नोट: इस पाठ्यांश के सारे पात्र सत्य हैं. आशाओं के विपरीत, कल्पना से इनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है.
संधू (मदारी): अबे! तू इतना घबराया क्यूँ है…
करीम (बन्दर): कुछ नहीं सरकार! बस गर्मी है
संधू: नहीं लगती तो बात कुछ और है…छिपाता क्यूँ है बे…
करीम: डर लगता है सरकार…कही चुप न करा दिया जाऊं
संधू: डर मत… मैंने हाथ डाला है तेरे पर…बे-झिझक बोल.
करीम: सरकार मैं कल फिलिम देखने गया था..इश्किया
संधू: तुझे ये बताने में डर लग रहा था,
- नहीं
– तब?
– उसके पहले मैं कमीने देखने गया था.
– तो
– बड़ी ही वाहियात फिल्म निकली.
संधू: काहे…क्या हो गया…
करीम: विशाल भारद्वाज के नाम में लपेटा कर मॉल में २५० रुपये खर्च कर दिए….खर्च क्या हुए उड़ गए…अब मलाल हो रहा है कि २५० में कोई १०-१२ सीडी ही खरीद कर घर पर आराम करता.
संधू: तफ़सील से बताओ कि हुआ क्या…
करीम: तक़लीफ़ होती है सरकार..मक़बूल और ओमकारा के बाद मुझे लगा कि कुछ अच्छा आया होगा…चला जाये, थोड़ा देखेंगे, जानेंगे, समझेंगे, आनंद उठाएंगे….लेकिन इश्किया में प्रेम और स्त्री का इतना घिनौना रूप देखकर उबकाई आ गई.. ये आदमी तो अपनी बनायीं हर चीज़ को भुनाता रहता है, इसने अब एक ढर्रा अपना लिया है कि अब आप इसकी हर फिलिम को ओमकारा या मक़बूल समझेंगे या समझना चाहिए..
संधू: और वो दूसरी वाली….
करीम: कौन सी .. कमीने!…कहानी और संवाद समझ में आ जाएँ तो कहिये..’स’ और ‘फ’ के बीच सामंजस्य बिठाने में सारी कहानी बीत जाती है…इसमें भी ‘स’ को ‘फ’ बोला जाना भुनाया गया है..
अब तो डर लगता है सरकार कि कहीं इतने अच्छे फिल्म निर्देशक का पूरी तरह अंत न हो जाये..अच्छे विषयों पर घटिया सा निर्देशन करके ये हम लोगों को पता नहीं क्या दिखाना चाहता है..
अब अगर मक़बूल और ओमकारा सरीखे पैमाने पर विशाल की अगली फिल्मों को रखा जाये तो यह मालूम होता है कि वे अभी शेक्सपीयर के प्रभाव से नहीं निकल पाए हैं.वही भागती कहानी, स्त्री का चरित्र और प्रेम….
संधू: मैंने कुछ दिनों पहले एक पत्रिका पढ़ी थी, उसी में कुछ ऐसा प्रश्न था जो मैं तेरे से पूछता हूँ, तेरे हिसाब से ओवररेटेड फिल्म-व्यक्तित्व कौन है..एक तो विशाल भारद्वाज और उसके अलावा.. करीम: रहमान और वो सफ़ेद कुर्ते वाला बूढा..
संधू: कौन बे…
करीम: नाम नहीं याद आ रहा है….अरे वही जिसने इब्ने-बतूता लिखा है…माफ़ करो, चुराया है..
संधू: हा हा हा हा!! गुलज़ार साहब..
करीम: साहब क्यों लगाते हो गुरु…छोड़ो अभी रहमान के बारे में फिर कभी बात करूंगा..
संधू: तब बोलो..
करीम: गुलज़ार डराता है, सपनों में आता है, पागल कर देता है…चोरी और फालतू की हरक़तें करके इसने ख़ुद अपनी साख़ को धूमिल कर दिया है. न्यू वेव की बात तो कुछ और ही थी लेकिन बाद में ये भी विशाल भारद्वाज हो गया है.रचनात्मकता का अंत हो गया है.
इसके प्रभाव में दूसरे तगड़े और युवा रचनाकार डरे-सहमे से रहते हैं.
संधू: अबे कुछ अच्छा भी बोल..
करीम: ओमकारा देखना के बाद मैंने नाटकीय तरीके से लंगड़ा त्यागी का चरित्र अपनाया था. इन फिल्मों में शेक्सपीयर के नाटकों को आमजन के सामने बड़े ही बेहतरीन तरीक़े से रखा गया है. इनकी फिल्मों का संगीत कल्पनातीत ढंग से अच्छा होता है…बस विशाल के गानों से मेलोडी का एहसास नहीं मिल पाता है..फिर भी इश्किया का संगीत बहुत सुन्दर है खासकर दिल तो बच्चा है जी और अब मुझे कोई गाने बहुत ही प्यारे हैं.
संधू: चल अब काफी आराम हो गया…अपनी कहानी दुनिया को बता दे..खेल शुरू करते हैं..
करीम: हाँ सरकार.. मैं भी अब सात खून माफ़ करने/देखने का साहस जुटा रहा हूँ…