[ये हैं आलोक धन्वा के तीन कविताएँ. उनके संग्रह 'दुनिया रोज़ बनती है' से. कविता "बकरियाँ" में उस अनंत की व्याख्या मिलती है, जहाँ चरवाहे का होना नामुमकिन है. उस अनंत की परिभाषा में सुख नहीं है, क्योंकि तीखी ऊंचाइयों पर पीपल के पेड़ नहीं होते, इसलिए शायद सुख नहीं होता...फ़िर भी यहाँ हरियाली की अप्रत्यक्ष पैरवी है. "भूखा बच्चा" इस समय की सबसे मार्मिक कविताओं में से एक है, बच्चे की आँत होने का बिम्ब शायद आलोक धन्वा के यहाँ ही मुमकिन था जिसमें जलआकार या जलउत्तेजना बनकर रहा जा रहा है. भूखे बच्चे की तमाम दिक्कतें प्रकृति-प्रक्रियाओं से तुल्य हैं. यहाँ शायद इस बात का अवसाद व्याप्त है कि भूखे बच्चे के लिए मैं कुछ नहीं हूँ. आलोक धन्वा नींद को आवारा बना देते हैं और उससे उसी दशा में संवाद करते हैं. युवा-कविता पर इस कवि का कितना प्रभाव है, बताने की ज़रूरत नहीं. बुद्धू-बक्सा आलोक धन्वा का शुक्रगुज़ार.]
बकरियाँ
अगर अनंत में झाड़ियाँ होतीं
तो बकरियाँ अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियाँ टूँग कर वहाँ से
फ़िर धरती के किसी परिचित बरामदे में
लौट आतीं
जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
पहाड़ की तीख़ी चढ़ाई पर भी
बकरियों से मुलाक़ात हुई
वे क़ाफ़ी नीचे के गाँवों से
चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
जैसे-जैसे हरियाली नीचे से
उजड़ती जाती गरमियों में
लेकिन चरवाहे कहीं नहीं दिखे
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है.
भूखा बच्चा
मैं उसका मस्तिष्क नहीं हूँ
मैं महज़ उस भूखे बच्चे की आँत हूँ.
उस बच्चे की आत्मा गिर रही है ओस की तरह
जिस तरह बाँस के अँखुवे बंजर में तड़कते हुए ऊपर उठ रहे हैं
उस बच्चे का सिर हर सप्ताह हवा में ऊपर उठ रहा है
उस बच्चे के हाथ हर मिनट हवा में लम्बे हो रहे हैं
उस बच्चे की त्वचा कड़ी हो रही है
हर मिनट जैसे पत्तियाँ कड़ी हो रही हैं
और
उस बच्चे की पीठ चौड़ी हो रही है जैसे कि घास
और
घास हर मिनट पूरे वायुमंडल में प्रवेश कर रही है
लेकिन उस बच्चे के रक्त़संचार में
मैं सितुहा-भर धुँधला नमक भी नहीं हूँ
उस बच्चे के रक्तसंचार में
मैं केवल एक जलआकार हूँ
केवल एक जल उत्तेजना हूँ.
नींद
रात के आवारा
मेरी आत्मा के पास भी रुको
मुझे दो ऐसी नींद
जिस पर एक तिनके का भी दबाव ना हो
ऐसी नींद
जैसे चांद में पानी की घास.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें