शनिवार, 30 मार्च 2013

अंत में योग्य सिर्फ़ सत्ता रह जाती है - पंकज चतुर्वेदी


पंकज चतुर्वेदी की यह कविताएँ जलसा - ३ में प्रकाशित हैं, वहीँ से साभार यहाँ दी गई हैं. एक तरफ़ हम अपने जीने-मरने की ग्लोबलाईज़ेशन को लेकर चिंतित हैं, वहीं पंकज चतुर्वेदी धरती के तमाम अक्षों की वैश्विकता का आंकलन कर देते हैं, जिनमें गद्य, प्रेम और रकीब भी शामिल हैं. अपने आसपास के सभी मूर्त-अमूर्त संप्रदायों से इन कविताओं का एक सीधा सामना है. सत्ता और सम्मान के कठिन खिंचाव को चिन्हित करते हुए वे गद्य से नामालूम तरीकों से छले जाते हैं. पंकज चतुर्वेदी की उम्मीद एक आम आदमी की उम्मीद है, जिसमें कहीं कोई नई या छिपी बात नहीं है, लेकिन नयापन यह है कि इतनी सरलता से इसे दर्ज़ किया जा रहा है. बुद्धू-बक्सा को पंकज चतुर्वेदी के प्रकाशन का प्रथम अवसर. यह बक्सा पंकज चतुर्वेदी का आभारी.

 
बॉश - द लास्ट जजमेंट


कृतज्ञ और नतमस्तक

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे खुद को
और दूसरे पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ़ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना

बहुराष्ट्रीय

बहुराष्ट्रीय
कम्पनियाँ ही नहीं
गद्य भी हो सकता है
यह मैनें जाना
जब मैं एक लंबे निबन्ध से
छला गया

उम्मीद

जिसकी आँखों में आँसू हैं
उससे मुझे हमेशा
उम्मीद है

आते हैं

जाते हुए उसने कहा
कि आते हैं

तभी मुझे दिखा
सुबह के आसमान में
हँसिये के आकार का चन्द्रमा

जैसे वह जाते हुए कह रहा हो
कि आते हैं

तुम मेरा साथ देना

मुझसे दूर जाते हुए
उसने कहा :
तुम मेरा साथ दो

अगर कोई मुझे परेशान करे
तो तुम उसे रोकना!

मैने कहा :
मैं ज़रूर रोकूँगा उन्हें
जो मेरे लिए
तुम्हारे एकांत को
भंग करेंगे

मगर मैं उससे यह पूछने का
साहस नहीं कर सका :
अलग रहकर भी जितना सम्भव होगा
मैं तुम्हारा साथ दूँगा
पर तुम्हारे साथ न होने की पीड़ा
मैं कैसे सहूंगा

शायद वह जानती थी मेरे मौन को
इसलिए बोली :
जितना कष्ट और तनाव
मैं सह सकती हूँ
कोई नहीं सह सकता

आँसू से डबडबाई हुई थी रात
रात, जिसमें वह साथ नहीं थी
और दूर जाते हुए कह रही थी :
तुम मेरा साथ देना!

रक़ीब को देखकर

रक़ीब को देखकर मुझे लगा
यह मेरा रक़ीब नहीं हो सकता
फ़िर लगा कि हो सकता है, दुनिया में
कुछ भी हो सकता है

रक़ीब को देखकर मुझे लगा
वह मेरा अतीत है
वह मेरा भविष्य है
और वर्तमान?
वर्तमान को लेकर
तुम इतने खौफ़ज़दा क्यों हो?
वर्तमान में
क्या वह नहीं है?

तुम्हारी बेवफाई पर
-  तुम उसे अपनी मजबूरी कहना चाहो तो
मजबूरी सही
एक दिन उमराव जान
तुम्हें तमाचा मार देगी

उसके बाद भी
उसकी ज़िंदगी में
लोग आयेंगे
मगर क्या वे
तुम्हारी जगह आयेंगे?

नहीं
वे अपनी-अपनी जगह आयेंगे

प्रेम की सफलता

विवेक अपरिहार्य है

यह अनुमान करने के लिए नहीं
कि प्रेम सफल होगा या नहीं
- क्योंकि प्रेम की सफलता
उसके बाहर नहीं होती

यह देखने के लिए
कि जिसे हम चाहते हैं
प्रेम की सफलता के लिए
उसका इस्तेमाल तो नहीं कर रहे

*****


शनिवार, 23 मार्च 2013

सुंदर से सुंदर को नष्ट होना होता है एक दिन - प्रभात


(प्रभात की कविताएँ बुद्धू-बक्सा पर पहले भी प्रकाशित हुई हैं. उनका लिंक रहा ये. प्रभात के पास कितनी ज़्यादा विविधता है यह सोचकर ही आश्चर्य से पाठक भर जाता है. बजाय इसके यह कहना ज़्यादा सही होगा कि प्रभात का कैनन एक बड़ा माध्यम है. एक तरफ़ प्रभात हमें नदी की औरत, चाँद के मन और पानी की इच्छाओं से परिचित कराते हैं तो ठीक उलटे वे प्रेम के यथार्थ को भी सामने रख देते हैं. बहरहाल, कविताएँ सामने हैं. बुद्धू-बक्सा प्रभात का शुक्रगुज़ार.)






नदी
सुना तू सूख गई है
साँवली काली पड़ गई है तेरी काया
संसार की सबसे उदास नींद सो गई है तू
चाँद के झरने के नीचे

चाँद के लिए
चाँद की ओर उठे हुए सारे पेड़
चाँद के लिए इच्छाएँ हैं धरती की

पानी की इच्छाएँ
घने घने वृक्षों में नहीं बदलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
फलों सी नहीं फलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
जीभ पर नहीं चुअेगी रस सी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
धमनियों शिराओं में संचरित नहीं होगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ

लिलि
पैदल चलने की थकान से चूर है बदन
पाँवों में गाँठे पड़ गए हैं
पसीने से लथपथ षरीर
धीरे-धीरे सूख रहा है
चमड़ी पर सफेद नमक के धब्बे ऐसे लग रहे हैं
जैसे यह काया झील रही हो नमक की

यही सब सोचते-बिचारते लेटा हूँ यहाँ
जगह मिल गई है सोने की
और नींद भी आ गई लेटते ही
कि तुम्हारे आने की आहट पा
मुँदी हुई भारी आँखें आखिर खुल गईं

देखा यह तुम नहीं
तुम्हारी याद की आहट थी
तुम्हारी याद की आहट से खुल गई थीं जो आँखें
मुँद रही हैं फिर से

मैं बहुत थका हूँ
मुझे बहुत चलना है
तुमसे बहुत दूर जाना है
मुझे सोने देना दो घड़ी
याद की आहट से
मत जगाना लिलि

क्योंकि वे दिन
क्योंकि वे दिन प्रेम के थे
ग्रीष्म भी वसंत सा सुहावना लगता था
वह साधारण लड़की
पृथ्वी पर उस लड़के के प्रेम के लिए ही
जन्मी हो ऐसी लगती थी
वह साधारण लड़का
पृथ्वी पर उस लड़की के प्रेम के लिए ही
जन्मा हो ऐसा लगता था

क्योंकि वे रातें उनके प्रेम की रातें थी
किसी को उनके किस्से गढ़े बिना
और उनके प्रेम को लेकर गढ़े हुए किस्सों को सुनाए बिना
नींद ही नहीं आती थी

क्योंकि वे दिन प्रेम के थे
दुर्गम रास्ते भी सुगम हो गए थे
अपमान, तिरस्कार, घृणा जैसी जानलेवा बातों के जवाब
प्रेम अपने आप ढूँढता था और दे देता था
उन दोनों को कुछ भी नहीं करना पड़ता था इस बावत
उन्हें तो बस करना था प्रेम
जो कि वे कर ही रहे थे
जिसके बिना वे रह ही नहीं सकते थे एक पल भी

क्योंकि वे प्रेम के दिन थे
वे ही वे दिखते थे सब ओर
बारिश में जैसे बौछारें ही बौछारें दिखती है सब ओर
पानी ही पानी हरियाली ही हरियाली सरगम ही सरगम हवाओं में
सुंदर से सुंदर को नष्ट होना होता है एक दिन
त्रासद आ ही जाता है गिनते हुए दिन
लड़की है अब भी वही
पर प्रेमवाली लड़की नहीं
लड़का है अब भी वही
पर प्रेम वाला लड़का नहीं

वो प्रेम वाला लड़का
वो प्रेम वाली लड़की
जाने कहाँ बिला गए धरती में
या बह गए जीवन की बाढ़ में

मगर तब नहीं बिलाए वे धरती में
तब नहीं बहे वे जीवन की बाढ़ में
क्योंकि वे दिन प्रेम के थे

*****

(छाया - सिद्धान्त)