने इतना घमासान मचाया होगा. यह ‘शायद’ तारांतिनो की झोली में भी है, लेकिन तारांतिनो का साक्षात्कार इस यथार्थ की परिकल्पना से नहीं है, उसने गल्प को इतना ज़्यादा कस दिया कि ‘पल्प’ के लिए कोई जगह नहीं बची. जिस ऊहापोह को तारांतिनो अपनी हर फ़िल्म में जीते रहे हैं, उसे उन्होंने ‘जैंगो...’ में छोड़ दिया है.

अगर आप तारांतिनो के दीवाने हैं तो आप सैमुएल जैक्सन से प्यार कर उठेंगे. लाजवाब अभिनय से सैमुएल ने अपने हिस्से की फ़िल्म को जिया है. जिमी फॉक्स से अच्छे की उम्मीद थी, लेकिन जिमी को अभिनय में समेटने में असफल तारांतिनो उसे आमिर खान सरीखा या पेशेवर तरीके से कहें तो शाहरुख खान सरीखा पेश करते हैं. लेकिन यदि आपका जुड़ाव फ़िल्मों की सभ्यता से है तो आप ये पा जाएंगे कि क्रिस्टफ वाल्टज़ से बड़ा अभिनेता अभी अमरीकी सिनेमा के पास नहीं है. क्रिस्टफ के अभिनय का परचम मैं ‘इनग्लोरियस...’ के समय से देखता आ रहा हूँ, और तब से ही इनसे मिलने और इनके हाथ चूम लेने के ख्वाब संजोया हुआ हूँ. दुनिया भर के सिनेमा की नक़ल कर रहे भारतीय सिनेमा को क्रिस्टफ के अभिनय से ज़रूर कुछ सीखना चाहिए, बेहद कम समय में क्रिस्टफ ने अपने अभिनय का जो लोहा मनवाया है उसे ऐसे ही ज़ाया कर देना भ्रूण-हत्या सरीखा अपराध होगा.

‘जैंगो ...’ ऐसी फ़िल्म नहीं है जो आपको इतिहास, प्रेम और एक्शन साथ में दे दे, किसी एक पक्ष पर आपको खुद को निराश करना ही होगा. ये निराशा इतिहास पर ही हो जाए तो बेहतर है, क्योंकि अगर ऐसा करने में हम असफल हैं तो हम नायाब फ़िल्म का मज़ा लेने से खुद को वंचित कर सकते हैं.


1 टिप्पणियाँ:

Shailendra Singh Rathore ने कहा…

टेरेनटीनों की फिल्मों का म्यूजिक भी कमाल होता है,जिस तरह से वो ओल्ड ट्रैक्स की मिक्सिंग करते हैं...तभी उनके लिए Director DJ शब्द भी यूज़ होता है ...