मंगलवार, 30 नवंबर 2010

रक़ीब से

 
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीखाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रक्खा था


आशना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा’नाई के

जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है


तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसकी मलबूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है


तूने देखी है वो पेशानी, वो रुखसार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोयी हुई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ


आजिज़ी सीखी, ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के, दुख-दर्द के मानी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुखे-ज़र्द के मा’नी सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाक़ामस्तों को डुबोने के लिए कहता है


आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.



(वाबस्ता = जुड़ी हुई; दहर = दुनिया; रा’नाई = छटा; मलबूस = वस्त्र; अफ़्सुर्दा = उदास; साहिर = जादूगर; मुश्तरका = समान; आजिज़ी = विनम्रता; यास-ओ-हिरमान = निराशा और दुख; ज़ेरदस्त = अधीन; मसाइब = मुसीबत)

(कुछ दिनों पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय में ३० युवा कवियों का काव्यपाठ हुआ, आयोजन शोध-छात्रों के द्वारा संपन्न हुआ. आयोजन बेशक़ बढ़िया था, लेकिन कई तरह की दिक्कतों से भरा हुआ भी. संचालक महोदय ने कई बार भाषा से जुड़ी हुई गलतियां कीं. इतने बड़े आयोजन में एक बात खुलकर सामने आई कि अभी हिन्दी साहित्य/ हिन्दी कविता को कई खतरनाक राहों से गुज़रना है, जहाँ सबसे बड़ी चुनौती है श्रोताओं की. अब ज़रूरत मालूम होती है, एक अच्छे रचनाकार के साथ एक उम्दा कोटि के श्रोता-मंडल की, और शायद अगले समय में यही एक मापदंड हो एक सफल आयोजन का (ख़ासकर छात्रों के सामने). छात्रों को दिल्लगी और सरल कविताएँ अच्छी लग रही थीं और इसी कारण कई अच्छी कविताएँ/अच्छे रचनाकार अलक्षित रह गए. आगाज़ के दौरान, एक शोध-छात्र द्वारा फैज़ अहमद फैज़ की ये नज़्म बड़े ही त्रुटिपूर्ण ढंग से पढ़ी गई, लेकिन इसका पाठ सौ खून भी माफ़ कराने के लिए काफ़ी था क्योंकि ये फैज़ की रचनाओं में ‘मेरे पसंदीदा’ वाले क्रम में से एक हैं. इस नज़्म की और इससे जुड़ी कई बातों की विवेचना बहुत अच्छी तरह से कवि केदारनाथ सिंह ने की.)

2 टिप्पणियाँ:

pankaj chaturvedi ने कहा…

priy siddhaant,
aapne jo nazm prastut kee hai, beshak naayaab hai. iske liye aapkaa bahut-bahut shukriyaa ! saath hi, foot-note ke taur par jo comment aapne kiya hai, wah ek atyant samvedansheel aur prabuddh ‘saahityik’ ka observation hai, sahi, sundar aur praasangik.
—pankaj chaturvedi
kanpur

anurag vats ने कहा…

nazm to achhi hai hi…pr tumne jo tipanni men jo baat uthai hai shrotaon wali wah sochniy hai…