
(देखिए! मजमून साफ़
है कि यदि अपने कविता संग्रह 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे'
पर उमाशंकर चौधरी को साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार न मिला होता,
तो शायद इस क़िताब और माज़रे पर लिखने-छापने की कोई ज़रूरत ही नहीं
होती. एक लंबा वक्त बीता, दूसरा पुरस्कार भी घोषित हो चुका है, लेकिन एक प्रतिष्ठित पुरस्कार के नए और अपेक्षित संस्करण का आगाज़ इस
बेरहमी और नादानी के साथ होगा और यह इस तरीके से धड़ाम होगा, इसका
अंदाज़ न था. यहाँ बात बरास्ते अविनाश मिश्र आई
है. इन बातों के महत्त्व को 'कौन है यह लड़का?' या 'किस ज़मीन पर है यह?' सरीखे
आश्चर्यों/प्रश्नों की आड़ में मुँह छिपाकर दबाने वाले लोगों से बुद्धू-बक्सा का
कोई रिश्ता मुक़म्मल नहीं हो सकता है. यह एक ज़रूरी हस्तक्षेप है. 'समकालीन सरोकार' में कुछ दिनों पहले प्रकाशित,
वहीँ से साभार.)
कहते हैं तब अच्छे
कवि सो रहे थे
यहां एक 'वह' है। एक
युवा लेखक उमाशंकर चौधरी हैं, इन्हें हिंदी के लगभग
सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं, जो इस उम्र तक
मिला करते हैं, जिस उम्र में वे हैं। यहां इनके 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' और 'ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मान' प्राप्त कविता संग्रह 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे'
की कविताओं के बहाने कविता पर कुछ नोट्स हैं। लेकिन सनद रहे कि ये
नोट्स केवल इस संग्रह पर 'ही' नहीं हैं,
बल्कि इस संग्रह पर 'भी' हैं। यहां एक युवा समय है। कुछ सामयिक पूर्वज
हैं। यहां एक अंतरपाठ है और एक विभक्त्तता भी... यहां यह कहने का अर्थ यह है कि सब
कुछ को अलगाते हुए पढें हो सकता है कि संभवत: कहीं कुछ जुड़ जाए ...
इन्हें
प्रतिक्रियाएं कतई न समझा जाए। ये 'आमबोलचालकीभाषा' से वंचित एक
भाषा में विवादास्पद हो जाने की कुछ निष्कलुष इच्छाएं भर हैं। स्वयं को व्यक्त
करने की यह तमीज नगर के उन गोशों में सीखी है उसने जहां कुछ बहसबाजों ने महज इसलिए
उस पर तमंचे तान दिए थे, क्योंकि उसने स्त्रियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के रुदन को एकांगी, अर्थवंचित
और बेमौजूं कहा था। वे तो उसे मार ही देते मगर ऐन वक्त पर 'जेएनयू'
का आई कार्ड काम आ गया।
उसके
विश्वविद्यालय उसे लगातार कमजोर करते चले गए हैं। उसे कोई मदद, कोई उम्मीद नजर नहीं आती
प्राध्यापकीय समझ और व्यवहार में। वे एक निरंतरता में उसकी भाषा और जीवनबोध को
सीमित या कहें नष्ट कर रहे हैं। इस तरबियत से ऊबकर वह अब जाए तो कहां जाए ?
वह 'जेनुइन' कवि होना
चाहता था, 'जेएनयूइयन' कवि हो गया है।
प्राध्यापक
सब वक्त यहां-वहां उसकी प्रशंसा किया करते हैं। एक रोज बीस कवियों के क्रम में
अपना नाम देखकर वह घर मिठाई लेकर पहुंच गया। घर में दुःख और रहस्य हैं जो घर की
दहलीज से बाहर निकलकर सृष्टि के असंख्य दुःखों और रहस्यों से एकाकार होते हैं...
जहां कविताएं कुलबुलाती रहती हैं प्रकाशन के लिए। वे एक रोज प्रूफ की बेशुमार
गलतियों, गलत
पते, गलत परिचय और एक धुंधली तस्वीर के साथ धूसर पृष्ठों पर
एक गलत परिदृश्य रचतीं और रचनात्मकता को अवकाश बख्शती हुईं प्रकाशित होती हैं। यह
एक साथ व्यक्त व वर्जित होना है। महत्वाकांक्षाएं तुच्छ और संभावनाएं समाप्त हो गई
हैं। यह युवा समय है और वह एक युवा कवि है।
लेकिन
वह एक वास्तविक कवि बनना चाहता था और पूर्वजों में उसका यकीन विस्लावा
शिम्बोर्स्का के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि मजबूत, अंधा और बेबुनियाद था...। वे
कभी उसे सही नहीं ठहराते थे, क्योंकि वे हड़बड़ियों के अंत से
परिचित थे और अंतत: उसके शुभ की कामना करते थे। एक समालोचक का यही व्यक्तित्व होता
है।
ऐसे
ही उसके एक पूर्वज थे- कवि व समालोचक और उसे अत्यंत प्रिय। कविताएं पढ़ते हुए उनकी
आंखें भीग जाती थीं। यह एक मृतप्राय मगर दुर्लभ व विश्वसनीय काव्य समझ थी। वे कोई
प्राध्यापक नहीं थे कि विन्रमता और मक्कारी दोनों को एक साथ जीएं। वे हो चुके, हो रहे और होने वाले कई कवियों
के लिए जानलेवा थे और वह बेयकीनी की हद तक उनसे मुतासिर था।
वह
उन्हें अपनी कविताएं दिखाना चाहता था। कुछ वक्त और बहुत सारी कोशिशों के बाद यह
संभव हुआ। वे बहुत ऊंचाई पर थे और उस रोज लिफ्ट खराब थी। वह धीरे-धीरे सीढ़ियां
चढ़कर डोर बेल तक पहुंचा। वह थोड़ा हांफ और बहुत भीग गया था। उसने चप्पलें बाहर उतार
दीं और दस्तक देकर घुसा पुस्तकों के प्रकाशित और पांडुलिपियों के अप्रकाशित एक
संसार में। कमरे में एअरकंडीशनर था मगर वे उसे कुछ देर चलाकर कुछ देर के लिए बंद
कर देते थे। उसके लिए यह सब कुछ वैसे ही था जैसे बचपन में पैदल चलकर बचाए गए पैसे
से आइसक्रीम खाना। पानी पीने और कॉफी-स्नैक्स आने के दरमियान वह क्या करता है, कहां रहता है, क्या पढ़ता है... जैसे बेतुके सवालों के जवाब देने के बाद और वे फैज और सर्वेश्वर को सख्त नापसंद करते हैं, यह सुनने के बाद वह
एकदम से मुद्दे पर आ गया और उसने कहा- सर, मैं अपनी कुछ
कविताएं दिखाना चाहता हूं आपको ? वे बोले- हां... हां क्यों
नहीं...।
...कुछ
समय बाद वह एक बार और उस कक्ष में था। एअरकंडीशनर चल रहा था। फैक्स मशीन यथावत थी।
लैपटॉप खुला हुआ था और उसकी स्क्रीन पर एडवर्ड मुंच की बनाई पेंटिंग 'दि स्क्रीम' थी। लेकिन उस रोज वहां जो घटा वह एक
बेहद पुराने हादसे की तरह था। इस पुरानेपन में पंद्रह बरस के 'सआदत यार खां' एक गजल सुधार के लिए बहुत अदब से 'मीर तकी मीर' के पास गए थे और मीर ने गजल सुनकर कहा
था- साहबजादे आप खुद अमीर हैं और अमीरजादे'ह हैं, नेज:बाजी, तीरंदाजी की कसरत कीजिए। शाइरी दिलखराशी
और जिगरसोजी का काम है, आप इसमें तकलीफ न कीजिए...। जब
साहबजादे ने बहुत आग्रह किया तब मीर ने फरमाया कि आपकी तबीअत इस कला के योग्य नहीं,
यह आपको नहीं आने की, बेकार ही मेरी और अपनी
औकात खोनी क्या जरूरी है।
उसके
प्रिय कवि और समालोचक उस रोज मीर के किरदार में थे और वह उस बदनसीब साहबजादे के।
उन्होंने उसके सामने ही उसकी कविताएं उनके हिसाब से इन कविताओं के लिहाज से एक सही
जगह यानी कि 'डस्टबिन'
में डाल दीं। उसने डेरे पर आकर उन कविताओं की छाया प्रतियां भी जला
दीं। पूर्वजों में उसका यकीन असद जैदी के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि यकीन
न कर पाने के दुःख में और यकीन कर लेने की कमजोरी में था...।
पूर्वज
उसे पूर्वाग्रह की हद तक प्रिय थे। लेकिन वह कवि कहलाना चाहता था। अपने प्रिय कवि
और समालोचक के लगभग असहनीय परामर्श के पश्चात उसने हिंदी में 'काव्यतंत्र' पर पहली बार और स्व अध्यवसाय पर आखिरी बार सोचा। एक समयांतराल के बाद उसकी
बुझ चुकी कविताएं फीनिक्स की भांति पुनर्जीवित हुईं और वह हिंदी में एक चर्चित
युवा कवि के रूप में स्वीकार्य हुआ...।
आज
में उन सारे शारीरिक रूप से अपंगों का साथ चाहता हूं
ताकि
मैं देख सकूं कि मेरे कमजोर पड़ने की आदत
या
कर्तव्य से डिगने की आदत
मुझे
उससे भी और अधिक पंगु नहीं बना गई है...
ऊपर
दी गईं काव्य पंक्तियां उमाशंकर चौधरी की हैं। उमाशंकर की कविताएं अब उमाशंकर के
साथ लिखने वाले और उमाशंकर के बाद लिखने वाले, दोनों ही तरह के कवियों के लिए एक मानक की तरह
हैं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है क्योंकि ये बहुत बेहतर हैं, बल्कि
ऐसा इसलिए है क्योंकि इन्हें इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया है। मैं नहीं जानता कि
इसकी सजा क्या होनी चाहिए, लेकिन यह एक अपराध है। गलत मानक
गढ़ना भविष्य की भ्रूण हत्या करना है। कई दशकों की सतत चुप्पी के बाद इधर कुछ समय
से इस पर चर्चा हो रही है। और इस चर्चा में धीरे-धीरे ही सही कुछ प्रोजेक्टेड लेखक
छंटने शुरू हुए हैं। इन पर हमले जारी रहें तो ये सुधर सकते हैं और यह गलत
प्रवृत्ति थम सकती है। फिलहाल इस भाषण के बाद यदि उमाशंकर के कवि पर बात करें तो
कह सकते हैं कि इस कवि के पहले काव्य संग्रह में कथ्य और शिल्प के स्तर पर वैसी ही
लापरवाही है जैसी प्रूफ के प्रति। बल्कि प्रूफ में थोड़ी कम और कविता के कविता बनने
में थोड़ी ज्यादा। यहां कविता संस्मरण और प्रवचन की संगबहिनी है। वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जो अपनी कविताओं और गद्य के साथ-साथ अपनी हंसी और
बेहद मीठी, मद्धिम, सुरीली और कृत्रिम
आवाज के लिए भी जानी जाती हैं, उमाशंकर चौधरी की कविता को इस
काव्य संग्रह के ब्लर्ब पर रघुवीर सहाय की परंपरा से जोड़ती हैं। 'जनसत्ता' के स्तंभ 'रंग-राग'
से पेस्ट किए गए इस ब्लर्ब और इस संग्रह की कविताएं पढ़ने के बाद
बेशक यह कहा जा सकता है कि अनामिका जी ने रघुवीर सहाय और उमाशंकर चौधरी दोनों में
से किसी एक को ही पढ़ा है। [यहां स्माइली :-) एड करें] कहा यह भी जा सकता है कि अनामिका जी गलतबयानी कर रही हैं। अनामिका जी
चाहतीं तो बगैर किसी का नाम लिए नामवर सिंह की तरह गलतबयानी कर बच सकती थीं,
जिन्होंने 'अंकुर मिश्र स्मृति कविता
पुरस्कार-2007' के निर्णायक के रूप में दी गई सम्मति में
उमाशंकर की कविताओं को मूल स्वर में राजनीतिक, विषय-वस्तु के
क्षेत्र में व्यापक, यथार्थवादी विचार व भाव के साथ
स्वाभाविक रूप से बेचैन कहा था। (गनीमत है कि उन्होंने कवि को मुक्तिबोध के आगे या
पीछे का नहीं कहा था।)
ये
सारी 'संपन्नताएं'
तो एक रिपोर्टिंग में भी होती हैं, लेकिन वह
कविता नहीं हो पाती। लेकिन कविता के फॉर्म में लिख दी रिपोर्टिंग को आजकल कविता के
तौर पर परोसा जा रहा है। उमाशंकर जैसे तमाम कवियों को यह समझ लेना जरूरी होगा कि
कविता रिपोर्टिंग भी हो सकती है, लेकिन रिपोर्टिंग ही कविता
नहीं होती। यह भी समझना चाहिए कि बेहद वैयक्तिक किस्म
के स्थूल ब्यौरों से तो रिपोर्टिंग का भी काम नहीं चलता।
संबंध, बाजार और राजनीति के देखे-भाले,
परिचित और प्रचलित दायरे में कैद उमाशंकर चौधरी की कविताओं में एक
भी पंक्ति ऐसी नहीं है जो अपने पढ़ने वाले की स्मृति में स्थायी हो जाए। ये कविताएं
नरेश सक्सेना के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि समय खराब करती हैं। उमाशंकर की
कविताएं यदि ये कविताएं हैं तो इनमें 'पठनीयता' नहीं है। वे बेतुके संदर्भों के साथ बेवजह लंबी होती चली गई हैं। यहां अधूरे ब्यौरे हैं और हिंदी में धड़ल्ले से कारगर सभी विमर्शों का
दुरुपयोग भी। इसे यदि भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत-प्रकाशित और साहित्य अकादमी ने
पुरस्कृत नहीं किया होता तो इस पर इतना लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। ऐसे निकृष्ट
मानक न गढ़े जाएं, इसके लिए जरूरी है कि 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे' की कविताओं का
छिद्रान्वेषण किया जाए और बताया जाए कि महज दृश्य-विधान कविता नहीं है। कविता सदा
दृश्य के पार बसती है, उसका दृश्य में पुनर्वास करना
कवि-कर्म कहलाता है। 'हम जो देखते हैं' (मंगलेश डबराल के शब्दों में नहीं) यदि वही कविता है तो हमको देखकर ही काम
चला लेना चाहिए, उसे कविता की शक्ल में कहीं दर्ज नहीं करना
चाहिए। लेकिन फिर भी यदि कोई ऐसा करता है तो इससे दृश्य का तो कुछ नहीं बिगड़ता,
मगर कविता बिगड़ जाती है।
उमाशंकर
चौधरी की इन कुछ और काव्य पंक्तियों के साथ उस 'वह' की कहानी के अंत की और
लौटते हैं-
मैं
अब गांव की वह पाठशाला नहीं जाना चाहता
जहां
शिक्षक हमें झूठ नहीं बोलना सिखाते हैं
मैं
चाहता हूं बढ़ई का हुनर सीखना
ताकि
एक दिन उस मनहूस सांकल को ही हटा सकूं...
...वह एक
चर्चित युवा कवि के रूप में स्वीकार्य था। लेकिन वह अब जल्दी-जल्दी ऊब रहा था। एक
अर्से से एक पंक्ति तक नहीं लिखी थी उसने। अंतत: प्रत्येक को 'स्व' के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है, लेकिन इस परिदृश्य में दूर-दूर तक बस पुरस्कार नजर आते हैं, जवाबदेही नहीं...। जैसे वह स्वयं से पूछता है कि आखिर एक कविता विशेषांक
में कई अफसरों की कविताएं क्यों हैं? क्यों एक हत्यारे के
काव्य संग्रह का लोकार्पण एक अतिवृद्ध वामपंथी आलोचक कर रहा है? क्यों एक विश्वविद्यालय का कुलपति 'स्त्री विमर्श'
को वेश्यावृत्ति कहता है? ऐसे कई 'क्यों' हैं, और इस 'क्यों' की वजह हैं वे महानुभाव जो लगभग पचास वर्षों
से हिंदी साहित्य के केंद्र में हैं। वे अब पूर्णत: अंधे हो चुके हैं। वे इतने
खराब और इतने सारे हैं कि कोई रचनात्मक व्यवहार
अब उनमें शेष नहीं। क्यों वे जीवन की तमाम रोशनाइयां गंवा बैठे। उसे वह समय भी याद
है जब वे युवाओं की बेहतर कृतियों का ऊंचा मूल्यांकन करते थे। उस वक्त की तफसील
में जाने का उसका कोई इरादा नहीं है, क्योंकि इससे यह सोच भी
जाती रहेगी जो बमुश्किल बच पाई है इस 'पुरस्कार व्यवहार'
के बावजूद।
जहां
तक पुरस्कारों का प्रश्न है तो वे हर घंटे दिए जा सकते हैं, दिए भी जा रहे हैं, भले ही वे ग्यारह रुपए के ही क्यों न हों। इससे रचनाशीलता को बढ़ावा मिलता
है, रचनाशीलता चाहे सतही क्यों न हो। आखिर इसका स्रोत भी तो
वही आत्मविश्वास है जो वह खो चुका है।
और
अब वह भी धीरे-धीरे अपने कई पूर्वजों के बीच एक पूर्वज होता जा रहा है-
इनमें
एक पूर्वज अतिवादिता के शिकार हैं, एक भाई-भतीजावाद के।
एक
को कोई नहीं पढ़ता, एक
किसी को नहीं पढ़ते।
एक
केवल नाम गिनवाते रहते हैं, एक सब
कुछ भूल चुके हैं।
एक
के गाल अब तक हद से ज्यादा लाल हैं।
एक
की आवाज तोतों जैसी है, एक की
औरतों जैसी।
एक
केवल 'अज्ञेय'
पर बात करते हैं, एक केवल कालिदास पर।
एक
की आखिरी किताब तुलसीदास पर होगी,
एक कबीर पर ही पांच पुस्तकें लिखना चाहते हैं।
एक
निर्मल वर्मा पर निष्कर्षात्मक हो चुके हैं, एक उदय प्रकाश पर शोधात्मक।
एक
केवल अनुशंसाएं लिखते हैं, एक
केवल ब्लर्ब।
एक
हर समय प्रवास में रहते हैं,
एक हर समय विवाद में।
एक
सभा-गोष्ठियों के दीवाने हैं,
एक स्त्री-देह के।
एक
कविता से घृणा करते हैं, एक
कहानी को साहित्य नहीं मानते।
इतने
एक हैं भी नहीं, शायद
वे एकमेक हैं।
ये
सब उसके सामयिक और जीवित पूर्वज हैं। ये सब जब मरेंगे तब यकीनन एक युग का अंत
होगा...।
फिलहाल
तो यह कविता में मिठाई लालों और स्वयंभू चौधरियों के सफल होने का युग है। आप इसका
कुछ नहीं कर सकते। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा कविता-समय ऐसे ही प्रयासों का
सिलसिला है। इस सिलसिले को ही फिलहाल जीतेंद्रीय होकर भारत भवन तक प्रतिष्ठित होना
है और फलतः उसे भारत भूषण के रूप में समादृत होते रहना है। गोरखपुर से भोपाल तक
वाया दिल्ली इसी कविता को गीत के तर्ज पर जो गायेंगे नहीं, शायद वे ही मारे जायेंगे और
शहंशाह जैसा कि कहा ही गया है कि सोते रहेंगे।