tag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post6950718158989940862..comments2023-06-09T19:20:40.264+05:30Comments on बुद्धू-बक्सा: मेरे पास क्या है एक बेजुबान आं है - देवी प्रसाद मिश्र की कविताUnknownnoreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-53116546411163480542017-02-26T22:11:37.182+05:302017-02-26T22:11:37.182+05:30इस कविता में समकालीन त्रासदियों का एक उदास लेकिन फ...इस कविता में समकालीन त्रासदियों का एक उदास लेकिन फटकारता हुआ नैरेटिव है. दूसरे छोर पर इसे ‘आदमी तक पहुंचने का टिकट’ भी कह लीजिए. और ये बस कुछ रोज़ पहले या कुछ साल पहले के सिलसिले का पतन ही नहीं नोट करता, दमन और शोक और एक विराट पसरी हुई यथास्थिति का भी एक यहां से वहां भटकता छिटकता ख़ुद को लाइनहाजिर की परंपरा से पुश करता, बाहर धकेलता, तड़पता-तड़पाता, महाकाव्यात्मकता की एक बहुत निराली और ज़िद से भरी हुई तलाश करता है. ये एक ऐतिहासिक उधेड़बुन है. नामों की एक टूटती जुड़ती ऋंखला, एक कबीरी थकान. शोषक और सर्वहारा जैसी शब्दावलियों का एक उत्तरआधुनिक उभार और पतन. बार बार उभर आता दर्द. सत्ता और ताकत और हिंसा में चूर वहशी के किसी मनुष्य पर घूंसों का वार हो या उसे नीचे गिराकर लातों और मुक्कों से उसकी देह को तोड़ देने उसे कुचल ही देने का घेराव. बेशक एक बेजुबान आं. मुक्तिबोध की छटपटाती आह में अपनी आह मिलाता हुई, आगे आती हुई. देवी की एक कविता की तरह, “बहुत दिनों तक गूंजेगी जो आह चाहिए जाकर कहीं लौटकर आती राह चाहिये....” <br />देवी को सिर्फ़ एक असभ्य और ग़ैरनागरिक व्यवहार पर एक कड़ा एतराज़ था. उसके बदले उन्हें मारा गया. प्रशांत चक्रवर्ती और उनके साथियों और छात्रों को विरोध के लिए शोहदों ने मारा. प्रशांत को जैसे जान से ही मार देना चाहती थी भीड़ जैसे अख़लाक़ को. और वे ऐसा पिछले कुछ रोज़ या पिछले कुछ साल से नहीं कर रहे हैं, ये कविता हमें चंद्रशेखर की याद भी दिलाती है. भोपाल गैस में हाशिमपुरा में गुजरात में और न जाने कहां कहां कितने ही लोगों की याद आती है और रुलाती है. कितने चेहरे सामने आ जाते हैं. मंगलेश डबराल की एक कविता के हवाले से ऐसे चेहरे जिन पर “मर्म भेदनेवाली कहानियां लिखी हैं, एक चेहरा स्याही के धब्बे जैसा एक चेहरा नंगी नुकीली, चट्टान जैसा एक चेहरा आंसू की बूंद जैसा गिरने-गिरने को, एक चेहरा जो मार खाकर रोया नहीं, कभी कभी अचानक कौंध जाता है विचार की तरह.” <br />हम उन बदसलूकियों को भी याद कर अजीब सी कोफ़्त और कहीं छिपने को जैसे हो जाते हैं, जो कभी हमारे पिता, पत्नी या अपने साथ हुई होती हैं और अपमान की और हार की और कुछ कर न पाने की एक भयानक फांस हमारे गले को हमारे अंतर्मन को घेरे रहती है. एक आती जाती सांस होते हैं हम. आख़िरकार इसी आवाजाही में ही हमें अपनी लड़ाई देखनी और समझनी और बनानी होगी. ज्ञानरंजन ने कहा है, सर्वोत्तम लड़ाइयां ख़ुद से लड़ी जाती हैं और वे हमें उपयुक्त बनाती हैं. <br />-शिवप्रसाद जोशी<br />शिवप्रसाद जोशीnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-834252060077814479.post-4077856937204259302017-02-26T20:33:22.587+05:302017-02-26T20:33:22.587+05:30भाई देवी प्रसाद की इस कविता से परिचित करने के लिए ...भाई देवी प्रसाद की इस कविता से परिचित करने के लिए आभारी हूँ।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/11436078037949558496noreply@blogger.com