बुधवार, 1 मई 2013

बलराज साहनी पर विष्णु खरे

[शायद मुट्ठी भर से भी कम लोगों को इसका भान होगा कि ठीक आज से बलराज साहनी की जन्मशती शुरू हो रही है. इस मौके पर विष्णु खरे ने एक बहुत संगठित और जानकारियों से भरा हुआ आलेख लिखा है, जो आज के 'नवभारत टाईम्स' में प्रकाशित है. हिन्दी सिनेमा के ठप्पों को बेहद लफ्फाज़ी और बेतुके तरीकों से याद करने का प्रचलन हिन्दी में चल पड़ा है, जिससे सिनेमा लेखन का जो नुकसान होना होता है वह हो ही रहा है, साथ ही साथ सिनेमा का भी हो रहा है. फ़िर भी, इस विषयान्तर तर्क को सही मानते हुए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे की इस अनन्य अनुमति को आभार के साथ आपके साथ साझा करता है.]


संभव है आज की औसत युवा पीढ़ी उनका नाम और चेहरा न जानती हो, शायद जानना भी न चाहती हो क्योंकि उसके काबिल न हो, लेकिन चालीस साल पहले, जब वह साठ वर्ष के होने ही जा रहे थे, बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) के नितांत असामयिक और अन्यायपूर्ण निधन ने देश के करोड़ों सिने-दर्शकों को स्तब्ध और बेहद रंज़ीदा कर दिया था. त्रासद विडंबना यह थी कि एम.एस.सत्यु की कालजयी फिल्म “गर्म हवा”, जिसमें बलराज ने बुज़ुर्ग मुस्लिम नायक का अविस्मरणीय रोल किया है, बन कर तैयार थी लेकिन वे स्वयं उसे देख न पाए. आज वैसी फिल्में न तो बनाई जा सकती हैं और न उनमें में काम कर सकने वाला कोई वैसा अभिनेता भारतीय सिनेमा में है. 1940-1970 के बीच हिंदी फिल्मों ने अपनी तमाम ख़ामियों और विरोधाभासों के बावजूद निर्माण-निदेशन-अभिनय के स्तर पर जो लोकप्रिय सिने-कला-संस्कृति विकसित की थी, बलराज साहनी उसके एक उत्कृष्ट प्रतिनिधि थे.

प्राचीन यूनानी कथाओं में प्रोतेउस नामक एक चरित्र आता है जिसे कोई पकड़ नहीं सकता और पकड़ भी ले तो वह उसकी गिरफ्त में ही ऐसी रफ़्तार से इतने वास्तविक-से चोले बदलने लगता है कि पकड़नेवाला घबरा कर उसे छोड़ देता है और वह फिर फ़रार हो जाता है. क्योंकि यह सिफ़अत अदाकारी में बहुत कारगर होती है इसलिए बहुत अच्छे एक्टर को कभी-कभी प्रोटिअन (प्रोतिआई) भी कह देते हैं. लेकिन ऐसे अभिनेता बहुत विरले होते हैं. पश्चिम में सर एलेक गिनेस, पीटर सैलर्स, पॉल म्यूनी, लोन चेनी, जेम्स केग्नी जैसों के बारे में ही कहा जाता है कि वे किसी भी किरदार में इतनी नेचुरल एक्टिंग करते थे कि उन्हें पहचानने में दो-तीन मिनट लग जाते थे. उनकी कला मार्लन ब्रेंडो, जेम्स डीन, क्लार्क गेबिल, ग्रेगरी पेक, जॉन वेन, क्लिंट ईस्टवुड आदि से अलग दिखाई देती थी.

हिंदी सिनेमा में ऐसी क़ुदरती अदाकारी बांग्ला और पश्चिमी असर से ही आई लेकिन जब आई तो उसने अशोक कुमार और मोतीलाल जैसे बड़े एक्टर हमें दिए – हालाँकि अशोक कुमार के पास डायलॉग-डिलीवरी की अपनी एक पेटेंट शैली भी थी. नेचुरल एक्टिंग की बुनियादी सिफ़अत यह होती है कि उसका स्वाँग या नक़ल करना नामुमकिन-सा होता है.वह बेअदाई की अदा होती है. लेकिन अशोक कुमार और मोतीलाल की सीमा यह थी वे ऊँचे या दरमियानी समाजी दर्ज़े से अलग दिख नहीं पाते थे – उनमें आप उन्हें जो चाहे बना डालिए. उनके चेहरे सिर्फ़ ख़वास के रहे, अवाम के न बन पाए. हिंदी सिनेमा की इस ख़ला को भरा बलराज साहनी ने.

हालाँकि इसमें भी विरोधाभास यह है कि तीनों में शायद बलराज ही ज़्यादा खूबरू थे और सलीस हिंदी और उर्दू बेखटके बोलते थे – अंग्रेज़ों के ज़माने के इंग्लिश एम.ए. तो वह थे ही. एक अजूबा यह था कि उनके छोटे भाई और हिंदी के लोकप्रिय वामपन्थी लेखक भीष्म साहनी की हिंदी बोली में कभी-कभी पंजाबी उच्चारण भाँजी मार जाता था, अभिनेता-बेटे परीक्षित साहनी से भी एकाध सीन में ऐसा हो जाता है, लेकिन बलराज की ज़ुबान से कभी ऐसा सुना न गया. उनका जन्मनाम “युधिष्ठिर” एक तरह से बहुत उपयुक्त था. वह लखपती पंजाबी खत्री ब्यौपारी बाप हरबंसलाल के बेटे थे लेकिन शुरू से ही उन्हें किताबों, इल्म, फ़न और अदब का शौक़ था. इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का पुश्तैनी कारोबार उन्हें समझ में नहीं आता था और करोड़पति बनने में उनकी कोई दिलचस्पी न थी. हरबंसलाल भी एक विरले पिता रहे होंगे क्योंकि जिस बेमलाली से उन्होंने अपने दोनों बेटों को आढ़त छोड़ कर किताबों-कलाओं की संघर्षमय दुनिया में भाग जाने दिया, उसकी दूसरी मिसाल हिन्दुस्तान में तो नहीं मिलती. पश्चिम में ऐसा रोज़ देखने-सुनने में आता है.

अंग्रेजों की ग़ुलामी के उस ज़माने में यदि आप प्रबुद्ध, आदर्शवादी देशभक्त नौजवान थे तो मुख्यतः तीन व्यक्तित्व और एक ही विचारधारा आपका आह्वान करते थे – गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी, युवा-ह्रदय-सम्राट (बाद में चाचा) जवाहरलाल नेहरू – और मार्क्सवाद. इस फ़ेहरिस्त से नेताजी सुभाषचंद्र बोस कभी जुड़ जाते थे कभी छुट जाते थे. एक वरिष्ठ परिचित गुरदयाल मल्लिक की प्रेरणा से नवविवाहित बलराज नौकरी की उम्मीद में सपत्नीक ठेठ पंजाब से शान्तिनिकेतन पहुँच गए. शांतिनिकेतन में रहते हुए बलराज कलकत्ता में "विशाल भारत" के युवा सम्पादक और  अपने ही जैसे पंजाबी मूल के लेखक-बुद्धिजीवी 'अज्ञेय' के संपर्क में आए जिसकी परिणति कुछ वर्षो  बाद, जब बलराज युवावस्था में ही विधुर हो गए, 'अज्ञेय' के रहस्यमय तलाक़ और उनकी पत्नी संतोष के बलराज के साथ विवाह में हुई।

1937 में 78-वर्षीय  नोबेल-पुरस्कार विजेता रवीन्द्र और उनके मुक्त विश्वविद्यालय की भौतिक और आर्थिक हालत जर्जर थी. चार वर्षों में तो विश्व-कवि का देहावसान ही होना था. बलराज को बोलपुर में मुदर्रिसी तो मिल गयी, वहाँ हमउम्र-जैसे हिंदी अध्यापक हजारीप्रसाद द्विवेदी की मित्रता भी हासिल हुई लेकिन सारे श्रद्धा-आदर के बावजूद गुरुदेव से सम्बन्ध बहुत सहज न हो सके. यह ज़रूर हुआ कि उनके बार-बार कहने से बलराज ने हिंदी छोड़कर पंजाबी में साहित्यकार बनने का फ़ैसला किया. इससे हिंदी, पंजाबी और बलराज, तीनों में से किसे कितना फ़ायदा-नुकसान हुआ यह कहना कठिन है. कवीन्द्र के बाद बलराज का दूसरा पड़ाव वर्धा था लेकिन बापू का क्या प्रभाव उस पर पड़ा यह साफ़ नहीं है सिवा इसके कि उनसे अनुमति लेकर ही वह बी बी सी लन्दन में अनाउंसर बनने चले गए।

यूरोप के फाशीवाद विरोधी बुद्धिजीवी-कलाकर्मियों में तब अधिकांश वामपंथी हो चुके थे और वहाँ रहनेवाले उनके सहधर्मी भारतीय भी। साहनी-बंधु कब-कैसे साम्यवादी बने इसके सारे ब्योरे उपलब्ध नहीं हैं लेकिन बलराज जब भारत लौटे तब वह कम्युनिस्ट थे और अंत तक रहे। मुम्बई में वामपंथी इप्टा नाट्य दल में अभिनय के बाद सिनेमा में प्रवेश अनिवार्य-सा था। बलराज की एक पहली फिल्म 1946 की प्रतिबद्ध "सामाजिक" कृति ख्वाजा अहमद अब्बास की "धरती के लाल" थी। चार फिल्मों के बावजूद उन्हें 1947 के बाद चार बरस तक कोई काम न मिला। लेकिन फिर "हम लोग" और "हलचल" जैसी चर्चित फ़िल्में आईं जिनमें बलराज का अभिनय सराहा गया। 1953 की "राही" मुल्कराज आनंद के उपन्यास "टू लीव्स एंड ए बड" पर आधारित थी जिसमें बलराज एक डॉक्टर बने थे लेकिन राष्ट्रीय-विश्व स्तर पर एक असंदिग्ध बड़े अभिनेता के रूप में पहचाना गया बिमल राय की कालजयी फिल्म "दो बीघा ज़मीन" में एक दलित किसान शंभू  महतो की उनकी अविस्मरणीय भूमिका के बाद। कहा जा सकता है कि यदि हिंदी सिनेमा में यदि इतालवी शैली की कोई नव-यथार्थवादी लहर आई थी तो बलराज साहनी उसके ब्रैंड-एम्बेसडर बन कर उभरे। एक आश्चर्य की बात यह है कि 1953 के बाद बलराज को हमेशा काम मिलता रहा। बलराज वह अभिनेता थे जिन्होंने अपनी प्रतिभा के कारण निदेशको,लेखकों और अन्य अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के सामने नई-नई चुनौतियां खड़ी कीं।वे उन विरले अभिनेताओं में से थे जो अपने दर्शकों को सिनेमा देखने के नए संस्कार देते हैं। यदि उनकी बौद्धिकता और पेशेगत सूझ-बूझ की बानगी देखनी हो तो उनका वह भाषण पढ़ना चाहिए जो उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में दिया था।

लेकिन यह उनकी प्रतिभा का ही कमाल था कि सर्वहारा के रोल में वह ब्रैंडेड नहीं हुए वर्ना उन्हें मजदूर-
किसान-कारीगर-तांगेवाला-किरानी-निम्नमध्यवर्गीय ग़रीब के किरदार अक्सर मिले और उनमें वह एकदम नैचुरल रहे। उनकी ऐसी भूमिकाओं ने ऐसे करोड़ों नेहरुयुगीन परिवारों को एक भावनात्मक सहारा दिया लेकिन बलराज ने वकील, डॉक्टर, मनोविज्ञानी, सेना तथा पुलिस अधिकारी, अफ़गान फेरीवाले, लोकशाहीर, सिख, दमकल वाले, जासूस, ईसाई, कश्मीरी महाकवि महजूर आदि की अत्यंत विविध भूमिकाएँ निबाहीं। प्राण को दादासाहेब फाल्के सम्मान देना सही हो सकता है लेकिन बलराज को वह इसीलिए नहीं दिया गया कि वे कम्युनिस्ट थे तो वह सरासर अन्याय है।

बलराज से कोई फूहड़ भूमिका करवाई ही नहीं जा सकती थी। "जोरू का भाई" में उन्होंने जॉनी वॉकर के जीजा का विलक्षण कॉमिक रोल किया है। लगातार पतित होती बम्बइया फ़िल्मी दुनिया में उन्होंने स्वयं को कला और यथार्थ दोनों जहानों में खुद को खुद्दार और बेदाग़ रखा। बेशक़ इसके पीछे रवीन्द्र-गाँधी-मार्क्स के मिले-जुले आदर्श थे, अंग्रेज़ी साहित्य था और खुद उनका हिंदी-पंजाबी लेखक होना भी था। सच तो यह है कि भारतीय सिनेमा में अब तक उन जैसा कोई प्रबुद्ध, प्रतिबद्ध और सृजनशील ऐक्टर नहीं हुआ। उनकी जिन्दगी का एक बड़ा सदमा उनकी एक बेटी की आत्महत्या थी जो ऐन "गरम हवा" के वक़्त हुई।ऐसा कहा जाता कि उनकी असामयिक मृत्यु का एक कारण वह भी था।

दिलीप कुमार जब यह कहते हैं कि अशोक कुमार, मोतीलाल और बलराज साहनी मुझसे बड़े अदाकार थे तो इस विनम्रता में सत्य का एक पुट है। बलराज शुरू में दिलीप के रोब में थे और उनसे ऐक्टिंग सीखना चाहते थे लेकिन जब उन्होंने अपनी नैचुरल स्टाइल खोज ली तो वे किसी के मोहताज नहीं रहे। "संघर्ष" में दिलीप हीरो हैं लेकिन बलराज का रोल भी लम्बा है। मुझे हमेशा लगा है कि इस फिल्म में दिलीप कभी सहज नहीं दीखते जबकि उनके चचेरे भाई गणेशी प्रसाद की भूमिका में बलराज का अभिनय लाजवाब है। जब हवेली में छोटे भाई संजीव कुमार की लाश आती है तो बलराज साहनी के आर्तनाद से मेरे रोंगटे अब भी खड़े हुए हैं। है कोई आज ऐसा सीन, ऐसा ऐक्टर?


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6 टिप्पणियाँ:

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत अच्‍छा लेख। बलराज साहनी को लोगों ने कम समझा है...यूं भी हिंदी के कमर्शियल सिनेमा में कला कम ही रही है....बलराज साहनी के समय में कोई पैरेलल सिनेमा जैसी चीज़ नहीं थी पर वे उस ज़माने में भी पैरेलल रहे...फिल्‍मों में दिखाया गया सारा नायकत्‍व एक तरफ और बलराज साहनी का अभिनय एक तरफ। शुक्रिया सिद्धान्‍त... यहां भवाली में नवभारत टाइम्‍स आता नहीं है...तुम न लगाते तो खरे जी का ये अनमोल लेख बिन पढ़ा रह जाता।

ravindra vyas ने कहा…

ak ssans men padh gaya. sachmuch achha lekh!

श्रीश जैसवाल ने कहा…

बहुत ही रोचक जानकारी मिली. बलराज साहनी निःसंदेह श्रेष्ठ अभिनेता थे, उनकी फ़िल्में बार-बार देखने की इच्छा होती है.

rameshtailang.blogspot.com ने कहा…

विष्णु जी पत्रकारिता, साहित्य और सिनेमा सभी क्षेत्रों गंभीर लेखन करते रहे और अपनी बेवाकी के कारण चर्चित/निन्दित भी होते रहे हैं पर उनकी वाणी और लेखन क्षमता हम जैसों को सदैव प्रेरित करती रही. बलराज साहनी पर उनका यह लेख इस बेजोड़ अभिनेता के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष अन्तरंगता से हमारे सामने रखता है.वैसे बलराज साहनी के अभिनय पक्ष पर जितना लिखा/कहा गया है उनकी साहित्यिक प्रतिभा पर उतना नहीं लिखा/कहा गया...ज़ाहिर है कि उनकी अभिनय प्रतिभा उनकी लेखन प्रतिभा पर ज्यादा हावी रही.

कुमार अम्‍बुज ने कहा…

बलराज जी पर यह महत्‍वपूर्ण लेख किंचित संक्षिप्‍त ही प्रतीत हुआ। शायद अखबार की स्‍थान सीमा से ऐसा हुआ होगा। विष्‍णु जी से अपेक्षा है कि वे इसे और विस्‍तार दें। प्रतीक्षा भी है।

Rakesh ने कहा…

हाल ही में बलराज साहनी का हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के नाम पत्र पढ़ा था जिसमे बलराज साफ़ तौर पर लिखते हैं कि वे अपने मित्र अज्ञेय का पत्र लेकर द्विवेदी जी से शान्ति निकेतन में मिले थे| मतलब, अज्ञेय से उनकी मित्रता शान्ति निकेतन में नौकरी पाने से पहले ही हो चुकी थी| लेख में यह तथ्य गलत हो गया है|