[मुक़म्मल अनुवादक और हिन्दी के चर्चावान कवि मनोज कुमार झा की इन कविताओं से अभी हम रू-ब-रू हो रहे हैं. दरभंगा के एक गाँव में मर्ज़ीपरस्त लेखन और पाठन करने वाले मनोज की कविताएँ आइनों की तरह पाक़-साफ़ हैं. मनोज उस काव्यधारा के कवि हैं, जहाँ स्मृतियाँ विचारों द्वारा प्रतिस्थापित कर दी जाती हैं. और यदि स्मृतियों की कोई उपस्थिति है, तो उस उपस्थिति का भी विचारों के सन्दर्भ में अनुवाद हो जाता है, यानी मनोज की कविताएँ मूलतः विचार की कविताएँ हैं. उनकी कविताओं में प्रयुक्त बिम्ब हमारे सपनों की स्मृतियों के समानांतर खड़े होते हैं और ऐसे ही किसी वक्त में 'झूठे धागे' जैसी कविता का जन्म होता है. मनोज की कविताओं में चित्रगत विरोधाभास मिलते हैं जहाँ से प्रश्नों में सृष्टि का दूध उतरता है. अपनी समूची रचना-प्रक्रिया में कवि का मन बूमरैंग या लैबिरिंथ की माफ़िक सोचता है, सारी परिभाषाएँ दुहराई जाती हुई मिलती हैं. मनोज की कविताओं में अकेलेपन और अवसाद का प्रलाप भी मुमकिन है. मनोज २००८ में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किये गए हैं. बुद्धू-बक्सा मनोज का आभारी.]
झूठे धागे
मोबाइल तीन लौटाये मैंने
एक तो साँप की आँख की तरह चमकता था
एक बार-बार बजता था उठा लिया एक बार
तो उधर से छिल रहे खीरे की तरह नरम आवाज ने हेलो कहा
एक को लौटाया मोबाइल तो हलवा मिला ईनाम
क्या ये सब झूठ हैं नाना के प्रेत के किस्सों की तरह
कि एक ने चुराकर ईख उखाड़ते वक्त तीस ईख उखाड़ दिया
एक ने बीच जंगल में साइकिल में हवा भर दी
क्या लालसाएं ऐसे ही काटती है औचक रंगों के सूते
और इतने सुडौल झूठ की कलाई
कि पकड़ो तो लहरा उठते हैं रोम रोम ।
सभ्यता
कुछ की जरूरत थी तो ले आया, कुछ ले आया सोचते कि इनकी भी जरूरत है
कुछ की चमक रेंगने लगी दिमाग की शिराओं में, कुछ खनके कि हुए माथे पर सवार
कुछ खाली था कुछ आ गए, कुछ आए कुछ भरने का मंतर फूंकते
कुछ पड़ोसिन को देखकर कुछ देखकर बाजार में
कुछ टीवी की किरपा कुछ तीज-त्योहार में
इतनी गजबज हुई रसोई कि छोटा पड़ गया कबाड़घर
रसोई भी तो चार साँस पीछे खड़ा कबाड़ ही है हाँफता
अब जब बच्चों ने ढूँढ लिए अपने अपने वन, अपनी नदियाँ, अपने पहाड़
अतिथि आते भी तो आते रेस्तराओं से लौटते पानी का बोतल लिए
यहाँ तो बस काक्रोच की टाँगें, चूहे की लार
एक रस्म-सा कि धूल पोंछता हूँ पानी फेंकता हूँ
ठीक ही तो कहती हैं वृद्ध महराजिन
कण-कण जानती हैं वो रस-घरों की कथाएँ
दो कौर चावल फाँक भर अँचार
इन्हीं का सारा साज-सिंगार ।
विवश
पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी
आँखों के जल में उठी हिलोर
मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद
इसी पेड़ के नीचे तो छाँटता रहा गेहूँ से जौ
उस शाम थकान की नोक पर खसा था इसी चिडि़या का खोंता
कंधे पर पंछी भी रहा अचीन्हा,
मैं अंधड़ की आँत में फँसा पियराया पत्ता
सँवारने थे वसंत के अयाल
पतझरों के पत्तों के साथ बजना था
बदलती ऋतुओं से थे सवालात
प्रश्नो में उतरता सृष्टि का दूध
मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म
मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूँ मरुत्थल में ।
आधार
मैनें कपड़े मांगे, शीत से अस्थियों की आँख अंधी हो गयी थी
मैनें रोटी मांगी, भूख अकेली आँत में सांप की तरह नाचती थी
मैनें चप्पल मांगी, घर बहुत दूर था रास्ते में चीटियाँ और कांटे असंख्य
मैनें भीख नहीं मांगी
आप जो भी कहें, मैनें भीख नहीं मांगी
मैनें इस पृथ्वी पर होने का आधार माँगा.
6 टिप्पणियाँ:
अच्छी कवितायें हैं..
मैनें भीख नहीं मांगी, मैंने इस पृथ्वी पर होने का आधार माँगा, क्या बात है!
han, yah sahi bat hai ki manoj g ki kavitayen vaicharik hoti hain. aaj jav kavitaon se vichar gayab ho rahe hain manoj g ki kavitayen kavita padhane ki santushti deti hain...
nice poetries
कुछ की जरूरत थी तो ले आया, कुछ ले आया सोचते कि इनकी भी जरूरत है,....This is my most fav poet in contemporary poetry...
vimal c pandey
पहली कविता में नये मुहावरे की खोज का यत्न रोमांचित करता है .
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