गुरुवार, 17 जनवरी 2013

उमाशंकर चौधरी के कविता संग्रह/पुरस्कार पर अविनाश मिश्र


(देखिए! मजमून साफ़ है कि यदि अपने कविता संग्रह 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे' पर उमाशंकर चौधरी को साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार न मिला होता, तो शायद इस क़िताब और माज़रे पर लिखने-छापने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती. एक लंबा वक्त बीता, दूसरा पुरस्कार भी घोषित हो चुका है, लेकिन एक प्रतिष्ठित पुरस्कार के नए और अपेक्षित संस्करण का आगाज़ इस बेरहमी और नादानी के साथ होगा और यह इस तरीके से धड़ाम होगा, इसका अंदाज़ न था. यहाँ बात बरास्ते अविनाश मिश्र आई है. इन बातों के महत्त्व को 'कौन है यह लड़का?' या 'किस ज़मीन पर है यह?' सरीखे आश्चर्यों/प्रश्नों की आड़ में मुँह छिपाकर दबाने वाले लोगों से बुद्धू-बक्सा का कोई रिश्ता मुक़म्मल नहीं हो सकता है. यह एक ज़रूरी हस्तक्षेप है. 'समकालीन सरोकार' में कुछ दिनों पहले प्रकाशित, वहीँ से साभार.)





कहते हैं तब अच्छे कवि सो रहे थे


यहां एक 'वह' है। एक युवा लेखक उमाशंकर चौधरी हैंइन्हें हिंदी के लगभग सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैंजो इस उम्र तक मिला करते हैं, जिस उम्र में वे हैं। यहां इनके 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' और 'ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मानप्राप्त कविता संग्रह 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे' की कविताओं के बहाने कविता पर कुछ नोट्स हैं। लेकिन सनद रहे कि ये नोट्स केवल इस संग्रह पर 'ही' नहीं हैं, बल्कि इस संग्रह पर 'भीहैं। यहां एक युवा समय है। कुछ सामयिक पूर्वज हैं। यहां एक अंतरपाठ है और एक विभक्त्तता भी... यहां यह कहने का अर्थ यह है कि सब कुछ को अलगाते हुए पढें हो सकता है कि संभवत: कहीं कुछ जुड़ जाए ...


इन्हें प्रतिक्रियाएं कतई न समझा जाए। ये 'आमबोलचालकीभाषा' से वंचित एक भाषा में विवादास्पद हो जाने की कुछ निष्कलुष इच्छाएं भर हैं। स्वयं को व्यक्त करने की यह तमीज नगर के उन गोशों में सीखी है उसने जहां कुछ बहसबाजों ने महज इसलिए उस पर तमंचे तान दिए थे, क्योंकि उसने स्त्रियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के रुदन को एकांगी, अर्थवंचित और बेमौजूं कहा था। वे तो उसे मार ही देते मगर ऐन वक्त पर 'जेएनयू' का आई कार्ड काम आ गया।
उसके विश्वविद्यालय उसे लगातार कमजोर करते चले गए हैं। उसे कोई मदद, कोई उम्मीद नजर नहीं आती प्राध्यापकीय समझ और व्यवहार में। वे एक निरंतरता में उसकी भाषा और जीवनबोध को सीमित या कहें नष्ट कर रहे हैं। इस तरबियत से ऊबकर वह अब जाए तो कहां जाए ? वह 'जेनुइन' कवि होना चाहता था, 'जेएनयूइयन' कवि हो गया है।

प्राध्यापक सब वक्त यहां-वहां उसकी प्रशंसा किया करते हैं। एक रोज बीस कवियों के क्रम में अपना नाम देखकर वह घर मिठाई लेकर पहुंच गया। घर में दुःख और रहस्य हैं जो घर की दहलीज से बाहर निकलकर सृष्टि के असंख्य दुःखों और रहस्यों से एकाकार होते हैं... जहां कविताएं कुलबुलाती रहती हैं प्रकाशन के लिए। वे एक रोज प्रूफ की बेशुमार गलतियों, गलत पते, गलत परिचय और एक धुंधली तस्वीर के साथ धूसर पृष्ठों पर एक गलत परिदृश्य रचतीं और रचनात्मकता को अवकाश बख्शती हुईं प्रकाशित होती हैं। यह एक साथ व्यक्त व वर्जित होना है। महत्वाकांक्षाएं तुच्छ और संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। यह युवा समय है और वह एक युवा कवि है।

लेकिन वह एक वास्तविक कवि बनना चाहता था और पूर्वजों में उसका यकीन विस्लावा शिम्बोर्स्का के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि मजबूत, अंधा और बेबुनियाद था...। वे कभी उसे सही नहीं ठहराते थे, क्योंकि वे हड़बड़ियों के अंत से परिचित थे और अंतत: उसके शुभ की कामना करते थे। एक समालोचक का यही व्यक्तित्व होता है।

ऐसे ही उसके एक पूर्वज थे- कवि व समालोचक और उसे अत्यंत प्रिय। कविताएं पढ़ते हुए उनकी आंखें भीग जाती थीं। यह एक मृतप्राय मगर दुर्लभ व विश्वसनीय काव्य समझ थी। वे कोई प्राध्यापक नहीं थे कि विन्रमता और मक्कारी दोनों को एक साथ जीएं। वे हो चुके, हो रहे और होने वाले कई कवियों के लिए जानलेवा थे और वह बेयकीनी की हद तक उनसे मुतासिर था।

वह उन्हें अपनी कविताएं दिखाना चाहता था। कुछ वक्त और बहुत सारी कोशिशों के बाद यह संभव हुआ। वे बहुत ऊंचाई पर थे और उस रोज लिफ्ट खराब थी। वह धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़कर डोर बेल तक पहुंचा। वह थोड़ा हांफ और बहुत भीग गया था। उसने चप्पलें बाहर उतार दीं और दस्तक देकर घुसा पुस्तकों के प्रकाशित और पांडुलिपियों के अप्रकाशित एक संसार में। कमरे में एअरकंडीशनर था मगर वे उसे कुछ देर चलाकर कुछ देर के लिए बंद कर देते थे। उसके लिए यह सब कुछ वैसे ही था जैसे बचपन में पैदल चलकर बचाए गए पैसे से आइसक्रीम खाना। पानी पीने और कॉफी-स्नैक्स आने के दरमियान वह क्या करता है, कहां रहता है, क्या पढ़ता है... जैसे बेतुके सवालों के जवाब देने के बाद और वे फैज और सर्वेश्वर को सख्त नापसंद करते हैं, यह सुनने के बाद वह एकदम से मुद्दे पर आ गया और उसने कहा- सर, मैं अपनी कुछ कविताएं दिखाना चाहता हूं आपको ? वे बोले- हां... हां क्यों नहीं...।

...कुछ समय बाद वह एक बार और उस कक्ष में था। एअरकंडीशनर चल रहा था। फैक्स मशीन यथावत थी। लैपटॉप खुला हुआ था और उसकी स्क्रीन पर एडवर्ड मुंच की बनाई पेंटिंग 'दि स्क्रीम' थी। लेकिन उस रोज वहां जो घटा वह एक बेहद पुराने हादसे की तरह था। इस पुरानेपन में पंद्रह बरस के 'सआदत यार खां' एक गजल सुधार के लिए बहुत अदब से 'मीर तकी मीर' के पास गए थे और मीर ने गजल सुनकर कहा था- साहबजादे आप खुद अमीर हैं और अमीरजादे'ह हैं, नेज:बाजी, तीरंदाजी की कसरत कीजिए। शाइरी दिलखराशी और जिगरसोजी का काम है, आप इसमें तकलीफ न कीजिए...। जब साहबजादे ने बहुत आग्रह किया तब मीर ने फरमाया कि आपकी तबीअत इस कला के योग्य नहीं, यह आपको नहीं आने की, बेकार ही मेरी और अपनी औकात खोनी क्या जरूरी है।

उसके प्रिय कवि और समालोचक उस रोज मीर के किरदार में थे और वह उस बदनसीब साहबजादे के। उन्होंने उसके सामने ही उसकी कविताएं उनके हिसाब से इन कविताओं के लिहाज से एक सही जगह यानी कि 'डस्टबिन' में डाल दीं। उसने डेरे पर आकर उन कविताओं की छाया प्रतियां भी जला दीं। पूर्वजों में उसका यकीन असद जैदी के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि यकीन न कर पाने के दुःख में और यकीन कर लेने की कमजोरी में था...।

पूर्वज उसे पूर्वाग्रह की हद तक प्रिय थे। लेकिन वह कवि कहलाना चाहता था। अपने प्रिय कवि और समालोचक के लगभग असहनीय परामर्श के पश्चात उसने हिंदी में 'काव्यतंत्र' पर पहली बार और स्व अध्यवसाय पर आखिरी बार सोचा। एक समयांतराल के बाद उसकी बुझ चुकी कविताएं फीनिक्स की भांति पुनर्जीवित हुईं और वह हिंदी में एक चर्चित युवा कवि के रूप में स्वीकार्य हुआ...।

आज में उन सारे शारीरिक रूप से अपंगों का साथ चाहता हूं
ताकि मैं देख सकूं कि मेरे कमजोर पड़ने की आदत
या कर्तव्य से डिगने की आदत
मुझे उससे भी और अधिक पंगु नहीं बना गई है...

ऊपर दी गईं काव्य पंक्तियां उमाशंकर चौधरी की हैं। उमाशंकर की कविताएं अब उमाशंकर के साथ लिखने वाले और उमाशंकर के बाद लिखने वाले, दोनों ही तरह के कवियों के लिए एक मानक की तरह हैं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है क्योंकि ये बहुत बेहतर हैं, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इन्हें इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया है। मैं नहीं जानता कि इसकी सजा क्या होनी चाहिए, लेकिन यह एक अपराध है। गलत मानक गढ़ना भविष्य की भ्रूण हत्या करना है। कई दशकों की सतत चुप्पी के बाद इधर कुछ समय से इस पर चर्चा हो रही है। और इस चर्चा में धीरे-धीरे ही सही कुछ प्रोजेक्टेड लेखक छंटने शुरू हुए हैं। इन पर हमले जारी रहें तो ये सुधर सकते हैं और यह गलत प्रवृत्ति थम सकती है। फिलहाल इस भाषण के बाद यदि उमाशंकर के कवि पर बात करें तो कह सकते हैं कि इस कवि के पहले काव्य संग्रह में कथ्य और शिल्प के स्तर पर वैसी ही लापरवाही है जैसी प्रूफ के प्रति। बल्कि प्रूफ में थोड़ी कम और कविता के कविता बनने में थोड़ी ज्यादा। यहां कविता संस्मरण और प्रवचन की संगबहिनी है। वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जो अपनी कविताओं और गद्य के साथ-साथ अपनी हंसी और बेहद मीठी, मद्धिम, सुरीली और कृत्रिम आवाज के लिए भी जानी जाती हैं, उमाशंकर चौधरी की कविता को इस काव्य संग्रह के ब्लर्ब पर रघुवीर सहाय की परंपरा से जोड़ती हैं। 'जनसत्ता' के स्तंभ 'रंग-राग' से पेस्ट किए गए इस ब्लर्ब और इस संग्रह की कविताएं पढ़ने के बाद बेशक यह कहा जा सकता है कि अनामिका जी ने रघुवीर सहाय और उमाशंकर चौधरी दोनों में से किसी एक को ही पढ़ा है। [यहां स्माइली :-) एड करेंकहा यह भी जा सकता है कि अनामिका जी गलतबयानी कर रही हैं। अनामिका जी चाहतीं तो बगैर किसी का नाम लिए नामवर सिंह की तरह गलतबयानी कर बच सकती थीं, जिन्होंने 'अंकुर मिश्र स्मृति कविता पुरस्कार-2007' के निर्णायक के रूप में दी गई सम्मति में उमाशंकर की कविताओं को मूल स्वर में राजनीतिक, विषय-वस्तु के क्षेत्र में व्यापक, यथार्थवादी विचार व भाव के साथ स्वाभाविक रूप से बेचैन कहा था। (गनीमत है कि उन्होंने कवि को मुक्तिबोध के आगे या पीछे का नहीं कहा था।)

ये सारी 'संपन्नताएं' तो एक रिपोर्टिंग में भी होती हैं, लेकिन वह कविता नहीं हो पाती। लेकिन कविता के फॉर्म में लिख दी रिपोर्टिंग को आजकल कविता के तौर पर परोसा जा रहा है। उमाशंकर जैसे तमाम कवियों को यह समझ लेना जरूरी होगा कि कविता रिपोर्टिंग भी हो सकती है, लेकिन रिपोर्टिंग ही कविता नहीं होती। यह भी समझना चाहिए कि बेहद वैयक्तिक किस्म के स्थूल ब्यौरों से तो रिपोर्टिंग का भी काम नहीं चलता।

संबंध, बाजार और राजनीति के देखे-भाले, परिचित और प्रचलित दायरे में कैद उमाशंकर चौधरी की कविताओं में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जो अपने पढ़ने वाले की स्मृति में स्थायी हो जाए। ये कविताएं नरेश सक्सेना के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि समय खराब करती हैं। उमाशंकर की कविताएं यदि ये कविताएं हैं तो इनमें 'पठनीयता' नहीं है। वे बेतुके संदर्भों के साथ बेवजह लंबी होती चली गई हैं। यहां अधूरे ब्यौरे हैं और हिंदी में धड़ल्ले से कारगर सभी विमर्शों का दुरुपयोग भी। इसे यदि भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत-प्रकाशित और साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत नहीं किया होता तो इस पर इतना लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। ऐसे निकृष्ट मानक न गढ़े जाएं, इसके लिए जरूरी है कि 'कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे' की कविताओं का छिद्रान्वेषण किया जाए और बताया जाए कि महज दृश्य-विधान कविता नहीं है। कविता सदा दृश्य के पार बसती है, उसका दृश्य में पुनर्वास करना कवि-कर्म कहलाता है। 'हम जो देखते हैं' (मंगलेश डबराल के शब्दों में नहीं) यदि वही कविता है तो हमको देखकर ही काम चला लेना चाहिए, उसे कविता की शक्ल में कहीं दर्ज नहीं करना चाहिए। लेकिन फिर भी यदि कोई ऐसा करता है तो इससे दृश्य का तो कुछ नहीं बिगड़ता, मगर कविता बिगड़ जाती है।

उमाशंकर चौधरी की इन कुछ और काव्य पंक्तियों के साथ उस 'वह' की कहानी के अंत की और लौटते हैं-

मैं अब गांव की वह पाठशाला नहीं जाना चाहता
जहां शिक्षक हमें झूठ नहीं बोलना सिखाते हैं
मैं चाहता हूं बढ़ई का हुनर सीखना
ताकि एक दिन उस मनहूस सांकल को ही हटा सकूं...

...वह एक चर्चित युवा कवि के रूप में स्वीकार्य था। लेकिन वह अब जल्दी-जल्दी ऊब रहा था। एक अर्से से एक पंक्ति तक नहीं लिखी थी उसने। अंतत: प्रत्येक को 'स्व' के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है, लेकिन इस परिदृश्य में दूर-दूर तक बस पुरस्कार नजर आते हैं, जवाबदेही नहीं...। जैसे वह स्वयं से पूछता है कि आखिर एक कविता विशेषांक में कई अफसरों की कविताएं क्यों हैं? क्यों एक हत्यारे के काव्य संग्रह का लोकार्पण एक अतिवृद्ध वामपंथी आलोचक कर रहा है? क्यों एक विश्वविद्यालय का कुलपति 'स्त्री विमर्श' को वेश्यावृत्ति कहता है? ऐसे कई 'क्यों' हैं, और इस 'क्यों' की वजह हैं वे महानुभाव जो लगभग पचास वर्षों से हिंदी साहित्य के केंद्र में हैं। वे अब पूर्णत: अंधे हो चुके हैं। वे इतने खराब और इतने सारे हैं कि  कोई रचनात्मक व्यवहार अब उनमें शेष नहीं। क्यों वे जीवन की तमाम रोशनाइयां गंवा बैठे। उसे वह समय भी याद है जब वे युवाओं की बेहतर कृतियों का ऊंचा मूल्यांकन करते थे। उस वक्त की तफसील में जाने का उसका कोई इरादा नहीं है, क्योंकि इससे यह सोच भी जाती रहेगी जो बमुश्किल बच पाई है इस 'पुरस्कार व्यवहार' के बावजूद।

जहां तक पुरस्कारों का प्रश्न है तो वे हर घंटे दिए जा सकते हैं, दिए भी जा रहे हैं, भले ही वे ग्यारह रुपए के ही क्यों न हों। इससे रचनाशीलता को बढ़ावा मिलता है, रचनाशीलता चाहे सतही क्यों न हो। आखिर इसका स्रोत भी तो वही आत्मविश्वास है जो वह खो चुका है।

और अब वह भी धीरे-धीरे अपने कई पूर्वजों के बीच एक पूर्वज होता जा रहा है-

इनमें एक पूर्वज अतिवादिता के शिकार हैं, एक भाई-भतीजावाद के।
एक को कोई नहीं पढ़ता, एक किसी को नहीं पढ़ते।
एक केवल नाम गिनवाते रहते हैं, एक सब कुछ भूल चुके हैं।
एक के गाल अब तक हद से ज्यादा लाल हैं।
एक की आवाज तोतों जैसी है, एक की औरतों जैसी।
एक केवल 'अज्ञेय' पर बात करते हैं, एक केवल कालिदास पर।
एक की आखिरी किताब तुलसीदास पर होगी, एक कबीर पर ही पांच पुस्तकें लिखना चाहते हैं।
एक निर्मल वर्मा पर निष्कर्षात्मक हो चुके हैं, एक उदय प्रकाश पर शोधात्मक।
एक केवल अनुशंसाएं लिखते हैं, एक केवल ब्लर्ब।
एक हर समय प्रवास में रहते हैं, एक हर समय विवाद में।
एक सभा-गोष्ठियों के दीवाने हैं, एक स्त्री-देह के।
एक कविता से घृणा करते हैं, एक कहानी को साहित्य नहीं मानते।
इतने एक हैं भी नहीं, शायद वे एकमेक हैं।
ये सब उसके सामयिक और जीवित पूर्वज हैं। ये सब जब मरेंगे तब यकीनन एक युग का अंत होगा...।

फिलहाल तो यह कविता में मिठाई लालों और स्वयंभू चौधरियों के सफल होने का युग है। आप इसका कुछ नहीं कर सकते। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा कविता-समय ऐसे ही प्रयासों का सिलसिला है। इस सिलसिले को ही फिलहाल जीतेंद्रीय होकर भारत भवन तक प्रतिष्ठित होना है और फलतः उसे भारत भूषण के रूप में समादृत होते रहना है। गोरखपुर से भोपाल तक वाया दिल्ली इसी कविता को गीत के तर्ज पर जो गायेंगे नहीं, शायद वे ही मारे जायेंगे और शहंशाह जैसा कि कहा ही गया है कि सोते रहेंगे।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

दुर्गेश सिंह की कहानी

(दुर्गेश काम में बझे और रखी जा रही आशाओं के बोझ से लदे युवाओं का एक चेहरा हैं. अपनी भूमि और साथ के लोकरंगों को वे उतने ही क़रीब से हमें दिखाते हैं, जितनी उनकी खुद की क़रीबी है. ये कहानी एक भ्रष्ट और मनचले तंत्र में भी एक आशा की किरण खोजने सरीखा प्रयास है, या शायद उससे भी कहीं आगे की बात है. ये उन परम्पराओं का '२१वीं सदी' विस्तार है, जिन्हें हम नाकाफ़ी और अधूरी हिन्दी फ़िल्मों में देखते हैं. इस कहानी के विकास में कई दिन लगे, जिसमें दुर्गेश के साथ बुद्धू-बक्सा भी जुड़ा रहा और जो बन पड़ा अब आपके सामने है. दुर्गेश की कहानी 'जहाज', जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है, का दूसरा हिस्सा आप 'बुद्धू-बक्सा' पर जल्द पढ़ेंगे. आगे कहानी है, आप सब हैं, पढ़िए, पढाइये और हमें भी बताइये.)





स्टे ऑर्डर
             
कमरे में बरसात की पहली रात के रंग-सा सन्नाटा फैला है. आस-पास दूर-दूर तक कोई मर-मानुष नहीं दिखाई दे रहा है. गाँव के पीछे की ओर से तिक्खे जो रास्ता तहसील की तरफ़ जाता था,  वहाँ से तकरीबन साढ़े तीन कोस की दूरी पर दो कमरों वाला पुराना पंचायत भवन था. जहाँ कुछ महीनों पहले तक यूरिया, डाई और पोटाश की बोरियाँ रखी जाती थीं. कानूनी वजहों से सालों से बंद पड़े इस भवन के आस-पास कोई आता जाता नहीं था. गाँववालों की नज़र में यह एक रेगिस्तान सरीखा था जिसकी दीवारों में सीलन थी, जिसकी नींव बंज़र थी और जिसका आसमान सहमा हुआ था. इस भवन से कुछ दूर बच्चे कहीं क्रिकेट खेलते तो विकेट गिरने पर, चौका-छक्का लगने पर या फिर जीत वाली टीम की मिठाई खाते समय उनके सामूहिक स्वर का एकाध कण यहाँ तक आ जाता था. क्रिकेट ग्राउंड और पंचायत भवन के बीच कोई रास्ता नहीं था सो किसी के पहुँच की संभावना पनपने से पहले ख़ारिज हो जाती थी. 

लेकिन आज इस भवन का ताला टूटा था. ताले को कमरे के अंदर पड़ी एक आधी भरी यूरिया के बोरी पर रखा गया था. यूरिया की गंध भगाने के लिए कुछ अगरबत्तियां खिड़की में खोंस दी गई थी.

“आगे पढ़ो”, कमरे का सन्नाटा टूटा, एक आवाज़ आई.

एक आदमी जिल्द चढ़ी और लाल धागे के सिरे से लिपटी लम्बी डायरी लेकर पढ़ने लगा -

प्यार के रंग वाले पेड़ के बगल में एक चबूतरा था. चबूतरे पर बाबा का छोटा-सा मंदिर था. मंदिर में बाबा की कोई मूर्ति नहीं थी. बाबा का सब नाम जानते थे लेकिन बाबा को किसी ने नहीं देखा था. बाबा को चढावे में चने की दाल और गुड़ चढाया जाता था. मंदिर के चारो ओर कुछ चींटे गुड़ और दाल लेकर घूमते रहते थे. कनैल के पेड़ से लगातार फूल झरते रहते थे. फूल या तो सूख जाते या फिर गिलहरियां उनको लेकर चली जातीं. कुछ फूल नीचे पड़े सूखे और काले हो जाते जिसकी वजह से चबूतरे के अगल-बगल की ज़मीन भी काली हो गई थी. ज़मीन का आदमी सोचता कि अब तो उसकी ज़मीन पर बहुत खाद हो गई है जल्द ही कनैल के आस-पास की मिट्टी खुदवाकर खेतों में डलवा देगा. इस दरम्यान कनैल को डर लगता कि कहीं उसकी जड़ें न काट दी जाएँ. वैसे आदमी बहुत हास्यास्पद जीव है. सभ्यता के शुरूआत से वह पेड़ों के साथ ही अपनी जड़ें भी काट रहा है और अब तो काफ़ी काट चुका है. कनैल के पास की काली ज़मीन के बगल में नीम का एक छोटी छाया वाला लंबा पेड़ था. उसकी पत्तियाँ सूखकर कुएं में गिरती रहती थीं. पेड़ की छाया ज़मीन पर नहीं पड़ती थी. कुंए से सटे एक खपरैल पर पड़ती थीं. खपरैल के उस हिस्से में एक कठफोड़वे ने अपना घोंसला बनाया था. वहाँ से लगातार खट-खट, कट-कट की आवाज आती रहती थी. शाम को कठफोड़वा अपने घोंसले में कब आता, किसी को पता नहीं चलता था. दिन भर कहीं कुछ खोदखादकर एक दिन कठफोड़वा घर लौटा था तो मौसम में उमस बढ़ गई थी. ज़मीन के मालिक ने मच्छरों की आशंका से बचने के लिए खपरैल के घर में उपला सुलगा दिया. धुआं बढ़ा तो मच्छर भागने लगे. धुआं सीधे कठफोड़वा के घोंसले में जा रहा था. उसके बच्चों की सांस फूलने लगी. अगले दिन सुबह कठफोड़वा वहाँ नहीं दिखाई दिया. कठफोड़वा अपना घोंसला लेकर वहाँ से कहीं और ठक-ठक की आवाज करने चला गया. लेकिन, उस रात के बाद से ज़मीन के मालिक की एक आँख की रौशनी भी चली गई. कठफोड़वे ने जाते-जाते एक ठोड मालिक की आँख में मार दी थी.

इसके बाद बच्चों ने मुझसे पूछा कि कठफोड़वा कहाँ गया ?

मैंने उन्हें एक काल्पनिक कहानी बता दी कि कहते हैं कठफोड़वा नर्मदा नदी के किनारे चला गया है. वहाँ वह नर्मदेश्वर के शिवलिंग तोड़ा करता है ताकि कहीं आदमी धीरे-धीरे इन शिवलिंगों को नदी से पूरी तरह उठाकर मंदिरों में न स्थापित कर दे.

इस कहानी को पढ़ने के बाद जांच अधिकारी बी.के. सिंह ने पहली बार सिर ऊपर उठाया और पूछा – “सर जी! इस कहानी का मतलब क्या हुआ?”

“इस कहानी का पहला मतलब है कि जीवन की परिभाषाएं बदल रही हैं. कठफोड़वे की तरह हमें किसी भी हालत को झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए और संघर्ष के वक्त कोई मुरव्वत नहीं बरतनी चाहिए.” यह जे.पी. भारती थे. जिनका बोलने का ना तो मौक़ा था और ना ही दस्तूर था लेकिन वे इन सब व्याधियों से दूर थे.

अब बोलने और अपने मातहतों की चिल्लपों पर कंट्रोल करने की बारी सर्किल अफ़सर नदीम जावेद की थी. चूंकि, वह कम बोलते थे और अधिक धुआँ छोड़ते थे तो उन्होंने दुखी राम के मुँह पर धुआँ छोड़ने के बाद बोलने की क़वायद की. ‘मार्लबोरो’ कंपनी की बनी सिगरेट के धुएँ में न जाने कितना कार्बन मोनोऑक्साइड था कि दुखीराम के भेजे में पसरा क्लोरोफार्म हलक़ से बोलती के साथ बाहर निकल आया - “साहब, जब अंकित पायदार ने क्लास में बच्चों को यह कहानी सुनाई तो मैंने उनका विरोध किया था कि इससे बच्चों में गलत संदेश जाता है. कठफोड़वा ने ज़मीन के मालिक़ की आँख फोड़कर उससे बदला लिया था लेकिन बदला लेना तो बुरी बात है. सर, आखिरी दिनों में कुछ ऐसा ही बोलने लगे थे अंकित पायदार. बच्चों को भी अन-एथिकल और दुनियावी बातें बताने लगे थे. बच्चों के सवालों का जवाब भी ऐसे ही देते थे.”

“अंतिम दिनों मतलब..........मरा कब था अंकित पायदार?” - नदीम जावेद ने पूछा तो दुखीराम ने नदीम जावेद की ओर देखा और नदीम ने बी.के. सिंह की ओर. 

इसी बीच भारती दुखीराम को भवन की सरहद पार पीछे न मुड़ने की तस्दीक दे विदा कर आए थे.
बी.के. सतर्क होकर फ़िर से पढ़ने लगे -

माँ और तुम दोनों ही मेरे लिए प्यार के फूल वाले पेड़ जैसी थी. तुम दोनों के चेहरे की चमक मेरे लिए रात का सूरज थी, जिसके सहारे मैं मीलों पैदल चलता रहता था.........चीना.  प्यार से यही तो कहती है माँ तुमको.

दसेक सेकेंड की एक लंबी ख़ामोशी, उसके बाद दो सौ स्क्वायर फुट के कमरे में पसरे सियापे को तोड़ती एक आवाज़ -  “साहब, ऐसी ही कुछ और फिलासफ़ी लिखी है आगे. पढ़ना है क्या?”

जाँच अधिकारी बी.के. सिंह ने नदीम की ओर झुंझलाते हुए और हँसोड़ होते हुए देखा तो नदीम की गहरेपन ने इस बात का जवाब दिया कि “हाँ, पढ़ो.”

बी.के. पास ही खड़े भारती ने धीरे से कहा – “बगल वाले कमरे में तीनों को देखने गए हैं, तुम चालू रखो.”

बी.के. भी पीली गंदली रौशनी के नीचे रखी टेबल पर बैठ गए और पढ़ने लगे - 

चीना! तुम्हारा नाम चित्रांगदा किसने रखा था? सुना है यह किसी हिरोइन का भी नाम है, जिसकी हँसी बहुत गर्म और गहरी है.

याद है गर्मी के उन तंग दिनों में गोल्डी आइसक्रीम फैक्ट्री के अंदर मैं तुम्हारी पसंदीदा केसर कोन लेने जाता था. हर बार मैं दोपहर में तुम्हारे घर के आगे साइकिल लेकर आया करता और तुम मुझे गेट के अंदर से ही एक रूपये का मुड़ा-तुड़ा नोट थमा दिया करती थी. मैं उस नोट को जेब में नहीं रखता. हाथ में पसीने से गिली हो चुकी मुट्ठी में रखकर उसी हाथ से हैंडल पकडकर साइकिल चलाता. मेरी पैंट में छोटी जेबें हुए करती थी उन दिनों. डर लगता था कि पैसें कहीं गिर न जाए. अच्छा ही था पैसे भी नहीं थे और पैसे कमाने की चाहत भी नहीं थी. आइसक्रीम लेकर मैं अपनी बिना गियर वाली साइकिल पर खड़े होकर पैडिल मारता, सिर्फ इस चाहत में कि तुम्हारी पसंद की कोई चीज़ जैसी तुम चाहो, वैसी ही रहे, पिघले नहीं और कहीं खो न जाए.

“सर, आगे कुछ पन्ने और हैं.पढ़ना है क्या?” बी.के.सिंह ने पन्नों को अपने हाथों में मोड़ते हुए कहा. बी.के.सिंह ने इतनी गंभीर और गूढ़ बातें अपने जीवन में शायद ही कभी पढी होंगी.

सर्किल अफ़सर नदीम जावेद की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आता है. 

नदीम जावेद जांच अधिकारी बी.के. सिंह की ओर देखकर बोलते हैं – “कुल कितने बयान दर्ज़ हुए हैं इस मामले में?”

इतने में भारती चाय के दो गिलास लेकर कमरे में दाखिल होते हैं. बी.के. सिंह और नदीम दोनों एक साथ उसको देखते हैं और फिर बी.के. सिंह की सामान्य ठहरी-सी आवाज़ आती है कि – “कुल तेरह लोगों के. लेकिन ‘इम्पाटेंट’ तो तीन ठो है. एक मुख्य अभियुक्त और दो सह-अभियुक्त.” 

बी.के. सिंह ‘र’ को ‘ड’ बोलने वाले इलाके से संबंध रखते थे. एस आई परीक्षा में भाषायी दक्षता वाला सेगमेंट उन्होंने कैसे उत्तीर्ण किया, यह तो खुदा जाने और उसकी खुदाई ही जाने.

छोटे कमरों की अपनी एक खासियत होती है, खाली होने पर भी वे बेहद अपने-से लगते हैं. जबकि बड़े कमरे खाली होने पर डरावने होते जाते हैं.

अर्जुन पायदार की डायरी के दूसरे पन्ने पर लिखी इस लाइन को पढ़ते हुए बी.के. ने एक बार नदीम को देखा और दूसरी बार पुराने पंचायत भवन की दीवार को. भारती भी कुछ न समझने के बावजूद भी ऐसा ही कर गुज़रे.

इस बीच बी.के. आगे बढ़े –

मैं आज अपनी कमरे में बैठकर डायरी के कुछ पन्नों पर अपनी भावनाएँ निकाल रहा हूँ. जिस स्कूल में मैं टीचर हूँ, वहाँ इन दिनों बच्चों को खिलाने के लिए घटिया राशन आ रहा है. पंद्रह बच्चों की आंत में सूजन आ गई है. लेकिन ब्लॉक डेवलपमेंट समिति के अध्यक्ष राम रतन पाण्डेय मुझे सुनते ही नहीं. हर बार उन्होंने मुझे आश्वासन देकर वापस भेज दिया है. 

बी.के. सिंह ने नदीम जावेद को अपनी जगह से हिलता देख बयान पढ़ना बंद कर दिया.

जाँच अधिकारी नदीम जावेद आगे बढ़कर एक कुर्सी पर बैठ चुके थे. सरकारी गोदामों में जलने वाले पीले बल्ब की रौशनी नदीम जावेद के सिर के ठीक उपर जल रही थी. कमरे में यूरिया की गंध अभी तक ठसी हुई थी. बल्ब के नीचे के टेबल पर नदीम का मजबूत और चौड़ी कलाईयों वाला हाथ रखा हुआ था. हाथ के ठीक बगल से धुआँ निकल रहा था.

अपनी खरखराती और पुलिसिया आवाज में नदीम जावेद ने कहा- “तीनों में यह भी है?”

बी.के. सिंह ने अचकचाकर कहा- “हां! सह-अभियुक्त राम रतन पांडे, उम्र है 31 साल. ब्लॉक डेवलपमेंट समिति के अध्यक्ष हैं. इनका बयान यह है कि -

मैं राम रतन पांडे अर्जुन पायदार को पिछले तीन महीने से जानता हूँ. अर्जुन हमारे कस्बे के प्राइमरी स्कूल में शिक्षकों की नई भर्ती के तहत आया सबसे युवा लड़का था. उसमें गजब का जोश था. बच्चों को वह नए-नए तरीके से कुछ-न-कुछ सिखाने की हमेशा कोशिश करता था. वह समोसे और चाय मंगवाने वाले शिक्षकों में से नहीं था. न ही उसे पान-सिगरेट की कोई लत थी. वह लखनउ के आस-पास का रहने वाला था. हफ़्ते के शनिवार वह अपने घर जाया करता था अपनी माँ और मंगेतर से मिलने. हमको वह लखनऊ की तरक्की के किस्से सुनाया करता था. वहाँ से दो सौ किमी की दूरी पर रह रहे हम लोगों को लगता था कि ऐसी क्या किस्मत बदली है उस शहर की? बाद में हम लोग सुने कि वहाँ कई करोड़ के तो हाथी पार्क बनवा दिए गए हैं. कुत्ते का इलाका और कुत्ते का दिन वाला कहावत सुने थे लेकिन हाथी के बारे में हमें पुख्ता तौर पर ऐसी कोई जानकारी नहीं थी.”

नदीम जावेद ने बी.के. सिंह को बीच में रोकते हुए कहा – “यह बयान है कि निबंध बी.के.?”

बी.के. सिंह को मन में ही नदीम पर थोड़ी खुन्नक आई लेकिन उन्होंने खुद को पुलिसिया अनुभव के आधार पर संभालते हुए कहा- “साहब जो उसने उस समय बताया था बताया वही पुलिस राइटर ने दर्ज किया होगा. अब तो लोग न जाने कहां होंगे?”

नदीम जावेद अपनी कुर्सी से उठकर तेजी से बल्ब के नीचे बने घेरे से बाहर निकल गए. अंधेरे में हल्की सी दिख रही परछाईं से नदीम जावेद की आवाज आई- “भारती!”

पुलिस राइटर बी.के. भारती दो फाइलों के हाथ में दबाकर कमरे में आते हैं. उनका चेहरा थोडा संगीन था.

नदीम जावेद की लगभग चीखती हुई आवाज़ कमरे में गूंजती है – “भारती, तुमको कितने पैसे मिले थे बयानों को माइल्ड करने के लिए?”

भारती को देखकर ऐसा लगा कि मानो उन पर गोर्वधन पर्वत गिर गया. पहले से उसकी उम्र पचास के आस-पास थी लेकिन नदीम की चीखती आवाज वे सत्तर के दशक के हो गए.

अगले ही पल भारती ने देखा कि नदीम जावेद सिगरेट सुलगा रहे हैं. उन्हें लगा कि यह सब किसने कहा फिर. उन्होंने अपने अंदर वाले बढ़िया आदमी को बाहर वाले घटिया आदमी की ओर से सफाई दी – “रिश्वत लेते और देते तो पुलिस राइटर ही रहते क्या, थानाध्यक्ष तो बन ही जाते कम से कम”, लेकिन सिगरेट का कश बढते देख भारती की तरफ़ से जवाब आया – “साहब, जैसा उस समय के जांच अधिकारी जी ने कहा, वैसा ही लिखा गया होगा. अब तो उ रिटायर भी कर गए, राम जाने का पता मर भी गए हों तो नहीं कह सकते.”

बी.के. सिंह और पुलिस राइटर जे पी भारती ने एक दूसरे को देखा. उनकी तीनों की बातचीत पंचायत भवन के दूसरे कमरे में बैठे राम रतन पांडे तक आसानी से पहुंच सकती है. अनिश्चित से दिख रहे नदीम – “आगे!”

जिस जगह पहले नदीम जावेद बैठे थे, उस जगह अब बी.के. बैठ गए और अर्जुन पायदार हत्याकांड मामले के सहअभियुक्त राम रतन पांडे का अधूरा रह गया बयान पढ़ते हैं – 

“हम सबको बढी खुशी हुई जब बेसिक शिक्षा अधिकारी ने अर्जुन को तरक्की देते हुए स्कूल का कार्यकारी प्रधानाचार्य बना दिया. उसने काम भी अच्छे किये. मेरा उसको पहली बार जानना तब हुआ. जब उसने मिड डे मील के तहत स्कूल में बंटने वाले राशन के सिलसिले में मुझसे संपर्क साधा. उसने शिकायत की और मैंने संबंधित गोदाम के कर्मचारी को फटकार लगाते हुए स्कूल में अच्छा अनाज भेजने का आदेश दिया. उसके बाद से मुझे अर्जुन की तरफ़ से कोई शिकायत नहीं आई. मैं बस अर्जुन के बारे में इतना ही जानता हूँ.”

पुलिस की इस जांच कोठरी में पहले सह-अभियुक्त का बयान पढ़ने के बाद बी.के. ने एक लंबी सी सांस ली और एक दो बार खाँसा. खाँसी मौसम के बदलने से होने वाली सामान्य खांसी नहीं थी. यह जिंदगी के मौसम में फिट न हो पाने से शुरू हुई और बाद में लत बन चुके धुएं की खांसी थी.

नदीम न जाने किससे कहते हैं – “जानते हो! यह फाइल यहां क्यों खोली जा रही है और इन लोगों को यहां क्यों बुलाया गया है?”

“क्यों?”- न जाने किसकी आवाज आई कमरे में और न जाने नदीम ने क्या उत्तर दिया. शायद महकमे की बात रही हो. 

बी.के. नियत भाव से पढ़ते रहे –

आज मैं बब्बन सिंह के पास गया. सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान का लाइसेंस उसी के पास है. मैंने राशन की खराबी की बात कही. उसने मुझे चाय पिलाई और बिना किसी फैसले पर पहुंचे वापस भेज दिया. मैंने माँ को फोन लगाया और चीना से भी बात की. मैंने तय किया है कि अब हफते में तीन दिन स्कूल में सूजी का हलवा बनवाया जाएगा. उसमें उतनी मिलावट भी नहीं है और बच्चों को डाइजेस्ट भी हो जाएगा. मुझे सूजी का हलवा बहुत पसंद है. एक बार बचपन में गर्मागर्म किशमिश मेरी जीभ पर जाकर चिपक गया था लेकिन, मैंने फिर भी हलवा खाना बंद नहीं किया. माँ अक्सर पूजा के समय सूजी या आटे का हलवा बनाती है और मैं पूरे प्रसाद में सिर्फ हलवा खाकर बाकी का उसको वापस कर देता हूँ. मैं-माँ और चीना सब बहुत खुश रहते हैं. जीवन ऐसा ही बीत जाए तो कैसा हो, चलिए शुभ रात्रि.

बी.के. इतना पढ़कर शांत हो गए और बोले कि साहब इस पन्ने में बस इतना ही है.

नदीम जावेद ने बी.के. से कहा- “तुम बब्बन सिंह का बयान पढो.”

बी.के.उस पीली रौशनी के नीचे रखी टेबल पर रखे रजिस्टर को पलटकर बब्बन सिंह का बयान पढ़ते हैं – 

“मैं बब्बन सिंह वल्द पुन्नी सिंह अपने होशों-हवास में यह कह रहा हूँ कि अर्जुन पायदार से मैं कभी नहीं मिला. ना ही सरकारी प्राइमरी स्कूल में कभी गया. मुझे तो यह पता नहीं कि स्कूल का प्रधानाचार्य होने के नाते उसे ही क्षेत्र की जनगणना का मुख्य अधिकारी बनाया गया है. मैंने तो इस मामले की खबर अखबार में पढ़ी साहब. दैनिक पंचायत में, वो भी सरपंच नगीना सिंह और राम रतन पांडे के साथ ही.” 

बब्बन सिंह के बयान के पढे जाने के बाद कमरे में कुछ देर के लिए सुकून पसर जाता है. कुछ शान्त-सी फाइलों का सन्नाटा. फाइलों की भी एक सन्न दुनिया होती है. कचहरी में हैं तो हत्या, बलात्कार, बलवा और अपराधों की कहानी अपने में समेटे हैं. आरटीओ दफ़्तर में हैं तो टू व्हीलर फोर व्हीलर से लेकर रजिस्ट्रेशन-इंश्यारेंस तक और अगर कहीं प्राविडेंट फंड या पेंशन ऑफिस में हैं तो मृतक या जीवित व्यक्ति से बिना किसी मोह के उनके उत्तराधिकारी के विवरण के साथ. ये महज फाइलें नहीं बल्कि, कहानियाँ होती हैं. इन्हें समझकर लिख देने वाला ही किस्सागो कहा जाता है. दुनिया भर के तमाम दीमकों के पास अगर दिल है तो उनसे मेरी बातों को गंभीरता से लेने का अनुरोध है. सब कुछ खा जाएँ भाईयों, लेकिन फाइलों को छोड़ दिया करें.

भारती को कुछ माहौल नहीं समझ में आ रहा था तो उसकी मानसिक खलबली से यह सन्नाटा टूटा. 

लेकिन बी.के. जारी रहते हैं -          

राम रतन पांडे, बब्बन सिंह और नगीना सिंह हिंदुस्तान की रीढ में लगे करप्शन के घुन हैं. मैंने इनसे अपने लिए कुछ भी नहीं माँगा था. मैंने स्कूल के लिए अच्छा राशन माँगा. जो मुझे मिला नहीं. मुझे डायरी लिखने की पुरानी आदत है. पापा के जमाने से. पापा भी लिखते थे. अब वे नहीं रहे. माँ भी डायरी लिखती है. मैं माँ से जब मिलने जाता हूँ तो उनकी डायरी चोरी से पढ़ लेता हूँ. इधर वे मेरी बढी हुई परेशानियों को देखकर मुझसे कई चीजें छिपाने लगी हैं. डायरी के उन पन्नों में माँ की परेशानियों को ही नहीं पढ़ता बल्कि एक अकेली महिला की लाइलाज बीमारी अकेलेपन के बारे में भी जान लेता हूँ.

“साहब ये दूसरा पन्ना था”, बी.के. रिदम तोड़ते हुए बोले.

नदीम जावेद बोले – “आगे पढ़ो!” और पुलिस राइटर भारती की ओर इशारा किया. भारती अंदर से बाहर गया और उसकी हल्की-सी आवाज़ आई कि एक चाय अंदर ले आना. नदीम ने भारती को देखा तो उनको लगा कि थाने वाली आदत लग गई है. यहां कौन चाय लाएगा. यहां तो उन्हें ही लाना पडेगा चाय. अब तक पूरा वार्तालाप अंदर की ओर हो रहा था. बाहर से भारती की अंदर तक पहुंची आवाज से लगा कि बाहर की तरफ़ मरी हुई हवा जिंदा हो गई है.

बी.के. पूरी रौ में अर्जुन पायदार की डायरी पढ़े जा रहे थे - 

आज मैं जनगणना की फाइनल लिस्ट दिखाने सरपंच नगीना सिंह के पास गया. उन्होंने मुझे बड़ी इज्जत के साथ बिठाकर बात की. सरपंच के साथ यह मेरी पहली मुलाकात नहीं थी. मैं राम रतन पांडे और बब्बन सिंह से मिलने से पहले भी कई बार नगीना सिंह से मिल चुका है. मछली का एक बडा तालाब है उनका. मोती सी आंखों वाली कई अनेक प्रजातियों की मछलियां पाल रखी है उन्होंने. वहाँ पहले छोटी-छोटी सीप के आकार की मछलियां झिल्लियों में भरकर लाई जाती हैं. फिर उनका चारा दिया जाता है. जब वह जवान होती हैं उन्हें तालाब से बाहर निकालकर बेच दिया जाता है. यह सारे काम नगीना करता है. मत्स्य पालन के लिए उसने पंचायत के सबसे बडे तालाब का पट्टा करवा रखा है जबकि कानूनन ऐसे किसी तालाब का पट्टा दस साल के लिए जरूरतमंद को करना होता है.

मैंने नगीना सिंह को गांव के जनगणना की फाइनल रिपोर्ट दिखाई. कुल 12 हजार आबादी हो गई है इस बार गांव की. पिछली जनगणना से तीन हजार ज्यादा. नगीना सिंह ने लिस्ट देखते हुए कहा- यह तो बहुत कम है. उन्होंने एक और लिस्ट मुझे दी और कहा- यह सब गांव के लोग हैं. इन्हें भी इस लिस्ट में शामिल कर लीजिए. मेरे लिए यह एक नई और गलत बात है. मैंने कहा कि ये तो गलत है तो नगीना ने कहा कि सही और गलत का फैसला करने के लिए सरपंच यहां बैठे हैं.

बी.के. सिंह को बीच में रोकते हुए नदीम जावेद ने कहा- “यह नगीना सिंह कौन? इसकी हिस्ट्री क्या है?”

बी.के. आगे पढ़ते रहे-

आज मैंने दुखी राम से नगीना की लिस्ट के बारे में बताया. दुखी गांव का स्थानीय है और स्कूल में मेरा साथी टीचर है.

दुखी ने कहा- “तुम नगीना सिंह के चक्कर में मत उलझो. वह पूर्वी शहर के एक रसूखदार परिवार से संबंध रखता है.”

मैंने उससे कहा कि जो लोग रजिस्टर मर चुके हैं, उनके नाम को वोटर लिस्ट में जोडने के लिए नगीना सिंह मुझसे कह रहे हैं. इस नई लिस्ट के जुडने से गांव की कुल आबादी 17 हजार हो जाएगी. अकेले ये पांच हजार वोट ही उसे जिताने के लिए काफी हैं. बाकी के वोट अन्य उम्मीदवारों में बंट जाएंगे. दुखी ने बताया कि तुम नगीना सिंह की बात मान लो. वह राजनीति में आने से पहले एके-47 की सप्लाई किया करता था  उसके ये सारे वोटर्स बड़े शहरों में काम करते हैं जिन्हें नगीना सिंह जैसे लोग चुनाव के समय पैसे के दम पर वोट देने के लिए बुला लेते हैं. ये लोग नगीना जैसे निरंकुश लोगों की असली ताकत हैं.

कल मुझे माँ से मिलने लखनऊ जाना है. मैं बहुत परेशान हूँ. नगीना सिंह के फेवर में मैं काम नहीं करना चाहता लेकिन डर लगा रहा है. चीना को भी मैंने इस बारे में कुछ नहीं बताया है.

बी.के. ने कहा – “साहब! जितना मुझे पता है कि एक दो-बार उसकी माँ और मंगेतर जरूर यहां आई लेकिन केस ठंडे बस्ते से बाहर नहीं निकला. केस जिला सत्र न्यायालय की फाइलों में अभी भी बंद है सर.”

नदीम जावेद बी.के. की पूरी बात ध्यान से सुनते रहे और बोले- “भारती साहब!” और चाय की चुस्की लेते हुए कहा पुलिस राइटर भारती से पूछा – “क्या दिक्कत है ?”

“सर, कोर्ट चाहती है कि मामले को बंद कर दिया जाए क्योंकि सात साल होने को है और अर्जुन का कुछ भी पता नही है.”

नदीम ने सिगरेट जमीन पर फेंकी और उस पर पैर रखकर बलपूर्वक मसल दिया.

नदीम की आवाज़ आई – “लिखिए!”

अगले ही पल भारती पुलिस राइटर की भूमिका अदा करते हुए अदालत से थोड़ी और मोहलत माँगने संबंधी पत्र लिख रहे थे.

उनके दिमाग में डायरी के बयान अभी भी चल रहे थे. इतने बडे सुबूत के बाद इस केस में कार्रवाई नहीं की गई.
“बी.के. एक काम करो.”

बी.के. नए सर्किल अफ़सर की चेहरे की तरफ़ देखने लगे.

“कब तक स्टे लगा है इस पंचायत भवन पर?”

बी के मुस्कुराए और पहली बार ऐसा लगा कि बी.के. को चेहरे की इस विधा के बारे में भी पता है.

“सर, पिछली पंचवर्षीय से बंद है. सारा मद-माल नगीना नए भवन में ले गया है. फिलहाल छह महीने का स्टे है.”

नदीम ने भारती को ओर देखा, भारती साहब अभी भी लिखे जा रहे थे.

“आपने कालेज कौन से विषय में उत्तीर्ण किया है भारती साहब!”

भारती ने लिखना रोक दिया, ऐसा लगा कि उनसे कोई जानलेवा सवाल पूछ लिया गया.

“विज्ञान, साहब! जीव विज्ञान”

“एक सामान्य आदमी बिना खाए-पीए कितने दिन रह सकता है?”

भारती भी मुस्कुराए, उनको भी चेहरे की एक सर्वविदित उपयोगिता का पता चल गया था, आखिरकार.

“साहब! इस बारे में तो हम सोचे नहीं.”

“अच्छा, यह काम बहुत सही किया भारती साहब आपने, वैसे आखिरी बार कब सोचा था आपने” - नदीम सिगरेट सुलगाते हुए बोले.

भारती के चेहरे की गंभीरता को देख नदीम ने कहा- “मजाक भी नहीं कर सकता आपसे!”

नदीम कमरे से बाहर निकलते हुए बोले- “तीनों ने चप्पल पहना है या जूता बी.के.?”

“जूता सर! जूता!”

“उनके मोजो में पुरानी यूरिया भरकर मुँह में ठूंस दो और पट्टी मार दो; हाथ पर और पैर पर भी.कमरा बंद कर दो और तुम दोनों 20 मिनट के अंदर गाड़ी में मिलो.”

नदीम चलते रहे. बी.के. और भारती कहीं के नहीं रहे.

हिंदी फ़िल्म होती तो दोनों को झकझोरने की जरूरत महसूस की जाती.

बाहर मौसम गंदला था. मैदान में बच्चों के हुड़दंग और खेल से उठी धूल शाम के धुंधलके को गहरा रही थी. नदीम की साँस फूलने लगी. शिव मंदिर के बाहर लगे चापाकल पर उन्होंने मुँ धोया. उनको लगा कि क्या इस मंदिर में भी शिवलिंग है? उनके जेहन में कोई कठफोड़वा भी बोल रहा था. कट-कट के बीच उन्हें गांव के पीछे से गांव के दो-तीन घरों में लालटेन जली दिख रही थी. दक्षिणी कोने से पुक-पुक, पुक-पुक की आवाज किसी आटा चक्की से आ रही थी. दो कुत्ते नदीम के पास तक तेजी से दौड़ते आए. पास आकर धूल में लोटने लगे. जैसे उनको भी समझ में आ गया कि इलाके के नए सर्किल अफ़सर साहब हैं. नदीम उनके पास धूल में घुटनों के बल बैठ गए और दोनों को सहलाने लगे. बी.के. और भारती आते हुए दिखाई दिए.

“सर, पाव-पाव किलो तो ठूंस ही दिए हैं.”

“शाब्बाश भारती!”

“सील, ताला, चाभी. सब जस की तस सर”

“कुछ दिनों बाद सफाई करवा देना गोदाम की और स्टे ऑर्डर को वैसे ही सहेजकर रखना और भारती का नाम आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन के लिए जाएगा.”

भारती को लगा कि आधा किलो ठूँसना चाहिए था. लाइफ का प्राब्लेम ही खत्म हो जाता. जीप स्टार्ट हुई. बी.के. अभी भी तक अर्जुन पायदार की डायरी के पन्नों को सहेज रहे थे.

“सर, आखिरी पन्ने पर एक महिला की आंखों का स्केच बना है. नीचे लिखा है चित्रांगदा”

जीप फिर से घुरघुराकर आगे बढ़ गई. कुत्ते थोडी दूर तक पीछे दौड़े , फिर रूककर एक दूसरे के साथ खेलने लगे. नदीम ने सिगरेट अपने मुँह को लगाई और माचिस ढूंढने लगे तभी पीछे से एक रौशनी आई जो कि ठीक भारती के सामने बैठे व्यक्ति द्वारा की गई थी. उसके बगल की दो और सीटें भरी हुई थी. जीप में बर्बर ठहाका गूंज उठा.