सोमवार, 27 सितंबर 2010

आलोक – १

वे दिन

यह आवाज़ उसकी है. कितनी बार उसने उसे सुना है. लगता है, उसके चले जाने के बाद भी यह आवाज़ पीछे छूट गई थी – अपनें में अलग और सम्पूर्ण. मैं खिड़की खोलता हुआ डरता हूँ….दरवाजे पर भी कोई दस्तक देता है, तो मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगता है…लगता है, ज़रा-सा भी रास्ता पाने पर यह आवाज़ बाहर निकल जायेगी और मुझे पकड़ लेगी. मैं कब तक उसे रोक सकूंगा — अधीर-आग्रहपूर्ण, आंसुओं में भीगी उस आवाज़ को, जैसा मैंने उसे रात को अकेली घड़ी में सुना था ?

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मैंने बत्ती बुझा दी. बहन का पत्र अब भी मेरी जेब में था, लेकिन मैंने उसे अगले दिन के लिए छोड़ दिया. स्लीबोवित्से के बाद कुछ भी सोचने या पढने की इच्छा नहीं रह गई थी. सिर्फ़ भीतर एक हास्यास्पद-सी गड़बड़ होने लगती थी, जैसे अंतड़ियों में कोई धीमे-धीमे गुदगुदी कर रहा हो. मुझे तब ऐसा लगता था, जैसे मैं किसी दायरे के इर्द-गिर्द एक खरगोश के पीछे भाग रहा हूँ — एक सफ़ेद मुलायम-सी चीज़, जो सिर्फ़ सिर की चकराहट थी. चकराहट का भी कैसा अजीब रंग होता है….बादल-सी हल्की और सफ़ेद — सिर की नसों के बीच तिरती हुई — तुम जानते हो, वह पकड़ के बाहर है, लेकिन उसके पीछे भागते रहते हो, जब तक नींद उसे दबोच नहीं लेती.

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धूप निकल आई थी. वैन्सलेस स्क्वायर के बीच पानी में भीगी ट्राम की लाइनें चमक रहीं थीं. आकाश इतना नीला था कि उसे देखकर यह विचार भी बेतुका-सा लगता था कि कल शहर में बर्फ़ गिरी थी. जहाँ बर्फ़ थी, वहाँ अब भी पानी के गड्ढे उभर आये थे. हवा उन्हें छूती भी नहीं थी, लेकिन वे जैसे सहमकर पहले से ही काँपने लगते थे.

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तब सहसा मुझे वह आवाज़ सुनाई दी थी. आवाज़ भी नहीं — महज़ एक सरसराहट — बर्फ़ और धूप में दबी हुई. मुझे हमेशा यह आवाज़ अचानक अकेले में पकड़ लेती थी, या शायद जब मैं अकेला होता था, तभी उसे सुन पाता था. वह दरिया की ओर से आती थी — किन्तु वह दरिया की ही आवाज़ है, इसमें मुझे सन्देह था. वह सिर्फ़ हवा हो सकती थी — तीख़ी सफ़ेद और आकारहीन. या सिर्फ़ शहर का शोर, जो पुराने मकानों के बीच आते ही अपना स्वर बदल देता था. घरों के बीच एक गिरता हुआ नोट — पेड़ों, छतों, गलियों के ‘की-बोर्ड’ पर सरसराता हुआ बर्फ़ की सफेदी पर एक भूरी-सी आहट-सा.

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पोर्च के मद्धिम आलोक में स्कार्फ़ में बँधा उसका सिर बार-बार हिल जाता था. एक अजीब-सी आकांक्षा ने मुझे पकड़ लिया. सिर्फ़ एक पल के लिए. मैंने उसे पहले नहीं देखा था — उस पगली आकांक्षा को. वह एक विस्मयकारी डर से जुड़कर ऊपर उठी थी, मैंने उसे वहीँ गिर जाने दिया — उस आदमी की तरह जो ज़रा-सा खटका होते ही चुराई हुई चीज़ को नीचे गिरा देता है…. यह दिखाने के लिए कि वह उसकी नहीं है. इस आशा में कि ख़तरा टलते ही वह उसे फ़िर उठा लेगा….
“देखो… उधर !” उसने मेरे हाथ को झिंझोड़ते हुए कहा, “पोर्च के बाहर…” एक अजीब-सा डर उसकी आँखों में सिमट आया था.
कुछ भी नहीं था. सिर्फ़ बर्फ़ गिर रही थी. लैम्प-पोस्ट के दायरे में रुई के गालो-सी सफ़ेद और खामोश.
” मैं चलती हूँ…” उसने मेरी ओर देखा. ” कल…” उसने कहा.
उसने होटल का दरवाज़ा खोला…. अपना स्कार्फ़ और दस्ताने उतार दिए… फ़िर भागते हुए सीढियां चढ़ने लगी.
मैं निश्चिन्त हो गया. उसका भय वहीँ गिर गया था, जहाँ मेरी आकांक्षा थी. दोनों उस रात वहीँ पड़े रहे…. एक-दूसरे से बेखबर.

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शायद हर शहर का अपना अलग इतवार होता है… अपनी अलग आवाजें, और नीरवता. तुम आँखें मूंदकर भी जान लेते हो. ….ये ट्राम के पहिये हैं…यह उबलती कॉफ़ी की गंध. बाहर बर्फ़ पर खेलते हुए बच्चों की चीखें…. उनके परे गिरजों के बाग़ में बूढी औरतों की फुसफुसाहट. होस्टल में जब पुरानी लिफ्ट ऊपर चढ़ती है…. खाली कमरे हिलने लगते हैं. फ़िर वह ठहर जाती है…. चौथी मंज़िल पर…. जहाँ टी.टी. का कमरा है, उसके ऊपर होस्टल की
छत है. जहाँ हर इतवार को प्राग के गिरजों की घंटियाँ तिरती आती है… तुम सोते हुए भी उन्हें सुन सकते हो. तुम उन्हें सूंघ सकते हो. उनमें चिमनियों का धुआँ है, पतझर के सड़ते पत्तों की मृत्यु…. नदी के बहते पानी की सरसराहट ! दूसरे दिन दूसरे शहरों में होते हैं…. इतवार अपना-सा होता है…. पराए शहर में भी.

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मुझे तब पहली बार उसका चेहरा इतना पास लगा — सर्दी की सूखी धूप में सुर्ख़, बड़ा और बदला-सा. ” तुम थक गई हो ? ” मैनें पूछा. ” नहीं, मैं ठीक हूँ. ” उसने कहा. हवा से उसका स्कार्फ़ बार-बार फड़फड़ा जाता था. उसके बाहर कुछ भूरी लटें माथे पर छितर आई थीं — धूप में चमकती हुई. ” पास आ जाओ, वर्ना तुम हवा में उड़ जाओगी. ” मैंने हँसते हुए कहा. वह बिलकुल मुझसे सट गई. मुझे लगा, वह ठिठुर रही है. मैंने अपना मफ़लर उतारकर उसके गले में लपेट दिया. उसने कुछ कहने के लिए मुँह उठाया. उसे मालूम नहीं था, मेरा चेहरा उसके सिर पर है… तब अचानक मेरे होंठ उसके मुँह पर घिसटते गए… फ़िर वे ठहर गए, कनपटियों के नीचे कुछ भूरे बालों पर…. ” सुनो …” उसने कहा. किन्तु इस बार मैंने कुछ नहीं सुना. मेरे होंठ इस बार उसके मुँह पर आए आधे वाक्य पर जम गए. उसका उठा मुँह निर्वाक-सा उठा रहा. कुछ देर तक मैं सांस नहीं ले सका. हवा बहुत थी, लेकिन हम उसके नीचे थे. हम बार-बार साँस लेने के लिए ऊपर आते थे…. हाँफते हुए एक-दूसरे की ओर देखते थे… दीखता कुछ भी न था — अधखुले होंठ, ओवरकोट के कॉलर का एक हिस्सा, हम दोनों पर फड़फड़ाता हुआ बेचैन-सा स्कार्फ़….

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उसके स्वर ने मुझे चौंका-सा दिया. मैंने उसकी ओर देखा. शाम की बुझती रोशनी में उसका चेहरा बहुत उज्ज्वल-सा हो आया था. आँखों में एक दूरी थी, जो अपनी होती है, जिसमें किसी दूसरे का साझा नहीं होता. पीली जैकेट के ऊपर उसकी गर्दन इतनी पतली और सहमी-सी लगती थी, मानो ज़रा-सा झटका लगते ही  समूचे धड़ से अलग हो जाएगी. पहली बार मुझे लगा जैसे उम्र को छोड़ कर उसकी हर चीज़ बहुत कम है. छोटी नहीं, लेकिन कम…. जैसे उम्र उन्हें बिना छुए बढ़ गई है.

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उस शाम की स्मृति मुझे आज भी कुछ अलग-सी लगती है… अन्य दिनों से अलग. अन्य दिनों की तरह उस शाम हमें एक-दूसरे को खोजने या जानने की इच्छा नहीं रह गयी थी. लगता था, वह है और यह झेल पाना ही एक सुख है जो इतना ज़्यादा है कि पीड़ा देता था – क्योंकि एक असह्य-सा लगता था. जब हम चुप रहते थे, जैसे पानी चढ़ता हो
और उतर जाता हो. उसमे कोई दुराव न आता था. जब बोलते थे, तब भी बीच में और अचानक – यह नहीं लगता था कि चुप्पी के बाद बोल रहे हों. मुझे उस शाम पहली बार लगा था, जैसे मैं उसके साथ वैसे ही चल रहा हूँ, जैसे मारिया या फ्रांज़ के साथ – वह मेरे साथ है, यही काफ़ी था. उसके परे कुछ भी नहीं था – उसका अतीत मेरे लिए ख़तरा नहीं था. वह कुछ भी नहीं था. वह उससे कुछ अलग थी – और चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न रहा हो – उस शाम उसका मेरे संग होना – वह उससे ज़्यादा था. वह सबसे ज़्यादा था. क्योंकि उसके बाहर जो उसका था, वह मेरे लिए कुछ भी नहीं था. और यह सोचते ही एक असम्भव-सी ख़ुशी मुझे घेर लेती थी.

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उसने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ अपने हाथ में दबा लिया… हथेलियों के उस गरम दबाव में एक हल्की-सी कृतज्ञता छिपी थी… अनिर्वचनीय, अंतहीन. पहली बार मुझे लगा, जैसे इस शाम तक हम दोनों के बीच जो रिश्ता था, वह अब नहीं है. यह बदल गया था, स्वतः और अनायास. जिस चाह की एक झलक ऑडिटोरियम में मिली थी, वह अब भी थी. पहले हम उसे देखकर लज्जित और आतंकित-से हो गये थे….. अब उसका होना अनिवार्य-सा लग रहा था, हम दोनों के होने से जुड़ा हुआ.

(बुद्धू-बक्सा पर निर्मल जी के उपन्यासों पर शुरू यह सिरीज़, एक-एक कर उनके सभी उपन्यासों से अंश लेकर आएगी. निर्मल वर्मा को मैं इस तरह की भाषा का धनी मानता हूँ, जहाँ किसी भी चीज़ को समझाना या दिखाना असम्भव नहीं है. प्रेम जैसे पवित्र भाव या शहर के किसी मौसम, समय और दिन को सही-सही लिख पाने का गद्य-गुण यहाँ के अलावा इक्का-दुक्का जगहों पर ही शायद मिलता है. यहाँ कठिन अभिव्यक्ति को इस क़दर आसान बनाया जाता है कि पाठक स्वतः सहज महसूस करने लगता है.)

3 टिप्पणियाँ:

Himanshu ने कहा…

Doesn’t nirmal verma’s diction reflect tones and overtones of colonialism?

ssiddhant ने कहा…

@himanshu: yes it does so, but upto a short extent.

सागर ने कहा…

कुछ दिन पहले ही मैंने यह उपन्यास पढ़ी है, और लगभग यही सब पंग्तियाँ अंडर लाइन कर के रखी है. आपके इस बात से सहमत हूँ कि दिन, मौसम, प्रेम, ताप का पूरा पूरा जायजा यहीं मिलता है, इक सिनेमा सा.... इक किताब और याद आती है आंद्रेई तर्कोवोसकी कि 'अंधरे में फैलते बिम्ब' वो भी दिन मौसम का अच्छा हाल बताती है.

आज आपका पूरा ब्लॉग देखा, कभी गौर से, तो कभी सरसरी निगाह से... यह क्लासिक है. बेहतरीन, सबद जैसा... मज़ा आ गया. इसकी जरुरत थी, है और रहेगी... आपकी दृष्टि भी बेहद सुलझी हुई है... आप लगातार पढने को कुछ देते रहें... बहुत शुभकामनाएं !