शनिवार, 21 जून 2014

ज्ञानपीठ पुरस्कार पर एक भिन्न पकड़ - अविनाश मिश्र

[४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार वरिष्ठ हिन्दी कवि केदारनाथ सिंह को दिए जाने की घोषणा हुई है. इसके साथ एक ऐसा एकाकी समाज सामने आ गया है, जहां किसी को भी इस पुरस्कार से कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन बीते कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ का हिसाब देखें तो यहां से निकलने वाले सम्मानों-पुरस्कारों के सामने दृष्टिहीन हो जाना पड़ता है. ये अनियमितता से भरे हुए हैं, यहां कुछ भी कभी भी हो जाता है और तमाम जोड़तोड़ सामने आते ही रहते हैं. इस क्रम में यदि हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि को शामिल कर दिया जाता है तो जर्जरनामा और व्यापक हो जाता है और इस परम्परा पर अविश्वास थोड़ा और बढ़ जाता है. समय यदि उस कवि के सम्मान का होता है तो उसे कमतर आंकने का भी बन जाता है. बाहर से दिखे या न दिखे लेकिन यह कालखंड बहुकोणीय है. चुनने और लक्षित करने का यही समय क्यों? फ़िर भी कुछ प्रश्न हैं, जिन पर अविनाश मिश्र ने कलम चलाई है. बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]


व्यक्तिपूजन से हटकर

अविनाश मिश्र


‘अभाव से उपलब्धि उपजती है और उपलब्धि से अभाव...’
                                                                                   —लाओत्से

‘बधाई’

ऊपर उद्धृत लाओत्से के वाक्य से नहीं, मुझे ‘बधाई’ से ही शुरू करनी चाहिए यह प्रतिक्रिया, जैसे कभी-कभी कुछ प्रेमीजन अपनी प्रेमिका के तलवों शुरू करते हैं रतिक्रिया। ‘49वां भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान समादृत कवि केदारनाथ सिंह को’, इस खबर से फेसबुक के ‘भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन’ एक ‘अजीब-सी चमक’ से भर उठा। ‘बधाई’ की अंतरव्याप्ति यहां प्रस्तुत प्रसंग में बहुत अर्थपूर्ण और गहरी है। बधाइयों का सिलसिला देर रात तक चलता रहा...। युवा कवि-उपन्यासकार हरेप्रकाश उपाध्याय ने तो सारी बधाइयों को जोड़कर कुछ यूं प्रस्तुत किया—बधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाई। बाद इसके उन्होंने इसे अलग-अलग कर कई जगहों पर बांटा, जैसे यह ‘बधाई’ नहीं मिठाई हो...। यहां यह गौरतलब है कि इससे ठीक पहले हरेप्रकाश उपाध्याय को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा हो चुकी है।

‘पहल’ के संपादक कथाकार ज्ञानरंजन ने कहा है कि ‘हिंदी में मरण का बड़ा महात्म्य है...।’ हिंदी में पुरस्कार भी सृजनात्मक रूप से रचनाकार के मरण के ही सूचक हैं और इनका महात्म्य अब हिंदी में कोई अलग से रेखांकित करने की चीज तो है नहीं, इसलिए इस पुरस्कार-प्रसंग-प्रतिक्रिया को निर्मम नहीं होना चाहिए। तब तो और भी नहीं जब यह पुरस्कार साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार हो और तब तो और भी नहीं जब यह आपकी ही भाषा के एक कवि को मिला हो और तब तो और भी नहीं जब कवि सवर्ण हो और तब तो और भी नहीं जब वह आपके के ही प्रदेश का हो और तब तो और भी नहीं जब आप उसके छात्र रह चुके हों और तब तो और नहीं जब आप उसकी कविता की भद्दी नकल करते रहे हों और तब तो और भी नहीं जब वह इस उम्र में भी आपको लाभ पहुंचाने की स्थिति में हो और तब तो और भी नहीं जब खुद उसने गए कई वर्षों से अपना आभामंडल एकदम ज्ञानपीठ पुरस्कार के सुपात्र के रूप में गढ़ लिया हो...। हालांकि यह अलग से चर्चा का विषय है, लेकिन इस तथ्य को भी यहां याद कर लेना चाहिए कि बहुतेरे प्रसंगों में केदारनाथ सिंह ने बहुतेरे निकृष्ट कवियों को पुरस्कृत किया है।


केदारनाथ सिंह के कवि पर अगर दस पंक्तियों का एक निबंध लिखना हो तो वह कुछ यूं होगा :

  1. वर्ष 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह ने विधिवत काव्य-रचना 1952-53 के आस-पास शुरू की।
  2. उनका पहला कविता-संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’ वर्ष 1960 में प्रकाशित हुआ।
  3. उन्हें एक साथ गांव और शहर का कवि कहा जाता है।
  4. उनके काव्य-संसार में एक प्रयोजनमूलक सरलता दृश्य होती है।
  5. उनकी कविता कहीं भी एकालाप नहीं है।
  6. उनकी कविता अपने समय-समाज से एक लयपूर्ण संवाद है।
  7. उन्होंने अपनी कविता में कामचलाऊ शब्दों को एक मार्मिक जीवंतता दी है।
  8. उनके काव्य-पंथ ने हिंदी में अपने कई अनुयायी उत्पन्न किए हैं। 
  9. उन्हें ‘अकाल में सारस’ के लिए वर्ष 1989 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  
  10. समग्र साहित्यिक-अवदान के लिए उन्हें वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।


‘अब लौट आओ
तुमने अपना काम पूरा कर लिया है
अगर कंधे दुख रहे हों 
कोई बात नहीं
यकीन करो कंधों पर 
कंधों के दुखने पर यकीन करो’ 

ऊपर उद्धृत पंक्तियां केदारनाथ सिंह द्वारा वर्ष 1977 में लिखी गई कविता ‘चट्टान को तोड़ो वह सुंदर हो जाएगी’ से हैं। इस कविता के अंत में कवि एक और नई चट्टान की खोज में अपना यकीन जाहिर करता है। आधी सदी से भी अधिक की केदारनाथ सिंह की कविता-यात्रा कई स्मरणीय कविताओं और काव्य-पंक्तियों से बुनी हुई है। मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद वह आजाद भारत की हिंदी में अब तक सबसे ज्यादा बार उद्धृत किए गए हिंदी-कवि हैं। ‘हाथ’ और ‘जाना’ जैसी लगभग साढ़े तीन दशक पुरानी और शब्द-संख्या के लिहाज से बेहद छोटी कविताएं अब तक पुरानी नहीं पड़ी हैं, और लगभग इतनी ही पुरानी कविता ‘बनारस’ की फरमाइश भी अब तक जारी है। ‘सूर्य’, ‘रोटी’, ‘तुम आईं’, ‘बारिश’, ‘टूटा हुआ ट्रक’, ‘फर्क नहीं पड़ता’ जैसी कविताएं केदारनाथ सिंह की कविता के मुरीदों के लिए जीवन भर की स्मृति हैं। लेकिन लोकप्रिय-प्रासंगिकता अपना मूल्य भी मांगती है और केदारनाथ सिंह इसके प्रमाण हैं। वह निर्विवाद रूप से हिंदी के एक श्रेष्ठ कवि हैं, लेकिन एक ऐसे श्रेष्ठ कवि जिनका दशकों से कोई उल्लेखनीय काव्य-विकास नहीं हुआ है। उनके नवीनतम कविता-संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ को इस तथ्य की तस्दीक के तौर पर पढ़ा जा सकता है।


गए कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से कुछ कमतर प्रतिभाओं को भी नवाजा गया है। इस पुरस्कार की ख्याति इस रूप में भी रही है कि यह प्राय: ऐसे ही रचनाकारों को मिलता आया है जिनके बारे में साफतौर पर यह मान लिया जा चुका होता है कि रचनात्मक-उत्कर्ष के स्तर पर ये अपना चूड़ांत बहुत पहले ही छू चुके हैं...। इस तरह से देखें तो ज्ञानपीठ पुरस्कार केदारनाथ सिंह के बहुत पहले ही चुकने की पुष्टि करता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह पुरस्कार कई वर्षों से साहित्य-समीर में व्याप्त इस तरह की तमाम वाचिक सच्चाइयों पर ऐतिहासिक और प्रामाणिक मुहर है। यहां आकर केदारनाथ सिंह का वह काव्यात्मक-संघर्ष समाप्त होता है जो एक लंबे अर्से से औसत की बहुलता से ग्रस्त रहा है।