वह ख़त्म हो गया, या चला गया अपनी शुरुआत में जहाँ से वह कभी आया ही नहीं, हड्डियों का पानी घिस चुका है उसके और फ़िल्में पनीली चाय जैसी लग रही हैं, न कभी आशा थी न ऐसी चाह लेकिन जो हुआ वह पहले से निश्चित था.
विशाल भारद्वाज, मक़बूल और ओमकारा जैसी अच्छी फ़िल्मों के बाद कोई चिर-परिचित चमत्कार नहीं कर पाए, थोड़ा बहुत दम इश्क़िया में दिखा लेकिन आगे-पीछे सबकुछ साफ़. जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा को टक्कर देने के लिए अपने को मजबूत करना चाह रहा है, वहीँ दूसरी ओर विशाल भारद्वाज और गुलज़ार जैसे लोग इस मुहीम में अब ज़्यादा साथ नहीं दे पा रहे हैं. इस बात से अधिक निराशाजनक (कम से कम मेरे लिए) और कुछ नहीं कि जिस जमात के बारे में (अधिक शुद्धिकरण के लिए "जोड़ी") ब्लॉग्स, अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ और पत्रिकाओं के विशिष्ट अंक लिखे-छापे जा रहे हैं, उन्हें ये नहीं पता कि वे अब इसके असल हक़दार नहीं रह गए हैं. मेरी पिछली पोस्ट गुलज़ार और विशाल के संगीत के लिए ही थी, लेकिन फ़िल्मों का क्या? वे अब अनुत्तरित होती जा रही हैं, फ़िर भी एक टैग के पिछलग्गू आलोचक 'ख़राब' को 'बहुत अच्छा' बनाने पर तुले हुए हैं, अगर उसे नकार दिया जाए, तो एक बहुत बड़ी फ़ौज आपके ख़िलाफ़ खड़ी हो जाएगी.
सात खून माफ़......फ़िल्म को मेरी प्रिय अभिनेत्री का साथ मिला हुआ है लेकिन वे भी इस बार कोई ख़ास कमाल नहीं कर पाईं हैं. समूची फ़िल्म इस तरह से बढती है, जैसे किसी ने कार में चाभी भर कर उसे एक निश्चित दिशा में बाधा-विहीन मार्ग पर छोड़ दिया हो, और उस कार को किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है, अपने ख़ुद के होने से भी नहीं. फ़िल्म का माहौल दम-घोटू किस्म का है, दर्शक के लिए किसी भी स्पेस की रचना नहीं की गई है. दूसरे अर्थों में, स्पेस ही स्पेस है, जिसे भर पाना एक अजीब से अन्धकार से होकर गुजरना है.
कहानी, फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु (मुख्यधारा), उसे हल्का कलात्मक टच देकर दिखा पाना अच्छी फ़िल्म की रचना है, लेकिन जब उसे छुए बग़ैर आगे बढ़ा जाए, तो आने वाली फ़िल्मों को 'सात खून माफ़' कहते हैं....ऐसी फ़िल्में जो अपने चलन में हमेशा असंतुष्ट होती हैं, एक व्यभिचारी की तरह...अपनी हर चाह के पूरे होने को अपने अगली चाह के आगाज़ के रूप में देखता हुआ....एक ऐसे आदमी की तरह जो वर्तमान की बातें करते हुए भविष्य को जीने लगता है, इस बात से बेख़बर कि उसका वर्तमान अभी उसके भूत के भविष्य में चल रहा है, अधूरा.
फ़िल्म की कहानी लगातार आपसे ध्यान की भीख मांगती रहती है, एक इनकम्प्लीट ड्राफ्ट की तरह कहानी, किसी घटना को कहानी से जोड़ने में असमर्थ है और घटनाएं समय से जुड़ने में असमर्थ. समय को जिस तरह से हाथों-हाथ लिया है विशाल ने, वह मेरी समझ के परे है. शादी-मरना-शादी, ये क्रम फ़िल्म की पूरी कहानी का सार है और इस क्रम को एक संक्रामक तरीक़े से फ़िल्म का हिस्सा बनाया गया है, इससे अलग और भी प्रयोग किए जा सकते थे - जिनकी आशा विशाल की हर फ़िल्म से रही है - वे नहीं किए गए और फ़िल्म आर्टिस्टिक डेस्क पर गए बिना रिलीज़ हो गई.
विशाल भारद्वाज, मक़बूल और ओमकारा जैसी अच्छी फ़िल्मों के बाद कोई चिर-परिचित चमत्कार नहीं कर पाए, थोड़ा बहुत दम इश्क़िया में दिखा लेकिन आगे-पीछे सबकुछ साफ़. जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा को टक्कर देने के लिए अपने को मजबूत करना चाह रहा है, वहीँ दूसरी ओर विशाल भारद्वाज और गुलज़ार जैसे लोग इस मुहीम में अब ज़्यादा साथ नहीं दे पा रहे हैं. इस बात से अधिक निराशाजनक (कम से कम मेरे लिए) और कुछ नहीं कि जिस जमात के बारे में (अधिक शुद्धिकरण के लिए "जोड़ी") ब्लॉग्स, अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ और पत्रिकाओं के विशिष्ट अंक लिखे-छापे जा रहे हैं, उन्हें ये नहीं पता कि वे अब इसके असल हक़दार नहीं रह गए हैं. मेरी पिछली पोस्ट गुलज़ार और विशाल के संगीत के लिए ही थी, लेकिन फ़िल्मों का क्या? वे अब अनुत्तरित होती जा रही हैं, फ़िर भी एक टैग के पिछलग्गू आलोचक 'ख़राब' को 'बहुत अच्छा' बनाने पर तुले हुए हैं, अगर उसे नकार दिया जाए, तो एक बहुत बड़ी फ़ौज आपके ख़िलाफ़ खड़ी हो जाएगी.
सात खून माफ़......फ़िल्म को मेरी प्रिय अभिनेत्री का साथ मिला हुआ है लेकिन वे भी इस बार कोई ख़ास कमाल नहीं कर पाईं हैं. समूची फ़िल्म इस तरह से बढती है, जैसे किसी ने कार में चाभी भर कर उसे एक निश्चित दिशा में बाधा-विहीन मार्ग पर छोड़ दिया हो, और उस कार को किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है, अपने ख़ुद के होने से भी नहीं. फ़िल्म का माहौल दम-घोटू किस्म का है, दर्शक के लिए किसी भी स्पेस की रचना नहीं की गई है. दूसरे अर्थों में, स्पेस ही स्पेस है, जिसे भर पाना एक अजीब से अन्धकार से होकर गुजरना है.
कहानी, फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु (मुख्यधारा), उसे हल्का कलात्मक टच देकर दिखा पाना अच्छी फ़िल्म की रचना है, लेकिन जब उसे छुए बग़ैर आगे बढ़ा जाए, तो आने वाली फ़िल्मों को 'सात खून माफ़' कहते हैं....ऐसी फ़िल्में जो अपने चलन में हमेशा असंतुष्ट होती हैं, एक व्यभिचारी की तरह...अपनी हर चाह के पूरे होने को अपने अगली चाह के आगाज़ के रूप में देखता हुआ....एक ऐसे आदमी की तरह जो वर्तमान की बातें करते हुए भविष्य को जीने लगता है, इस बात से बेख़बर कि उसका वर्तमान अभी उसके भूत के भविष्य में चल रहा है, अधूरा.
फ़िल्म की कहानी लगातार आपसे ध्यान की भीख मांगती रहती है, एक इनकम्प्लीट ड्राफ्ट की तरह कहानी, किसी घटना को कहानी से जोड़ने में असमर्थ है और घटनाएं समय से जुड़ने में असमर्थ. समय को जिस तरह से हाथों-हाथ लिया है विशाल ने, वह मेरी समझ के परे है. शादी-मरना-शादी, ये क्रम फ़िल्म की पूरी कहानी का सार है और इस क्रम को एक संक्रामक तरीक़े से फ़िल्म का हिस्सा बनाया गया है, इससे अलग और भी प्रयोग किए जा सकते थे - जिनकी आशा विशाल की हर फ़िल्म से रही है - वे नहीं किए गए और फ़िल्म आर्टिस्टिक डेस्क पर गए बिना रिलीज़ हो गई.
जहाँ तक गुलज़ार की बात है तो वे भी अपनी धार खो चुके हैं, न्यू वेव के बाद गुलज़ार अपने बने-बनाये खांचे में बंद हो गए, और अपने पुराने को दुहराने लगे, लेकिन यहाँ पर इस जोड़ी को सराहना होगा कि संगीत फ़िल्मों के स्तर से कहीं ऊपर होता है, वजह......विशाल भारद्वाज, संगीत में खनक अब भी बची हुई है, ये कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि ओमकारा में संगीत के सफल होने का अभिमान उनके सिर नहीं चढ़ा और संगीत फ़िल्म दर फ़िल्म बेहतर होता गया. बहरहाल, फ़िल्म की कहानी सुलझी हुई है, एक औरत की शादी, छह जीवित पुरुषों से और एक मरे हुए से होती है, सारे ज़िंदा मार दिये जाते हैं, और सातवाँ (मरा हुआ), ईसा है, जो एक सिलसिले को ख़त्म करने का काम करता है. इन सबके बीच नादान-सा प्रेम भी है, जिसकी उपस्थिति उसके अलावा हर प्रेम को लाभ पहुंचाती है. दिक्कत ये है कि एक औरत की अनस्टेबिलिटी के कारण क्या हैं...उसकी न पूरी होती इच्छाएं या एक स्थापित ज़िन्दगी की चाह. अभिनय के लिए जॅान अब्राहम और अनु कपूर के अलावा कोई एक अच्छा स्टैंड नहीं ले पाया, जो एक सफ़ल निर्देशक की हार ही है.
वक़्त ज़रूरी क्यों है? इसका जवाब विशाल और गुलज़ार को मालूम होना चाहिए, और उनका महिमा-मंडन कर रहे सभी लेखकों-आलोचकों को. दर्शक समझदार है, और यह मानना होगा कि वह दुनिया भर का साहित्य पढ़कर और फ़िल्में देखकर सिनेमा हाल में जाता है, और जब ऐसा दर्शक सोचने की कला के साथ स्वतंत्र है तो हरेक सिने-प्रेमी को आलोचक कहना क्या सही नहीं होगा?
[बुद्धू-बक्सा पर एक बार पहले भी सात खून माफ़?]
3 टिप्पणियाँ:
आपसे सहमत...सात खून माफ देखी..झेल गये.
bahut badhiya siddhant, vishal ka rang nahi dikhta is film me ekadh drishyon ko chhodkar. apne bahut achha likha hai. apke blog ka link apne blog pe laga raha hoon...asha hai aap swagat karenge iska..
vimal chandra pandey
Vimal bhai,
aapke faisle aur aapka saharsh swaagat hai.
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