tag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post4684992229719587604..comments2023-06-09T19:20:40.264+05:30Comments on बुद्धू-बक्सा: मंगलेश डबराल की नई कविताएँUnknownnoreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-56226781851054547272012-11-27T11:25:24.407+05:302012-11-27T11:25:24.407+05:30फिर से पढ़ा एक बार . लगा अभी तो इन कविताओं के पंचम...फिर से पढ़ा एक बार . लगा अभी तो इन कविताओं के पंचम तक भी नहीं पहुँच पाया ठीक से . फिर से लगा कि इन्हे बार बार पढ़ना चाहिए . बिम्बों का रचाव इतना बारीक़ है कि शब्दों का अहसास ही नहीं होता . मानो सीधे चित्र आ रहे हों सामने . और ये चित्र जितनी बड़ी दृष्टि, ताक़त्वर थॉट्स , और ईमानदार चिंताओं से परिचालित हैं उतने ही प्रामाणिक , सहज ग्राह्य और प्रेरक भी हैं .माने, इन्हे पढ़ कर आप फक़त सोचने के लिए विवश ही नहीं होते हो बल्कि बाक़ायदा एक दिशा मे चलने के लिए, कुछ करने के लिए उद्धत हो जाते हो. <br />क्या ये कविताएं काफी पुरानी हैं ? पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि टॉर्च कविता अन्यत्र भी पढ़ रखी है मैंने . टिप्पणी में हंस पत्रिका का ज़िक़्र है , वह तो मैंने तक़रीबन 10-12 सालों से नहीं पढ़ी है !!<br />अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-53204621699045816422012-11-24T12:20:01.579+05:302012-11-24T12:20:01.579+05:30अच्छी कविताऍं। पढ कर लगा कि बहुत दिनों बाद ऐसी कव...अच्छी कविताऍं। पढ कर लगा कि बहुत दिनों बाद ऐसी कविताएं पढ रहा हूँ। ओम निश्चलhttps://www.blogger.com/profile/12809246384286227108noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-28370442462921090682012-11-23T22:00:36.242+05:302012-11-23T22:00:36.242+05:30तुम्हारा नुक़्ता अब बेहतर समझ में आ रहा है। शुक्...तुम्हारा नुक़्ता अब बेहतर समझ में आ रहा है। शुक्रिया दोस्त।शिरीष कुमार मौर्यhttps://www.blogger.com/profile/05256525732884716039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-27406774487271625702012-11-23T20:54:25.570+05:302012-11-23T20:54:25.570+05:30विनोद कुमार शुक्ल का लहज़ा ख़ालिस उनका लहज़ा ही है...विनोद कुमार शुक्ल का लहज़ा ख़ालिस उनका लहज़ा ही है. उस लहज़े को मैं सर्वथा तरल मानता आया हूँ, इस तरलता में विरोधों और आन्दोलनों का बेहद कम योगदान है लेकिन कवित्व में है. लेकिन जो उसी लहज़े का परिष्कृत रूप है, वह कठिनाई और तमाम विद्रोहों की भाषा का संबोधन हो रहा है. मेरी समझ से यह एक लंबे वक्त तक टिके रहने वाले प्रभाव का हिसाब है. सिद्धान्तhttps://www.blogger.com/profile/15301083796302573767noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-56420130891757269792012-11-23T15:20:46.779+05:302012-11-23T15:20:46.779+05:30सिद्धान्त अच्छी प्रस्तुति। कविताएं हंस में पहले...सिद्धान्त अच्छी प्रस्तुति। कविताएं हंस में पहले भी पढ़ीं। एक सवाल-सा उठ रहा है कि अगर यहां विनोद कुमार शुक्ल के लहजे का परिष्कृत और ताक़तवर रूप है तो क्या ख़ुद विनोद जी का लहजा उतना परिकृष्त और ताक़तवर नहीं है...कुचले और मसले गए लोगों के कई सन्दर्भ मैंने 'कभी के बाद अभी' में देखे हैं... ये तुलना एक उलझन को जन्म दे रही है...या फिर, जैसा कि मैं बार-बार कहता रहा हूं अपने समय के बहुत समझदार लोगों से,ये मेरी समझ की सीमा और मेरी अपनी उलझन भी हो सकती है। शिरीष कुमार मौर्यhttps://www.blogger.com/profile/05256525732884716039noreply@blogger.com