मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

नॉस्टेलजिक सरगम….

मुझे समय का सटीक अंदाज़ तो नहीं है, लेकिन इतना सही-सही याद है कि हमारे पुराने घर में बुश (हाँ, शायद यही) का टेलीविजन था, जिस पर मैंने पहली बार “मिले सुर मेरा तुम्हारा” और “बजे सरगम हर तरफ़ से” का दीदार किया. उस समय इन्हें समझना शायद मुश्किल था, सो नहीं समझ पाया और बाद में, नए घर में आने के बाद केबिल कनेक्शन यानी फ़िल्मों और कार्टून का दीवाना हो गया.

पुराने घर में “बजे सरगम…” से ज़्यादा मज़ेदार होता था “मिले सुर…” देखना, क्योंकि “मिले सुर…” में ऐसे चेहरे होते थे जिन्हें पहचानना आसान होता था, मसलन, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, वहीदा रहमान….और भी कई. याद है कि “बजे सरगम…” में विचित्र वीणा बजाते बूढ़े को देखकर मैंने अपनी दीदी से कहा था कि इनका चंडूल तो वीणा के तम्बूरे जितना ही चमकदार है, ख़ैर…. “बजे सरगम…” में मैं तो एक ही को पहचान पाता था, और वो थे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन. कई बार भाई से इनके बारे में सुना था तो जानता था, और शायद इसीलिए मुझे उस्ताद जाकिर हुसैन के स्वर-संगत तबले का और अपने गाँव के बड़के बच्चा सरीखे दिखने वाले बांसुरी बजाते हरिप्रसाद चौरसिया का इंतज़ार रहता था. बहरहाल, कार्टून ने काफ़ी समय के लिए इनसे दूर कर दिया.

साल २०१०, महीना मार्च, दिन याद नहीं, समय सुबह ८:०० बजे के आस-पास, चैनल पलटते-पलटते दूरदर्शन पर ठिठक गया और फिर से – कम से कम १० साल बाद – “बजे सरगम हर तरफ़ से”. इस समय मैं रो रहा था, सब कुछ याद कर-करके, मुझे वो सारी चीज़ें याद आ रही थीं जो बहुत दिनों तक किसी भूलभुलैया में गुम हो गयीं थीं. इस बार मुझे सारे लोगों के नाम याद थे, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा, भीमसेन जोशी, ज़ाकिर हुसैन – अपने अब्बा के साथ, और भी कई. इस बार मुझे वक़्त का इल्म हुआ क्योंकि मैंने लगभग पांच साल पहले अपने शहर में होने वाले गंगा महोत्सव में बांसुरी बजाते बूढ़े हरिप्रसाद चौरसिया को देखा था और “बजे सरगम..” में हरिप्रसाद (लगभग) एकदम जवान हैं.

इस समय मेरे आसपास मौजूद लोग – अगर सचमुच मौजूद होते – देख सकते थे मेरे अन्दर की खीझ, मेरा अपने-आप को याद करना, मेरे खुद की लड़ाई अपने भीतर के कार्टूनी पुरुष से. ये कोई ह्रदय परिवर्तन नहीं था, ये बस एक त्रास था शायद अपने आप को खोने का.

कविता कृष्णमूर्ति के शुरू में आने वाले सुर आपको अन्दर तक भिगो देते हैं, शुरुआत में तो हरिप्रसाद चौरसिया संगीत में एक वजन के लिए एक लम्बी और  मोटी बांसुरी लेकर आते हैं लेकिन अंत में कुछ ही स्वरों के बीच खेलने के लिए एक बड़ी ही महीन सी आवाज़ वाली और पतली-छोटी बांसुरी लेकर आते हैं, शिवकुमार शर्मा भी अंत में संतूर पर अपने हाथ तेज़ कर देते हैं, अमज़द अली खां भी अकेले बजाते-बजाते अंत में कई सारे बच्चों के बीच आ जाते हैं. मैं बार-बार ये अंत-अंत इतना क्यों कर रहा हूँ….क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इस अलौकिक वास्तविकता का अंत हो. शायद एक ही बात जो ख़राब लगती है वो अंत में बच्चों का मोमबत्तियां जलाना, ये मुझे अपने बचपन से ही थोड़ा अटपटा और सारे संगीत को ख़त्म करता जान पड़ता है.

अगर ब्यौरेबाज़ी की जाये “मिले सुर…” की तो ये भी काफ़ी सुन्दरता समेटे हुए है लेकिन ओहदे में “बजे सरगम…” से थोड़ा नीचे है. इसकी शुरुआत होती है समुद्र की ताज़ा-तरीन लहरों और झरनों के साथ फिर आते हैं भीमसेन जोशी अपनी दहाड़ती आवाज़ में, बीच में अपनी दाढ़ी की खूबसूरती के साथ ‘तमस’ के ओमपुरी भी मिलते हैं. भाग्यश्री और कमल हासन एकदम आम लोगों के बीच मिलते से मिलते हैं. “मिले सुर….” जो सबसे खूबसूरत बिम्ब बनाता है वो है एक ही पंक्ति का कई भाषाओँ में गाया जाना. मेरे अनुमान से इसे भारतीयता से जोड़ा जाना ज़्यादती है, ये तो सिर्फ़ और सिर्फ़ संगीत की बात करता है.

“मिले सुर…” के बारे में ज़्यादा नहीं लिख सकता क्योंकि इसे और “बजे सरगम…” को एक ही पैमाने पर रखने में असहजता होती है, नायक-नायिका के जीवन से जुड़ी बातों का ख़ुलासा करने वाले चैनल ने इसका ‘पुनर्निर्माण’ “फिर मिले सुर,,,,” के नाम से किया, और कल्पनातीत ढंग से इसका कबाड़ा हो गया. बहरहाल, आप को छोड़ जा रहा हूँ “बजे सरगम….” और “मिले सुर…” के इस कटे-छंटे वीडियो के साथ…


10 टिप्पणियाँ:

anurag vats ने कहा…

kya khoob yaad dilai siddhant babu…ham sab yahi sunte bade hue the…

E-guru Rajeev ने कहा…

हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं ई-गुरु राजीव हार्दिक स्वागत करता हूँ.

मेरी इच्छा है कि आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए. यह ब्लॉग प्रेरणादायी और लोकप्रिय बने.

यदि कोई सहायता चाहिए तो खुलकर पूछें यहाँ सभी आपकी सहायता के लिए तैयार हैं.

शुभकामनाएं !

“टेक टब” – ( आओ सीखें ब्लॉग बनाना, सजाना और ब्लॉग से कमाना )

vyomesh shukla ने कहा…

बढ़िया याद. लेकिन विश्लेषण भी चाहिए.

sameer ने कहा…

बड़ी पुरानी यादों मे ले गये. आभार.

संगीता पुरी ने कहा…

इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

khushdeep Sehgal, Noida ने कहा…

तुम्हारी इस पोस्ट ने कमलेश्वर जी के कार्यक्रम ज़रा सोचिए की याद दिला दी…इसमें बड़े सटीक तरीके से पानी की बर्बादी, बिजली के दुरुपयोग जैसे छोटे छोटे मुद्दों को दिखाया जाता था…दर्शक वाकई कुछ सोचने को मजबूर हो जाता था…

जय हिंद…

manika ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट! आपकी पहली पोस्ट ने ये तो बता ही दिया था की आप हमेशा कुछ हो चुके में से कुछ नया और निराला ढूंढ कर निकालेंगे, आपके अनुरोध पर हमने अप देखी, और अब आपने ही हम सबको एक पुरानी और बहुत ही खुशनुमा सोच में डाल दिया, खुशनुमा इसलिए क्योंकि ये बचपन की याद दिलाता है| बहुत बहुत बधाइयाँ आपकी दूसरी सफल और सुन्दर पोस्ट के लिए|

Narendra Nirmal ने कहा…

कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,

धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,

कलम के पुजारी अगर सो गये तो

ये धन के पुजारी वतन बेंच देगें।

हिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज “जनोक्ति “आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . नीचे लिंक दिए गये हैं . http://www.janokti.com/ , साथ हीं जनोक्ति द्वारा संचालित एग्रीगेटर ” ब्लॉग समाचार ” http://janokti.feedcluster.com/ से भी अपने ब्लॉग को अवश्य जोड़ें .

Jagriti ने कहा…

looking to your blog one can say that in the coming era Ssiddhant Mohan will achieve a peak. May god keep blessing you with showers of success and prosperity.All the best for next post

Udit ने कहा…

very good , good thouts , keep it up!!