
इस फ़िल्म को देखने का मेरा अनुभव बड़ा रोमांचकारी रहा, इसे देखने के दौरान कई फ़िल्में और बातें दिमाग में आती रहीं जो हमारे यहाँ की फ़िल्मों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर ईरान की फ़िल्मों से नज़दीकी की द्योतक हैं, लेकिन उनके बारे में बात बाद में.
तो, क्या आपका जूता आपके लिए ज़रूरी है? अगर फटा-चिथड़ा हो तब भी ज़रूरी है? क्या आप जूता खो जाने पर डरेंगे? यदि हाँ तो आप इस फ़िल्म को भी देखेंगे. .
कहानी !!... क्या ये ज़रूरी है? तो ठीक है....कहानी का नायक है अली, वो छोटा बालक जो ज़रा भी शैतान नहीं है, जो बचपन में ही सीख रहा है कि मुश्किलों का सामना कैसे किया जाये. "मैं क्यों डरूं... नहीं डरूंगा.... ना ही पीछे हटूंगा..... लेकिन बस घबराता हूँ अब्बू के बारे में सोचकर, उनके पास पैसे कम हैं ना..." कुछ इसी तरह का लड़का है अपना अली. अपनी छोटी बहन को खूब प्यार करने वाला और उतना ही उससे डरने वाला लड़का है अली.
छोटी बहन है ज़ाहरा, थोड़ा सा व्यक्तिगत होकर सोचूँ तो मुझे ये बच्ची अपनी प्यारी भतीजी की याद दिला देती है. हर छोटी सी बात पर मुंह फुला लेना, डर जाना और अपने भाई को डराना.... बड़ा ही स्नेहिल व्यक्तित्व है इस बालिका का. एक और बात, इनकी माँ फ़िल्म में कुछ भी नहीं है, हाँ इनके पिता थोड़े बहुत ज़रूर हैं, ये वही व्यक्ति हैं जो द सॉन्ग ऑफ़ स्पैरोज़ में नायक के तौर पर थे.
आपको क्या चाहिए एक बच्चे से, या आप क्या कमाना चाहेंगे एक कला की शर्त पर, एक कलेजा पसीजा देने वाली कहानी के शर्त पर..... मैं तो कमाना चाहूँगा ढेर सारी खुशियाँ. और इस तरह के कठिन मूल तत्व इस फ़िल्म में बखूबी मिलते हैं.
बहरहाल, आनन-फानन में अली से अपनी बहन का जूता खो जाता है, जिसे वो मरम्मत के लिए ले गया था. घर में बवाल से बचने के लिए उसे ज़ाहरा को मनाना पड़ता है कि वो अम्मी-अब्बू से कुछ भी न कहे. एक ही जूते से काम चलाते हैं दोनों, दौड़-दौड़ कर जूते बदलना और अपने-अपने स्कूल जाना-आना, ये भाई-बहन के जीवन का हिस्सा बन जाता है. बीच में दोनों में मनमुटाव भी होता है, लेकिन समझदार अली को सब कुछ बखूबी हैंडल करना आता है. छोटी बहन को समझा कर वो मसले सुलझा लेता है.
दोनों के जीवन का एक ही उद्देश्य 'अब' रह गया है किसी भी भांति जूते हासिल करना, चाहे पुराने चाहे नये. इसी तरह की भागदौड़ में एक दिन उन्हें अपनी पुराने जूते मिलते भी हैं, ज़ाहरा के ही स्कूल में पढने वाली एक लड़की के पैर में. तहकीक़ात में पता चलता है कि उस लड़की ने ये जूते एक कबाड़ीवाले से खरीदे थे और लड़की की हालत काफ़ी ख़राब है इसलिए वे उससे जूते वापिस हासिल करने का ख्याल छोड़ देते हैं. अरे भाई, ये बच्चे भी समझदार हैं.
अली तो जैसे इस भाग-दौड़ में अपनी खुशियों को भूल चुका है, उसके दोस्त रोज़ नई-नई टीमों को फ़ुटबाल में हराने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि अली इनसे अलग अपने आप को एक दूसरे मायाजाल में स्थापित कर चुका है. घर की हालत काफ़ी ख़राब है, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए सोचना पड़ रहा है.
लड़के को अपनी भागाभागी पर इतना भरोसा है कि वह एक ओपन रेस में हिस्सा लेने के लिए अपने खेल के टीचर को मना लेता है, पढने में ये लड़का तो है ही लाजवाब. रेस में दौड़ने का बस एक ही कारण, तीसरे स्थान पर आने वाले प्रतिभागी को एक जोड़ी खेलने वाले जूते दिए जायेंगे, इसलिए अली दौड़ जाता है. बड़ी ही कूटनीतिक चालों का इस्तेमाल करते हुए वो ख़ुद को पहले या दूसरे स्थान पर आने से रोकता है, लेकिन इतनी लम्बी रेस में अपने दिमाग पर नियंत्रण खो बैठता है और रेस में पहले स्थान पर आ जाता है (दुःखद), लेकिन ऐसी फ़िल्मों के अंत के नियम के अंतर्गत सारी समस्याओं का अंत होता है, वो जूते नहीं हासिल कर पाकर भी काफ़ी ज़रूरी चीज़ें हासिल कर लेता है. नौकरी की तलाश में भटकता पिता अच्छी सी कमाई करके अपनी बच्ची के लिए एक जोड़ी जूते भी ले आता है और वो सारी चीज़ें भी, जिसके लिए उसने अली से साइकिल दुर्घटना के ठीक पहले वायदा किया था.
फ़िल्म की शूटिंग तेहरान की तंग गलियों में हुई है, यहाँ आपको एक खुला माहौल देखने को नहीं मिलेगा, जहां लैंडस्केप की उन्मुक्तता नहीं होगी. यहाँ कई अलग-अलग और छोटी-छोटी समस्याएँ नहीं हैं पूरी कहानी जूते पर केन्द्रित है और उससे जुड़ी समस्याओं पर. एक बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि मजीदी ने इस फ़िल्म की अधिकतर शूटिंग के दौरान कैमरे और क्रू को छिपा के रखा था ताकि लोगों के सामान्य भाव कैमरे में कैद हो सकें.
फ़िल्म में आये कुछ प्रकरण-दृश्य (बड़े ही साधारण से) दिमाग के एक बड़े हिस्से में घर कर गये हैं, लेकिन इनका अपना प्रभाव बड़ा ही व्यापक है. जैसे, अच्छे नंबरों के लिए मिली पेन की अहमियत अली के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वो ज़ाहरा को पेन एक रिश्वत के तौर पर दे देता है. एक बार अपनी-अपनी कापियों पर लिख-लिख कर एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं कि अब आगे स्कूल बिना जूतों के स्कूल कैसे जाया जाये और वे दोनों अपने अब्बू के द्वारा ध्यान से 'वॉच' किये जाते हैं. जूते का नाली में गिर जाने वाला सीन भी सुन्दर है, लेकिन इस दृश्य की तीन-चार फ़िल्मों में वाहियात नक़ल देख़ मूल सीन कलेजे से उतर गया.
एक मित्र से बात हो रही थी कि मजीदी की फ़िल्में मूलतः कैसी हैं? जनाब ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ ज़वाब दिया...उनके अनुसार इनकी फ़िल्में कम मसालेदार गोश्त की माफ़िक हैं, जिनके पाचन में कोई समस्या नहीं आती है. इस जवाब को मैं आजकल कुछ दोहराने लगा हूँ.
प्रियदर्शन की हाल ही में एक फ़िल्म आई है बम बम बोले.... ये फ़िल्म मूलतः क्या है इसका कोई अंदाज़ नहीं लग पाता है. डायलॉग तक नक़ल किये गये हैं और नाम दिया गया कि यह फ़िल्म चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन से प्रभावित है, क्या प्रभावित फ़िल्में इस हद तक प्रभावित होती हैं? इतना ही या कहें एकदम ऐसा ही प्रभाव किसी दक्षिण भारतीय फ़िल्म में मैंने देखा था, जिसका नाम याद नहीं है और याद रखना चाहता भी नहीं हूँ.
एक बात तो इस तरह की बातों से खुलकर सामने आई कि ईरान की फ़िल्में किस तरह से दुनिया भर की फ़िल्मों को "प्रभावित" कर रही हैं और फ़िल्मों के लिए नये मानकों की स्थापना कर रही हैं .
तो, क्या आपका जूता आपके लिए ज़रूरी है? अगर फटा-चिथड़ा हो तब भी ज़रूरी है? क्या आप जूता खो जाने पर डरेंगे? यदि हाँ तो आप इस फ़िल्म को भी देखेंगे. .
कहानी !!... क्या ये ज़रूरी है? तो ठीक है....कहानी का नायक है अली, वो छोटा बालक जो ज़रा भी शैतान नहीं है, जो बचपन में ही सीख रहा है कि मुश्किलों का सामना कैसे किया जाये. "मैं क्यों डरूं... नहीं डरूंगा.... ना ही पीछे हटूंगा..... लेकिन बस घबराता हूँ अब्बू के बारे में सोचकर, उनके पास पैसे कम हैं ना..." कुछ इसी तरह का लड़का है अपना अली. अपनी छोटी बहन को खूब प्यार करने वाला और उतना ही उससे डरने वाला लड़का है अली.
छोटी बहन है ज़ाहरा, थोड़ा सा व्यक्तिगत होकर सोचूँ तो मुझे ये बच्ची अपनी प्यारी भतीजी की याद दिला देती है. हर छोटी सी बात पर मुंह फुला लेना, डर जाना और अपने भाई को डराना.... बड़ा ही स्नेहिल व्यक्तित्व है इस बालिका का. एक और बात, इनकी माँ फ़िल्म में कुछ भी नहीं है, हाँ इनके पिता थोड़े बहुत ज़रूर हैं, ये वही व्यक्ति हैं जो द सॉन्ग ऑफ़ स्पैरोज़ में नायक के तौर पर थे.
आपको क्या चाहिए एक बच्चे से, या आप क्या कमाना चाहेंगे एक कला की शर्त पर, एक कलेजा पसीजा देने वाली कहानी के शर्त पर..... मैं तो कमाना चाहूँगा ढेर सारी खुशियाँ. और इस तरह के कठिन मूल तत्व इस फ़िल्म में बखूबी मिलते हैं.
बहरहाल, आनन-फानन में अली से अपनी बहन का जूता खो जाता है, जिसे वो मरम्मत के लिए ले गया था. घर में बवाल से बचने के लिए उसे ज़ाहरा को मनाना पड़ता है कि वो अम्मी-अब्बू से कुछ भी न कहे. एक ही जूते से काम चलाते हैं दोनों, दौड़-दौड़ कर जूते बदलना और अपने-अपने स्कूल जाना-आना, ये भाई-बहन के जीवन का हिस्सा बन जाता है. बीच में दोनों में मनमुटाव भी होता है, लेकिन समझदार अली को सब कुछ बखूबी हैंडल करना आता है. छोटी बहन को समझा कर वो मसले सुलझा लेता है.
दोनों के जीवन का एक ही उद्देश्य 'अब' रह गया है किसी भी भांति जूते हासिल करना, चाहे पुराने चाहे नये. इसी तरह की भागदौड़ में एक दिन उन्हें अपनी पुराने जूते मिलते भी हैं, ज़ाहरा के ही स्कूल में पढने वाली एक लड़की के पैर में. तहकीक़ात में पता चलता है कि उस लड़की ने ये जूते एक कबाड़ीवाले से खरीदे थे और लड़की की हालत काफ़ी ख़राब है इसलिए वे उससे जूते वापिस हासिल करने का ख्याल छोड़ देते हैं. अरे भाई, ये बच्चे भी समझदार हैं.
अली तो जैसे इस भाग-दौड़ में अपनी खुशियों को भूल चुका है, उसके दोस्त रोज़ नई-नई टीमों को फ़ुटबाल में हराने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि अली इनसे अलग अपने आप को एक दूसरे मायाजाल में स्थापित कर चुका है. घर की हालत काफ़ी ख़राब है, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए सोचना पड़ रहा है.
लड़के को अपनी भागाभागी पर इतना भरोसा है कि वह एक ओपन रेस में हिस्सा लेने के लिए अपने खेल के टीचर को मना लेता है, पढने में ये लड़का तो है ही लाजवाब. रेस में दौड़ने का बस एक ही कारण, तीसरे स्थान पर आने वाले प्रतिभागी को एक जोड़ी खेलने वाले जूते दिए जायेंगे, इसलिए अली दौड़ जाता है. बड़ी ही कूटनीतिक चालों का इस्तेमाल करते हुए वो ख़ुद को पहले या दूसरे स्थान पर आने से रोकता है, लेकिन इतनी लम्बी रेस में अपने दिमाग पर नियंत्रण खो बैठता है और रेस में पहले स्थान पर आ जाता है (दुःखद), लेकिन ऐसी फ़िल्मों के अंत के नियम के अंतर्गत सारी समस्याओं का अंत होता है, वो जूते नहीं हासिल कर पाकर भी काफ़ी ज़रूरी चीज़ें हासिल कर लेता है. नौकरी की तलाश में भटकता पिता अच्छी सी कमाई करके अपनी बच्ची के लिए एक जोड़ी जूते भी ले आता है और वो सारी चीज़ें भी, जिसके लिए उसने अली से साइकिल दुर्घटना के ठीक पहले वायदा किया था.
फ़िल्म की शूटिंग तेहरान की तंग गलियों में हुई है, यहाँ आपको एक खुला माहौल देखने को नहीं मिलेगा, जहां लैंडस्केप की उन्मुक्तता नहीं होगी. यहाँ कई अलग-अलग और छोटी-छोटी समस्याएँ नहीं हैं पूरी कहानी जूते पर केन्द्रित है और उससे जुड़ी समस्याओं पर. एक बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि मजीदी ने इस फ़िल्म की अधिकतर शूटिंग के दौरान कैमरे और क्रू को छिपा के रखा था ताकि लोगों के सामान्य भाव कैमरे में कैद हो सकें.
फ़िल्म में आये कुछ प्रकरण-दृश्य (बड़े ही साधारण से) दिमाग के एक बड़े हिस्से में घर कर गये हैं, लेकिन इनका अपना प्रभाव बड़ा ही व्यापक है. जैसे, अच्छे नंबरों के लिए मिली पेन की अहमियत अली के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वो ज़ाहरा को पेन एक रिश्वत के तौर पर दे देता है. एक बार अपनी-अपनी कापियों पर लिख-लिख कर एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं कि अब आगे स्कूल बिना जूतों के स्कूल कैसे जाया जाये और वे दोनों अपने अब्बू के द्वारा ध्यान से 'वॉच' किये जाते हैं. जूते का नाली में गिर जाने वाला सीन भी सुन्दर है, लेकिन इस दृश्य की तीन-चार फ़िल्मों में वाहियात नक़ल देख़ मूल सीन कलेजे से उतर गया.
एक मित्र से बात हो रही थी कि मजीदी की फ़िल्में मूलतः कैसी हैं? जनाब ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ ज़वाब दिया...उनके अनुसार इनकी फ़िल्में कम मसालेदार गोश्त की माफ़िक हैं, जिनके पाचन में कोई समस्या नहीं आती है. इस जवाब को मैं आजकल कुछ दोहराने लगा हूँ.
प्रियदर्शन की हाल ही में एक फ़िल्म आई है बम बम बोले.... ये फ़िल्म मूलतः क्या है इसका कोई अंदाज़ नहीं लग पाता है. डायलॉग तक नक़ल किये गये हैं और नाम दिया गया कि यह फ़िल्म चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन से प्रभावित है, क्या प्रभावित फ़िल्में इस हद तक प्रभावित होती हैं? इतना ही या कहें एकदम ऐसा ही प्रभाव किसी दक्षिण भारतीय फ़िल्म में मैंने देखा था, जिसका नाम याद नहीं है और याद रखना चाहता भी नहीं हूँ.
एक बात तो इस तरह की बातों से खुलकर सामने आई कि ईरान की फ़िल्में किस तरह से दुनिया भर की फ़िल्मों को "प्रभावित" कर रही हैं और फ़िल्मों के लिए नये मानकों की स्थापना कर रही हैं .