गुरुवार, 25 जुलाई 2013

महेश वर्मा की नई कविताएँ

[चूंकि हिन्दी साहित्य में अभी का समय किसी और तरीके के सावन से गीला हो रहा है, मौसम पर कविताएँ देखने को नहीं मिल रही हैं, नदी और पहाड़ गायब ही हो चुके हैं और हिन्दी का समूल नाश फेसबुक से हो ही रहा है, ऐसे में इन्हीं चीज़ों से निकल कर आते कवि महेश वर्मा को देखकर सुकून तो ज़रूर होता है. महेश वर्मा का पिछला लिखा बुद्धू-बक्सा पर यहाँ पढ़ा जा सकता है. यह बात बार-बार कहना नाकाफ़ी ही है, लेकिन हिन्दी के समकालीन 'युवा रचनाकारों', जिनमें कई सारे क़ायदों और लहज़ों के साथ संशोधन मुमकिन है, को महेश वर्मा की कविताओं जैसी देशजता लाने का प्रयास ज़रूर करना चाहिए, नहीं तो वे प्रेम, जीवन, स्मृति, माँ-बाप पर कविताएँ लिखकर हिन्दी और विषय, दोनों को खर्च कर देंगे. बहरहाल, कविताएँ सामने हैं, और बुद्धू-बक्सा महेश वर्मा का आभारी है]

Siddhant - voids of memories


इस तस्वीर में मैं भी हूँ                                                                                

इस तस्वीर में बीस साल से
उस आदमी की ईर्ष्या जस की तस है जो तस्वीर उतरवाते
लोगों के मुस्कुराते समूह के पीछे से उन्हें देखता गुजर रहा है

बीस वर्षों के पीलेपन ने इस दृश्य में थोड़ी भव्यता लेकिन जोड़ दी है.

बीस साल से लुढ़के हुए गुलदान से गिरे पानी से कालीन
बीस साल से गीला है
किसी की बात खत्म होने की प्रतीक्षा में
अपनी जमुहाई से टक्कर लेती लड़की का धैर्य
बीस साल से अडिग है .

बीस साल से घड़ी उतना ही बजा रही है
उतना ही चमक रहा है फर्नीचर

ईर्ष्या से देखता आदमी शायद उतना ईर्ष्यालु न रहा हो जितना
बारिश के देर से रुकने या छतरी के खो जाने ने
उसे चिडचिडा बना दिया है , कोई उसका रकीब न रहा हो
तस्वीर खिंचाते लोगों में .

कुछ अनुमान और हम लगा सकते हैं कि इस तस्वीर के
बीस ही सेकेण्ड के बाद गुलदान को उठा लिया गया था
इसे चोरबाजार में गलाया नहीं जा चुका ,
यह अब भी उसी घर में चमक रहा है ,
इसे चमकाए रखने वाली बूढ़ी नौकरानी अलबत्ता
पिछले बरस मर गई सर्दियों में.

कालीन अब भी किसी खानदानी रईस के घर में है
वे इसे पुराने सामानों के बाजार से पुरानी इज्ज़त की तरह
घर ले गए थे धुंधलके में .

घड़ी का कोई सुराग नहीं मिलता न उस समय का
जो इसमें ठहरा हुआ था .

इस तस्वीर के एक आदमी की तबीयत खराब रहती है
दो मर चुके, एक अब भी वैसे ही शराब पी रहा है बदस्तूर
एक अब कम चिडचिडा रह गया है
एक अब भी नहीं सीख पाया है कविता लिखना .


सुन्दर नहीं है                                                                                             

कोई चीज़ सुन्दर और विश्वसनीय नहीं है पूरे तौर पर
उदाहरण के लिए कुञ्ज में
उस वृक्ष के पीछे एक दूसरे को चूमते हुए प्रेमी

वे भी पूरा विश्वास नहीं कर पा रहे एक दूसरे पर
साँसों में आपेक्षित सुगंध होने न होने की शंका में
उनका अस्तित्व घुल नहीं पा रहा आपस में
कि पता नहीं दूसरे ने क्या सोचा होगा इस अनगढ़ता को-
                            फूहड़ता या उत्कंठा का उत्कर्ष !

कोई फूल
कोई शहादत
वे बर्फीली चोटियाँ
वह संगीत
           हम इनके नज़दीक जायेंगे और इनका कोलाहल
                                    इसकी अश्लीलता ,
                                    इसका क्षरण और बेतुका रंग- सामने आएगा और निराश कर देगा .


वह भोलापन जो विश्वास करता है और सलोना है
वह भी अविश्वसनीय हो सकता है – सहज अभिनेत्रियों से भरे इस संसार में
उस सलोनेपन के धब्बे आत्मा की जीर्ण देह पर देखे जाएँ बाद के किसी वर्ष .
सूर्यास्त भी विश्वसनीय नहीं है आकाश में
उसका सुबह का आश्वासन भी मारा जा सकता है
अंतरिक्ष या मनुष्य की सनक में .

यह हवा क्या सिर्फ जीवन लेकर आई है और कुछ भी नहीं?

यह सुन्दर बच्चा, यह पानी,
यह स्थापत्य और यह भाषा
इनके हर विचार में अधूरेपन की जगहें हैं
जहाँ से ठंडी हवा सरसराती गुजर रही है .


अंतिम रात                                                                                         

अंतिम वाक्य बोला जा चुका
अंतिम प्रश्न के अंतिम उत्तर में

आखिरी दरवाज़ा बंद हो चुका

उधार की शराब और उधार की रात के लिए ये शहर जैसे है ही नहीं 
इतना ज्यादा नहीं है यह शहर
कि अंतिम सीढियां जो मैं उतर रहा हूँ के बाहर
कोई पृथ्वी नहीं होगी पाँव रखने को
अँधेरे की गहराई होगी बाहर उसके अतल में गिरने को

घटिया टाकीज़ के अंतिम शो के घटिया दृश्य में
गिरते हुए चीखने की आवाज़ मद्धम पड़ती हुई अस्त हो रही
मध्यांतर रात का है

अंतिम सपनों के बदले मिली अंतिम लकडियों की
अंतिम राख को अंतिम हवा उड़ा के ले जा चुकी

सपने दर्ज करने का कागज सट्टा पट्टी लिखने के लिए दे चुके बहुत पहले ही

मैं बराबर तेरह के अंक पर दांव लगाता था
वहां तो मेरी नास्तिकता ने भी साथ नहीं दिया कहते – कहते
पागल होने वाला मेरा दोस्त ज़मीन पर कोयले से लिख देता है १३ हिंदी अंकों में
इस तरह कि तीन की पूंछ लहराकर घूमती हुई, सूर्य को सही दिशा बता देती है
पागल तो वह भी हुआ जो अपना नंबर तोते से पूछता था, फिर तोता किताब से

ना नौ, न सात, न तेरह, न तीन
धार्मिक भी मारे गए अधार्मिक भी

अंतिम संदूक समुद्र में फेंका जा चुका जिसमें अंतिम किताबें थीं

आख़िरी सिक्के के बदले मिला नमक का अंतिम कण
आंसुओं के नमक से महँगा है, इसके बाद नमक
सिर्फ ज़िंदगी के बदले मिलेगा प्राचीन तुला पर तौलकर .

अंतिम स्मारक ढहाया जा चुका इतिहास का
मिथक के अंतिम नायक का देवालय गढ़ रहा शिल्पी
मरकर किसी पत्थर पर ढह चुका है .


आओ                                                                                                     

कोई दिन ऐसा नहीं आयेगा जिसकी धूप
आज की धूप में शामिल नहीं है
आने वाले दिनों की हवा कुछ इस हवा में भी है
कुछ इस धूल में अगले बरस की धूल
ऐसे ही घंटे का अनुरणन
इसमें आगे की आराधनाओं की भी ध्वनियाँ हैं
कि कोई किसी भविष्य के मंदिर में प्रवेश करेगा .

आज की सुबह में भविष्य के पक्षी चहचहा रहे हैं
इस इस्तीरी की हुई कमीज़ में भविष्य की कलफ है
आज का भोजन करके आचार्य भविष्य की सींक से निकाल रहे हैं
दांतों में फंसा दाना .

इसी चाँद के पास है भविष्य के प्रेमियों का उन्माद
इसी समुद्र के पास भविष्य की गर्जना है और भविष्य का नमक
यह पर्वत बहुत दिनों तक भविष्य का भी पर्वत रहेगा
हस्तरेखाशास्त्री की हथेली पर नहीं आज की ज़मीन पर .

भविष्य की ध्वनियाँ और चित्र
इस कविता में आओ .

***घंटे का अनुरणन महाकवि विनोद कुमार शुक्ल की पंक्ति है , उनसे क्षमापूर्वक .


पारा – पारा                                                                                                 

उसका चेहरा खुद बन जाता है एक दर्पन
पैंतालीस साल की औरत जब दर्पन देखती है

उसे नहीं देखना है अपना कुछ : न लकीरें
                         : न निशान कोई और

बहुत दिनों से उसने अपना वह तिल भी छूकर नहीं देखा
दर्पन हो गयी है कि दुनिया देख सके अपना अक्स उसके भीतर

उसकी औलाद
उसका महबूब
उसके समय की खूबसूरत औरतें
और ये कायनात
उसमें देखने को झांकते हैं अपना चेहरा
            : वहाँ सबकुछ जला जला हुआ क्यूं दिखाई देता है?
वे अपने चेहरे को छूते हैं कि अक्स कोई सपना हो
उधर अक्स भी छूने लगता है अपना चेहरा 

औरत तो आईने के आरपार देखती हो जैसे
कि वह एक शीशे का टुकड़ा है बेचारा
    और बेपारा.

बुधवार, 10 जुलाई 2013

I like the way you die, boy! क्योंकि जैंगो इज़ अनचेंड

सिद्धान्त मोहन तिवारी                                                                    

‘ब्रूमहिल्डा’ बेटी थी भगवानों के भगवान, वॉटन की.

उसने कुछ ऐसा किया जो उसके बाप को पसंद नहीं आया और उसने उसे पहाड़ की चोटी पर बिठा दिया. (जानते हो, जर्मन लोककथाओं में हमेशा कोई न कोई और कहीं न कहीं पहाड़ होता ही है) और पहाड़ के नीचे निगरानी के वास्ते उसने आग़ की साँस लेने वाले ड्रैगन को बिठा दिया और उस ड्रैगन ने पहाड़ी को आग़ से घेर दिया.

और फ़िर सभी कहानियों की तरह हीरो सिगफ्रायड आ पहुँचा, उस राजकुमारी को बचाने के लिए. उसने उसे बचाया क्योंकि वह पहाड़ की ऊँचाई से नहीं डरता था, क्योंकि वह उस ड्रैगन से भी नहीं डरता था, क्योंकि वह किसी भी चीज़ से नहीं डरता था.......क्योंकि, वह उससे प्यार करता था.

और इस तरीके से जैंगो फ्रीमेन यह जान जाता है कि सिगफ्रायड कोई और नहीं है, जैंगो खुद है और उसे अमरीकन लड़ाईयों से नहीं घबराना है, सामंतों से नहीं डरना है और अपनी चमड़ी के लोगों से भी नहीं डरना है.

कुछ ऐसी ही है, तारांतिनो की नई फ़िल्म ‘जैंगो अनचेंड’. पश्चिमी अमरीका को सँजोकर बनायी गई फ़िल्म असल में दक्षिण की कहानी कहती है. यह उस वक्त की कहानी है जब दास-प्रथा बर्बरता के चरम पर थी और सिविल युद्ध छिड़ने की एकदम कगार पर था. और ऐसे ही किसी रोज़ एक रात को डॉ० शुल्ज़ को तलाश हो आती है जैंगो की, जो दासों के किसी खरीद-फ़रोख्त के मेले में से खरीद कर लाया जा रहा है. क्रिस्टफ वाल्टज़ सूत्रधार और किस्सागो को वहन करते हुए, जैंगो के लगभग एकमात्र दोस्त-पिता-गुरु की भूमिका में आते हैं, जिसका नाम डॉ० शुल्ज़ है. अपनी घोड़ागाड़ी और अपने झूठ से शुल्ज़ एक दाँत का डॉक्टर है, लेकिन असल में वह एक जर्मन बाउंटी हंटर है (बाउंटी हंटिंग भगोड़े अपराधियों को पकड़ लाने या मारकर उसका शव लाने की एक कवायद है, जिसे कई देशों में मान्यता भी है. हंटर को उस अपराधी के सिर पर रखे गए ईनाम की धनराशि भी मिलती है, और सम्मान तो मिलता ही है). किन्हीं तीन भाईयों की हंटिंग के लिए उसे जैंगो की तलाश है, उसे हासिल कर उसके साथ लिवाए जा रहे दूसरे दासों को भी मुक्त कर देता है. फ़िर जैंगो अपनी पत्नी ब्रूमहिल्डा की खोज में शुल्ज़ के साथ निकल पड़ता है. शुरुआत में शुल्ज़ द्वारा की जाने वाली कुछेक हंटिंग से तो वह घबराता है, लेकिन उनकी कानूनी ज़रूरत को समझ कर वह उनसे समझौता कर लेता है. तीन वांछित भाईयों में से दो की हत्या वह खुद करता है, जिन्हें वह इसलिए याद रखता है कि उन्होनें ब्रूमहिल्डा पर कोड़े बरसाए थे और तीसरे को शुल्ज़ खत्म करता है.

एक जागीरदार मिस्टर कैंडी के घर पर ब्रूमहिल्डा के होने का पता चलता है, जागीरदार की भूमिका में लियोनार्डो हैं. उसकी समूची रियासत जो कैंडीलैंड के नाम से मशहूर है, काले सेवकों और नौकरों से भरी है. जिन पर राज करने के लिए कैंडी की विधवा बहन है और एक काला बूढ़ा खूसट स्टीवन(सैमुअल जैक्सन) है. स्टीवन भी काली चमड़ी का आदमी है, लेकिन अपने ही लोगों पर ज़ुल्म कर और तमाम चापलूसियों से वह मिस्टर कैंडी के कैंडीलैंड का मैनेजर नियुक्त कर दिया गया है. जो भी काले सेवक कैंडीलैंड से भागने की कोशिश में होते हैं, उन्हें धूप से तप रहे ज़मीनी गड्ढे में या खूंखार कुत्तों के आगे मर जाने के लिए छोड़ दिया जाता है. मिस्टर कैंडी काले पहलवानों की जानलेवा कुश्ती (Mandigo Fighting) का शौक़ रखता है, जिसकी ज़द में वह पहलवानों को पालता भी है और दूसरे जागीरदारों के पालतू पहलवानों से मर जाने की हदों तक लड़ाता है. कैंडी के अपनी बहन से रिश्ते भाई-बहन के रिश्ते से कुछ अलग दीखते हैं, यह कुछ incest किस्म का सम्बन्ध प्रतीत होता है. डाक्टर और जैंगो पहलवानों के सौदागर बनकर ‘मोश्योर’ कैंडी से मिलते हैं और कुछ आसानी से ही जैंगो अपनी पत्नी से मुलाक़ात करने में सफल हो जाता है, और कठिनाइयों के बावजूद उसे हासिल करने में सफल हो जाता है, एक अटपटी मुठभेड़ में शुल्ज़ मारा जाता है और गुस्से से भरा जैंगो समूचे कैंडीलैंड और ‘मोश्योर’ कैंडी के ख़ानदान को ख़ाक कर जाता है.

‘पल्प फ़िक्शन’ के बाद तारांतिनो से उतनी ही पकी फ़िल्म की आस थी, लेकिन सामने ‘किल बिल’ और ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ जैसी अधूरी फ़िल्में आयीं. तारांतिनो ने बाद में खुद भी कहा कि वे ‘पल्प फ़िक्शन’ के स्तर को दोबारा हासिल नहीं कर पाए, पूरी तरह से गल्पाधारित ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड’ तारांतिनो-मार्का-सिनेमा के कुछ ही पास पहुँच पाती है. ऐसे में ‘जैंगो अनचेंड’ का इन्तिज़ार बेसब्री से किया जा रहा था, क्योंकि ट्रेलर और विज्ञापनों में तारांतिनो की कमजोरी (या ताक़त ही कह लें), नीग्रो दिख और बोल रहे थे और इसके रचनाकाल में ही फ़िल्म के निर्माण को क़रीब से देखने वाले समीक्षकों ने (हिन्दी के पेड समीक्षकों की तरह नहीं) इसकी शुद्धता की परिभाषा लिख दी थी. यह फ़िल्म उन मानकों को समेटकर फ़िर से तारांतिनो की गोद में भर देती है, जो पल्प फ़िक्शन बनने के बाद बाज़ार में फ़िर रहे थे. ‘जैंगो...’ कई मायनों में एक सम्पूर्ण फ़िल्म है, और मेरे हिसाब से यह पल्प फ़िक्शन से भी आगे की संरचना है. सधा और साफ़दिल प्रेम तारांतिनो की किसी फ़िल्म में पहले नहीं दिखा, तो इस लिहाज़ से तारांतिनो की किसी भी फ़िल्म में ‘जैंगो...’ के पहले कभी प्रेम नहीं रहा. ‘जैंगो..’ में दिखाया गया प्रेम अमरीकन सिनेमा के विरोध में खड़ा पाया जाता है, काली चमड़ी के बाशिंदों का आपसी प्रेम आपको जड़ कर सकता है, जड़ भी इसलिए क्योंकि जिन हालातों और संभावनाओं के बरअक्स यह प्रेम सम्भव होता दिखाया है, उसमें प्रेम की कल्पना भी असंभव है.

‘जैंगो...’ की कहानी पर मेहनत की गई है लेकिन सिविल युद्ध के दौरान अमरीका की हालत को तारांतिनो दिखा पाने में असफल रहे, लेकिन उसी सिविल वार की बारीकी को Lincoln (2012) ने जिया है. दरअसल, ‘जैंगो...’ किल-बिल के माहौल और पल्प फ़िक्शन के यथार्थ का एक साझा रूप है. हत्या के सलीकों-तरीकों और व्यक्तिपरक निर्ममताओं का पाठ  जिस तरह ‘किल-बिल’ करती है, ‘जैंगो...’ भी उसी लहज़े का अनुसरण करती है. सांगीतिक हत्याओं का अनुपात ‘जैंगो...’ और ‘किल-बिल’ में लगभग बराबर है लेकिन यहाँ Being nigger (काली चमड़ी वाला होने की परिभाषा) की करवटें पल्प फ़िक्शन के बराबर हैं. फ़िल्म की कहानी पर एक अलग कारण से चर्चा होनी चाहिए, जब आप इस पूरी फ़िल्म को कई बार देखेंगे(क्योंकि मैं अभी तक बारह-तेरह बार देख चुका हूँ) तो ये जान पाने में कठिनाई नहीं होती कि फ़िल्म शुरुआत और आखिर में जितनी सुलझी है, बीच में उतनी ही उलझी है. यदि पूरे फ़िल्म में बीच की उलझनें रख दी जातीं, तो संभवतः कोई नई चीज़ निकल आती.

फ़िल्म के संवाद बेहद पके हुए और नेक हैं. उनमें किसी तरह की कठिनाई नहीं है. कुछ तो ऐसे हैं कि जिन्हें आप नोटबुक में लिखकर रोज़ आयत की तरह पढ़ें. यह आपको लफ्फाज़ होने पर ही पसंद आ सकते हैं, क्योंकि The ‘D’ is silent जैसी आसान और सपाट बात किसी ख़ास सिने-संजीदगी की माँग आपसे नहीं करती. फ़िल्म की फोटोग्राफ़ी कमाल है, लोगों और माहौल को बेहद सुविधाजनक लहज़े में क़ैद करने की सफलता है इस फ़िल्म में. 

मैनें जब ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के बारे में लिखा, तो कुछ दोस्त ये कहने लगे कि आपको ‘इनग्लोरियस....’ पसंद है, लेकिन आप वासेपुर की प्रासंगिकता से दूर भाग रहे हैं और जबकि ‘इनग्लोरियस....’ भी इथिकली सही नहीं है. मैं यहाँ ये धुंधलका साफ़ कर दूँ कि ‘इनग्लोरियस....’ गलत कब साबित हुई थी, उसे गलत बनाया ही गया. लेकिन ‘गैंग्स...’ के साथ दिक्क़त ठीक उलट है, इसे सही और प्रासंगिक बताकर बेचा गया, लेकिन यह गलत साबित हो गई. ‘गैंग्स...’ और ‘इनग्लोरियस...’ एक दूसरे से दूर की चीज़ें हैं, मैं ‘सिटी ऑफ़ गॉड’ की जितनी प्रशंसा कर सकता हूँ, इससे प्रभावित ‘गैंग्स...’ की इतनी प्रशंसा मुझसे सम्भव नहीं है.

हम तक आने के लिए यह फ़िल्म इतिहास से बेतरह खेलते हुए आती है, शायद उतनी ही बेरहमी से जितनी बेरहमी से ‘इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ खेलती है. ‘जैंगो....’ मैंडिंगो लड़ाई जैसे पूर्ण-कल्पित शब्द-संज्ञा की रचना बस ‘मैंडिंगो’ नामक फ़िल्म के आधार पर कर देती है. इस लड़ाई में दो काले पहलवान किसी एक की मौत तक कुश्ती लड़ते रहते हैं, जिसे फ़िल्म में एक ख़ास क्रूरता के साथ दिखाया गया है, लेकिन यह जान लेना चाहिए कि दासप्रथा के वक्त मैंडिंगो फाइटिंग जैसी कोई चीज़ अस्तित्व में नहीं थी. न ही काली चमड़ी के किसी दास के अंदर इतना जिगरा था कि दूसरे गोरे मालिकों के सामने लड़ाई करने के बाद शैम्पेन की बोतल से मुंह लगाकर हांफता हुआ चला जाए. मुमकिन तो यह भी नहीं था कि एक काला दास उटंगा घोड़े पर बैठ शहर के बीचों-बीच चला आए, और साथ यह भी नहीं कि किसी जागीरदार की ज़मीन पर तीन भाईयों को मार देने के बाद इतनी आसानी से अपने दोस्त के साथ निकल जाए. अमरीकी दासप्रथा के हालात सचमुच बेहद बुरे थे, साथ दिख भी जाने पर लोगों को गोलियों से उड़ा दिया जाता था(चाहे वे गोरे ही क्यों न हों), उन्हें सेक्स पार्टनर तो नहीं सेक्स टूल ज़रूर बनाया जाता था. उन्हें तपते लोहे के डब्बों में छोड़ा जाना एक बात है, गलतियां होने पर उनके साथ लगभग अबू-गरीब जेलों सरीखा व्यवहार किया जाता रहा, लेकिन यदि इन बुराइयों को तारांतिनो जैसा ओवर-क्रिमिनल डायरेक्टर जी नहीं पाता, तो इस मोड़ पर यह तारांतिनो की विफलता है. इन कुरीतियों को फिल्माने के बजाय तारांतिनो ने इने ग्लैमराईज़ किया है. अनुराग कश्यप तारांतिनो के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं, आपको ये फ़िल्म देखने के बाद साफ़ पता लग जाएगा. लेकिन कश्यप और तारांतिनो में अंतर कर पाना बेहद आसान है, कश्यप जहाँ इतिहास और तथ्यों से परास्त हो जाते हैं, वहीं तारांतिनो का इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है. वे हिटलर को अपने ही तरीकों से मार देते हैं, जर्मन और अंग्रेज़ फौजों की मनमौजी टुकड़ीयां बना देते हैं, सिविल युद्ध के चलन को नए तरीकों से दिखा देते हैं. फ़िल्म पूरी तरह से असफल है यह बताने में कि जैंगो को बाऊंटी हंटर बनने की क्या ज़रूरत थी? हाँ, इसकी प्रासंगिकता फ़िल्म के अंत में उजागर होती है, लेकिन ब्रूमहिल्डा की जानकारी मिलने के पहले से ही जैन्गो बाऊंटी हंटर बन चुका होता है लेकिन इस प्रासंगिकता का फ़िल्म में जैंगो के वर्तमान से कितना साक्षात्कार है? क्या ब्रूमहिल्डा को पूरी तरह से पाने के बाद जैंगो इतने जोखिम भरे काम से जीवन यापन करेगा? या जैंगो सिविल युद्ध में कूद पड़ेगा? या जैंगो बाऊंटी हंटिंग के हुनर का इस्तेमाल अपनी और अपनी पत्नी की स्वतंत्रता को बचाने के लिए करेगा, तब भी जब शुल्ज़ उसका गुरु रह चुका है? फ़िल्म में मिस्टर कैंडी को खुद को ‘मोश्योर कैंडी’ कहलवाना पसंद है. नाम के आगे बेहद सम्मानजनक लहज़े में मोश्योर जोड़ना एक फ्रेंच परम्परा है, जो अभी भी फ्रांस में ही दुनिया के दूसरे देशों से कहीं ज़्यादा प्रचलित है. सिविल युद्ध के समय अमरीका के पास फ्रांस की दो ही चीज़ें हुआ करती थीं, एक नेपोलियन तृतीय का थोड़ा व्यापार और फ्रांस के बने हथियार जो साल 1861 से 1865 के बीच के युद्धों में बेहद इस्तेमाल में लाए गए. फ्रेंच सभ्यताओं का इतना भी व्यापक प्रभाव नहीं था कि कोई जमींदार खुद को मोश्योर से सुसज्जित करे. अभी यह एक आसान-सी दिख रही बात है, लेकिन 19वें दशक के आखिर में, जहाँ सभी पश्चिमी देश अपने आतंरिक हालातों और दूसरे देशों में व्यापार फैलाने की बातों से चिंतित थे, किसी दूसरे समाज से प्रभावित होना एक बड़ी और गौर करने लायक बात होती थी. अमरीका ने संभवतः 1870 के बाद फ्रांस के साथ औपनिवेशिक समझौते करने किए शुरू किये, उससे पहले अमरीका फ्रेंच समाज से बेहद अपरिचित था. कैंडी के घर के भीतर के कुछ सजावटी सामान भी उस समयांतराल में न पाए जाने वाले सामान हैं. लेकिन इन कठिन चीज़ों पर बात करने से कोई फ़ायदा नहीं, तारांतिनो को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और न ही कभी वे इन आरोपों का जवाब देने आएंगे. एक बात तो साफ़ होती ही है कि इतिहास से खुलेहाथ खेलने वाले एक निर्देशक पर यह प्रश्न उठाना एक गैरज़रूरी मुद्दा है कि उसने Historically Correct फ़िल्म क्यों नहीं बनाई?

मेरे हिसाब से शायद ही अपनी पत्नी-प्रेमिका यहाँ तक कि किसी और की पत्नी को बचाने के लिए शायद ही किसी काली चमड़ी वाले ने इतना घमासान मचाया होगा. यह ‘शायद’ तारांतिनो की झोली में भी है, लेकिन तारांतिनो का साक्षात्कार इस यथार्थ की परिकल्पना से नहीं है, उसने गल्प को इतना ज़्यादा कस दिया कि ‘पल्प’ के लिए कोई जगह नहीं बची. जिस ऊहापोह को तारांतिनो अपनी हर फ़िल्म में जीते रहे हैं, उसे उन्होंने ‘जैंगो...’ में छोड़ दिया है.

अगर आप तारांतिनो के दीवाने हैं तो आप सैमुएल जैक्सन से प्यार कर उठेंगे. लाजवाब अभिनय से सैमुएल ने अपने हिस्से की फ़िल्म को जिया है. जिमी फॉक्स से अच्छे की उम्मीद थी, लेकिन जिमी को अभिनय में समेटने में असफल तारांतिनो उसे आमिर खान सरीखा या पेशेवर तरीके से कहें तो शाहरुख खान सरीखा पेश करते हैं. लेकिन यदि आपका जुड़ाव फ़िल्मों की सभ्यता से है तो आप ये पा जाएंगे कि क्रिस्टफ वाल्टज़ से बड़ा अभिनेता अभी अमरीकी सिनेमा के पास नहीं है. क्रिस्टफ के अभिनय का परचम मैं ‘इनग्लोरियस...’ के समय से देखता आ रहा हूँ, और तब से ही इनसे मिलने और इनके हाथ चूम लेने के ख्वाब संजोया हुआ हूँ. दुनिया भर के सिनेमा की नक़ल कर रहे भारतीय सिनेमा को क्रिस्टफ के अभिनय से ज़रूर कुछ सीखना चाहिए, बेहद कम समय में क्रिस्टफ ने अपने अभिनय का जो लोहा मनवाया है उसे ऐसे ही ज़ाया कर देना भ्रूण-हत्या सरीखा अपराध होगा.

‘जैंगो ...’ ऐसी फ़िल्म नहीं है जो आपको इतिहास, प्रेम और एक्शन साथ में दे दे, किसी एक पक्ष पर आपको खुद को निराश करना ही होगा. ये निराशा इतिहास पर ही हो जाए तो बेहतर है, क्योंकि अगर ऐसा करने में हम असफल हैं तो हम नायाब फ़िल्म का मज़ा लेने से खुद को वंचित कर सकते हैं.


बुधवार, 3 जुलाई 2013

कान्हा टू स्नोडेन वाया सुधीश पचौरी उर्फ़ बीते दिनों की डायरी

सुधीश पचौरी को सहर्ष आत्महत्या कर लेनी चाहिए, नहीं तो ये एकदम सम्भव है कि कल कोई उनकी हत्या कर बैठे नहीं तो वे कुंठा में ही कुढ़ मरेंगे शायद. सुधीश, आपसे मेरा कोई सीधा सामना नहीं है – मैं होने देना भी नहीं चाहता हूँ – लेकिन आपके जानकीपुल पर लगे ताज़ा लेख(जिसे मॉडरेटर और काँग्रेस के इंटेलेक्चुअल सेल के महासचिव प्रभात रंजन व्यंग्य कहकर छाप रहे हैं) दिल्ली विश्वविद्यालय के चारसाला कोर्सों की ही तरह कूड़ा है. रवीन्द्र नोबेल शती पर विष्णु खरे के लेख को पहली दफ़ा ऑनलाइन मैनें ही बुद्धू-बक्सा पर छापा था, जिसे आप पता नहीं क्या कह रहे हैं(ख्याल रहे कि मैं जानना भी नहीं चाहता हूँ कि आप क्या कह रहे हैं), इसलिए उस पूरे प्रकरण के पक्ष में और आपके ‘प्रांजल’ लेख के सन्दर्भ में मेरी जवाबदेही तो बनती ही है.

चूंकि सुधीश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैं और हिन्दी साहित्य में मुक़म्मल जगह बनाने के लिए उन्हें कोई जद्दोज़हद नहीं करनी पड़ रही है इसलिए सभी चीज़ों और घटनाओं से खुद को सुरक्षित ही महसूस कर रहे हैं. मामले में सुधीश की कोई दिलचस्पी शायद नहीं थी, ना ही अशोक वाजपेयी और ना ही विष्णु खरे को सुधीश की चिमटा मारने की औक़ात है न हिम्मत. ना ही कोई भी ‘आदरणीय’ या ‘परम-आदरणीय’ सुधीश का ‘उद्धार’ कर सकता था/है, इसलिए सुधीश ने समूचे डेमोक्रेटिक मसले को ‘प्रवीण तोगड़िया-मार्का’ लहज़े में ‘ठेल’(जिसका एक समानतुक शब्द सुधीश ने इस्तेमाल किया) दिया, मौक़ापरस्त प्रभात रंजन ने भी इसे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसलिए सुधीश का अपने आदरणीय और परम-आदरणीय से जो भी मसला रहा हो, या वे जिस भी तरीके से खेमेबंदी करने के बारे में सोच रहे हों, उनका लेख उनके बौद्धिक स्तर और उनके खेमेबाज़ी का सफल प्रमाण है. सुधीश पचौरी के लेख से कोई निष्कर्ष निकाल पाना नामुमकिन है, क्योंकि ये बनारस के सांध्य दैनिक ‘गांडीव’ के होली विशेषांकों (‘कुल्हड़ विशेषांक’, ‘खूंटा विशेषांक’ या ‘बमचिक विशेषांक’) में छपी बड़ी पुरुष हस्तियों के अधनंगी तस्वीरों सरीखा निराधार है. इस कुंठा का हिन्दी में कोई जवाब नहीं है, कोई प्रत्युत्तर नहीं. इसे बस इसी तरह लताड़ देना चाहिए. जिस समय अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी महोत्सव कहीं विदेश में मनाया जा रहा था, और लोगों की वाल पर अंतर्राष्ट्रीय तस्वीरें देखकर चौंधियाए हुए और जले-भुने विनीत कुमार ने जितना छिछला और दोयम दर्जे का स्टेटस(जिसे राष्ट्रीय महासचिव जी ने जानकीपुल पर भी लगाया था) हिन्दी के वरिष्ठों के खिलाफ़ लिखा था, उस लेख से प्रभावित होने की बू सुधीश के ‘व्यंग्य’ से आती है.

विष्णु खरे के लेख के वेब-वर्ज़न में (मुझे अच्छे से याद है कि) कड़ी बातों के साथ सुझाव दिए गए हैं, जिन पर ठीक अगले जनसत्ता के रविवारी में अशोक वाजपेयी ने जवाब भी दिया और चल रहे कार्यक्रमों की कमियां भी स्वीकार कीं.

कान्हा कांड के Dirty Linens को धोने के लिए बहुत भारी संख्या में कान्हा के आरोपितों ने रज़ा फेलोशिप मिलने पर युवा कवि व्योमेश शुक्ल के साथ ‘बक रहा हूँ जुनूं में क्या-क्या’ सरीखा बर्ताव करना शुरू कर दिया. एक मौक़ा और आया, जब रज़ा फाऊंडेशन के सर्वेसर्वा अशोक वाजपेयी मनसे पदाधिकारी वागीश सारस्वत के साथ किसी मंच पर देखे गए, किसी ‘सजग-प्रहरी’ ने तस्वीर खींची और दोनों फेसबुक वीरों (ध्यान रहे मैनें फेसबुक ही लिखा है) के माध्यम से नया दाग साफ़ करने का साबुन बाज़ार में आ गया. बोधिसत्व, व्योमेश शुक्ल और विष्णु खरे की जवाबदेही ज़रूरी बन गई. विष्णु खरे की व्यस्तता और विदेश यात्रा के चलते जवाब कुछ देर में आया, लेकिन जवाब आने के बाद फेसबुक की मलिन दीवारों पर खीसें दिखने लगीं, जिसमें ‘हम-विष्णु-खरे-को-समझते-ही-क्या-हैं’ जैसी विकट बत्तीसियाँ(!) शामिल थीं. एक संस्था द्वारा आयोजित काव्य-पाठ, जिसमें संस्था खर्च का कोई विवरण उपलब्ध नहीं करा सकी, के सभी भागीदार उत्साहित रहने लगे. वामपंथ को हथियार बना लिया गया(मैं कमलेश प्रकरण पर अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ), एक त्रय का खंडन हो गया और कुछ-कुछ सभी दीवारों पर लिखा जाने लगा. विष्णु खरे ने अपने इस लेख में साफ़ लिखा है कि अशोक ऐसी संदिग्ध, भले ही स्वयं के लिए ‘यूज़-एंड-थ्रो’, संस्थाओं में अपनी कविता का परचम फहराने न जाएँ, इसे एक recommendation की तरह लेने के बजाय प्रबुद्धजन इसमें गालियों की तलाश करने लगे. विष्णु खरे के जवाब के बाद किसी भी झण्डाबाज़ की तरफ़ से दोबारा प्रति-प्रश्न नहीं रखे गए, जिस तरह बिलबिलाये कविगण कान्हा कांड के बाद करने लगे थे. जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी ने वेब-वर्ज़न के लेख को ज़्यादा तवज्जो दी, और इसे फेसबुक पर शेयर किया. जिसके फलस्वरूप उनकी दीवार पर उनके और मंगलेश डबराल के बीच कुछ झगड़ेनुमा हुआ(चूंकि आयोवा ‘डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट्स’ से फंडेड है और इसके ऑनलाइन साक्ष्य बेहद सहजता से उपलब्ध हैं), जहाँ मंगलेश डबराल शुरुआत में यह मानने को तैयार नहीं थे कि आयोवा ‘ओवल ऑफिस’ से फंडेड है, वहाँ वे बाद में ओम थानवी और दूसरे कमेन्टकारों से निजी लड़ाई पर उतर आए. अंबिकापुर के कवि महेश वर्मा ने इसी दौरान ओम थानवी को ब्लॉक करने के बाद डंका पीट दिया. इतना ही नहीं, सभी ने लगभग पोस्ट सम्बन्धी स्टेटस देखा, अधिकतर ने मुझसे ईमेल भी पाया होगा(जिन्होनें नहीं पाया होगा उनमें किराडू, चन्दन और पाण्डेय हैं, क्योंकि इन्होनें फ़ोन करके और मेल लिखकर मुझे विष्णु खरे का लिखा कुछ भी न छापने और छापे जाने पर इन्हें मेल न करने/टैग न करने की हिदायत दी थी) लेकिन पूरे योद्धा इन बहसों के बाद से अपनी-अपनी दीवारों पर ही नज़र आए, नए कवियों की कविताएँ नज़र आने लगीं, Keats और दूसरे पश्चिमी कवियों के कोट्स फ़िर से नज़र आने लगे और तमाम संते-भंते-घंटे एक दूसरे की पीठ थपथपाने लगे. मंगलेश डबराल जब ओम थानवी से उलझ गए, तो सभी पहलवान फ्रंट से लोपत हो गए, सम्भव है कि मंगलेश जी यह सोच रहे होंगे कि जिन लोगों की बहस के चक्कर में फेसबुक अकाऊंट जगाया वे ही गायब हो गए. आयोवा फंडिंग का मामला सबने देखा, लेकिन कोई ज़ियादा कुछ कहने नहीं आया.

‘जनपक्ष’ ब्लॉग पर प्रकाशित बहस का लिंक सभी को भेजा गया, तब से लेकर अभी तक ये थपथपाने-ठोंकने(सहलाने!) का खेल जारी है (ध्यान रहे, मैं अभी भी ‘फेसबुक वीर’ पर कायम हूँ.) फेसबुक का माहौल ऐसा लग रहा है मानो कि मुम्बई में उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट बन्द करा दी गई हो या गुजरात में दंगे टल गए हों या इराक़-अफ़गानिस्तान में बमबारी को रोक दिया गया हो. लेकिन दाग लगने से कुछ अच्छा होता है, तो दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर हमारे रणबांकुरे ये भूल गए कि चुनरी का दाग छूटता नहीं छूट जाता है. जनपक्ष ने पक्षधर होते हुए जो चित्रकथा प्रकाशित की, उसमें उसने समूची लड़ाई की चिंगारी यानी प्रभात रंजन की व्योमेश शुक्ल की वाल पर पोस्ट उर्फ़ रज़ा फेलोशिप की बधाई भाई, आशा है एक भ्रष्ट राजनेता और महान कवि श्रीकांत वर्मा पर एक उत्कृष्ट पुस्तक की रचना आप इस फेलोशिप के माध्यम से करेंगे को दबा दिया, जिसके अंतिम कमेन्ट में शशिभूषण द्विवेदी ने यह कहकर न जानने वालों को हैरान कर दिया कि श्री रंजन काँग्रेस के विचार प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय महासचिव हैं, इसके बाद किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई. प्रभात रंजन बाद में काफ़ी घिघियाए(पुनः) कि ऐसा नहीं है, लेकिन जिनके पास साक्ष्य थे उन्हें झुठला पाने में कोई चाल काम नहीं आई. इस बीच जनपक्ष की बहसों में श्री अशोक-किराडू ने फेसबुक के सभी mutual friends को टैग कर दिया, ओम थानवी जी से बकझक हो गई और बचाते-बचाते अशोक वाजपेयी से भी और अशोक वाजपेयी ने यह खुलासा कर दिया कि प्रतिलिपि ने रज़ा फाउन्डेशन से वित्तीय सहायता मांगी थी, साथ ही वाजपेयी जी ने तमाम हिसाब खोल कर रख दिए. गिरिराज किराडू इस बाबत कोई सटीक उत्तर देने में नाक़ामयाब रहे.

रज़ा फाउन्डेशन को फोर्ड फाउन्डेशन से फंडेड बता किराडू, अशोक और रंजन चीख रहे थे, तभी अचानक श्री किराडू अपने स्टेटस और बाद में सभी को भेजे मेल में यह बार-बार मनवाने की कोशिश करने लगे कि उन्हें(उनकी भाषा में ‘हमें’) रज़ा फाउन्डेशन से कोई दिक्क़त नहीं है न वे इसके खिलाफ़ हैं, उन्हें समस्या है व्योमेश शुक्ल के अवसरवाद से. यानी सही तरीके से ‘रज़ा फाउन्डेशन’ से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी तो उन्हें व्योमेश शुक्ल से भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी, चाहे पैसा फोर्ड फाउन्डेशन लगा रहा हो या रज़ा साहब. मनीषा कुलश्रेष्ठ और दूसरे रज़ा फेलोशिप प्राप्त प्रतिभागियों से कोई बात न करते बनी, तो कान्हा-कांड के स्टिंगर व्योमेश शुक्ल को बीच में लाकर नया साबुन बनाने के लिए चर्बी जमा की जाने लगी. किराडू ने एक बेहद चालाकी भरी रणनीति के तहत ये बात कही थी, शायद उन्हें आगे समन्वय और प्रतिलिपि से किताबों के प्रकाशन में भी मदद चाहिए हो इसलिए वे ये दिखा रहे हों कि उन्हें इस फाउन्डेशन से कोई दिक्कत नहीं है. ये लालकृष्ण आडवाणी सरीखा बर्ताव कि पहले इस्तीफा दे देना, फ़िर लोभ के मद में इस्तीफा वापिस भी ले लेना, समझ नहीं आया. इसलिए एजेंडा साफ़ न होने का खामियाज़ा भुगत रहा ये अतिरेकी वामपंथी खेमा, अपनी ही बातों से ढहने लगा. इस ढहने को विजय समझा गया और उस नए साबुन को सबने फ़िर-फ़िर रगड़ा, और खड़े हो गए सब कैमरे के सामने विज्ञापन करने. कान्हा की तस्वीरें अब चमचमाने लगी हैं, लम्बे-लम्बे कवर-फोटो बन गए हैं, लगता है अरण्य में फ़िर से सावन आया है. लेकिन म्यां! दाग़ साफ़ नहीं हो पाया, कपड़ा ज़रूर पतला हो गया.

अविनाश मिश्र ने ज्योति कुमारी के संग्रह पर लिख मारा, किराडू श्री जो अभी तक ‘आवांगार’ जैसे शब्दों से अविनाश के लेखन को नवाज़ रहे थे, प्रतिलिपि ब्लॉग पर अविनाश को उड़ा-उड़ाकर छाप रहे थे, कविता पर लिखे लेख के वादे भी ले रहे थे शायद, अचानक नामवर सिंह का नाम बीच में आने और प्रभात रंजन के फंसने से फ़िर से शुरू हो गए. इस दौरान एक ऐसा वक्त भी आया जब अविनाश किन्हीं कारणों से लोगों और इंटरनेट से काफ़ी दूर थे, इस समय किराडू ने अविनाश को भगोड़ा साबित कर दिया और यहाँ तक कि रूपा सिंह और आशुतोष कुमार ने उनके खिलाफ़ साइबर क्राइम सेल में रपट लिखाने की सोच ली, यह गिरिराज किराडू द्वारा प्लान था क्योंकि इसके बाद उन्होनें अविनाश को फोन करके यह कहा कि तुम मेरे दोस्त(रंजन) के खिलाफ़ मत लिखो, मैं तुम्हारे खिलाफ़ नहीं लिखूँगा. ज्योति कुमारी ने अविनाश को बेस्टसेलर कार्यक्रम में इनवाईट करने के लिए खुद तो फ़ोन किया ही, अपने पुरुष-मित्र से भी फ़ोन कराया. जिसके जवाब में अविनाश ने मज़ाक में ही कहा कि मैं आयोजन में आ जाऊँगा, तो लिख नहीं पाऊँगा.(बजाय इसके कि ‘मैं जिससे मिल लेता हूँ, उसके खिलाफ़ नहीं लिखता’). लेकिन लोगों (रंजन-किराडू) को अविनाश के बजाय ज्योति के कहे पर रद्दा मारना ज़्यादा मुफ़ीद लगा, क्योंकि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव जैसे नाम चमक रहे थे और ज्योति कुमारी तो थी हीं. अशोक डूबते-उतराते अविनाश के पक्ष से बात करते दिख रहे थे, जैसे उन्हें किसी ने कहा हो कि ‘भंते! तुम वहाँ से बात करो और अपन यहाँ से’. पूरी बहस एकाएक फेसबुक से गायब हो गई(संभवतः कई लोगों नें योजनापूर्ण तरीके से रिपोर्ट एब्यूज़ किया हो) और अविनाश अपना पक्ष साबित कर पाने में असफल रहे, ज्योति कुमारी ने जानकीपुल पर अपने बेस्टसेलर कार्यक्रम की रपट को चिरस्थाई बनवा लिया(यानी अब आर्काइव पर लोड नहीं है). प्रभात रंजन हिन्दी साहित्य के नरेन्द्र मोदी हो चुके हैं, जो सबको बराबर साधना चाहते हैं लेकिन विश्व हिन्दू परिषद से उनका रिश्ता कभी नहीं ख़राब हो सकता. चाहे वह एकदम डैमेज कंट्रोल सरीखे तरीके से कमलेश की कविताएँ लगाना हो या हरेक पोस्ट का लिंक शशिभूषण द्विवेदी की वाल पर पोस्ट करना हो, या आशुतोष दूबे के एक प्रश्न कि 'श्रीकांत वर्मा भ्रष्ट कैसे हुए' पर उनको यह कह देना कि ‘आपको छापना मेरा सबसे बुरा फ़ैसला था’, प्रभात रंजन मोदी ही हो चुके हैं. उन्हें जल्द स्वास्थ्य लाभ हो.

हालाँकि प्रभात रंजन को नज़रंदाज़ किया जाना ज़्यादा सही है क्योंकि जानकीपुल को ‘मोहल्ला’ बनाने के चक्कर में वे जो कुछ कर रहे हैं सब जायज़ है. चाहे अविनाश मिश्र की पोस्ट को हटाना हो, जिसे हटाने के बाद घिघिया-घिघियाकर तमाम बहाने प्रभात रंजन बाँट रहे थे(जिनमें नामवर सिंह का स्पष्टीकरण, आर्काइव लोड, ‘आयोजन-समीक्षा को कितने दिन रहना चाहिए?’ जैसे बहाने शामिल थे), या हिन्दी के प्रतिष्ठित प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘बेस्टसेलर’ कार्यक्रम की रपट को दस तरीकों से लिखना-छापना, प्रभात रंजन कहीं से भी गलत नहीं है. एकदम सम्भव है कि कभी संभावित रह चुके एक कथाकार और मॉडरेटर के खिलाफ़ इतना ही पढ़ लेने पर फेसबुकी दंगाई(मूर्ख) तलवार और कीबोर्ड पर मोटे-शैश्निक बालू कागजों की घिसाई चालू कर चुके होंगे.

कमलेश पर, कमलेश की कविताओं पर, रज़ा फेलोशिप पर, सीआइए और अण्डा कार्यालय पर बहुत आप सब पढ़ चुके हैं. लेकिन ये बातें परदे के पीछे की हैं, जो मैं बहुत दूर से देख रहा था, जवाब दर्ज़ करने का समय तलाश रहा था. ये कान्हा से लेकर सुधीश पचौरी तक का छोटा-सा लपेटा है, जिसमें सच के सिवाय कुछ भी नहीं है. यदि मिला तो फ़िर मैं बहुत दिनों तक उसकी प्रमाणिकता की तलाश करूंगा. समय बीत चुका है, मुझे अब मनोहर श्याम जोशी के निबन्ध ‘हिन्दी में वीर बालकवाद’ न सुनाने आएँ. तब तक के लिए ये बताएँ कि भारत ने स्नोडेन को शरण देने से मना करके कहाँ गलती की?