रविवार, 29 जुलाई 2012

संगीतकार सज्जाद हुसैन की खोज में - १ : अशरफ़ अज़ीज़

कहन

(द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूर्वी अफ़रीक़ा में मज़दूरी करने गए और फिर वहीं बस गए एक भारतीय परिवार में अशरफ़ अज़ीज़ का जन्म हुआ। हिन्दुस्तानी फ़िल्में और फ़िल्म संगीत बचपन और जवानी के साथी रहे - इन्हीं से उनने और उनके भाइयों ने अपनी हिन्दुस्तानी - बल्कि दक्षिण एशियाई - सांस्कृतिक पहचान हासिल की। तंज़ानिया और युगांडा में शिक्षाप्राप्ति के बाद वह छात्रवृत्ति पर अमरीका चले गए। वहाँ 1964 में उन्होंने विस्कॉन्सिन-मेडिसन विश्वविद्यालय से प्राणिशास्त्र में पी एच डी की। तब से वह वाशिंगटन के हॉवर्ड विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ मेडिसिन में शरीरविज्ञान पढ़ाते हैं। दक्षिण एशिया की पॉपुलर कल्चर पर उनका काम बहु-प्रशंसित है।
यह संस्मरणात्मक वार्ता रेडियो फ़ीचर के रूप में 1997 में वॉयस ऑफ़ अमेरिका की हिन्दी सेवा द्वारा प्रसारित की गई थी। इसे वॉयस ऑफ़ अमेरिका की विजयलक्ष्मी देसराम नेरिकार्ड किया। लिप्यान्तर और प्रसारण के लिए पाठ उन्हीं का तैयार किया हुआ है। रेडियो के इतिहास में ऐसी दिलचस्प और जादुई वार्ता - ख़ासकर हिन्दी-उर्दू में - शायद ही कभी सुनने को मिली हो। 'जलसा' के नए अंक (जलसा २०११ - निर्वासन) में प्रकाशित इस वार्ता का मूल शीर्षक है : सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब उर्फ़ जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे यानी ईस्ट अफ़रीक़ा में हिंदुस्तानियों का सफ़र, हिंदुस्तानी संगीत के सहारे संगीतकार सज्जाद हुसैन की खोज में.
इस लेख के सन्दर्भ में कुछ भी कहना कम ही होगा. पाठक राय और समझ विकसित करने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि कुछ भी कहने में इस लेख को ही दुबारा लिखना पड़ेगा. बुद्धू-बक्सा असद ज़ैदी, विजयलक्ष्मी जी, जवरीमाल पारीख और अशरफ़ अज़ीज़ का शुक्रगुजार रहेगा. इस पूरे संस्मरण की आखिरी किश्त में हम अशरफ़ साहब का वो मेल भी पढाएंगे, जो उन्होंने मुझे लिखा था, और जिसमें उन्होंने अपने समय की आत्मीयता को दर्ज़ करने का प्रयास किया.)



वो रात दिन वो शाम की गुज़री हुई कहानियाँ
जो तेरे घर में छोड़ दीं प्यार की सब निशानियाँ 
- हसरत जयपुरी

साहित्य के बग़ैर इतिहास में कोई ज़िन्दगी नहीं है। वह बेमतलब की तारीख़ों की एक फ़ेहरिस्त है। फिर भी, जो इतिहास लिखा भी गया है, उसमें न तो जनता है और न जीते-जागतेइंसान। शहंशाह हैं, राजा हैं, नवाब हैं या ठाकुर। लेकिन जो मुल्क को काँधे पर उठाये थे, वो बेनाम हैं। उनका नाम हमें लोक कला में मिलता है उनके लोक गीतों, पाक विद्या, उनकेलिबास और उनकी कहानियों में। हिंदुस्तान का फ़िल्म संगीत उनके इंडिपिडेंस के साथ ही शुरू हुआ और इसे आज़ादी के संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता। मैं इतना दाना नहीं किकहानी लिख सकूँ। हाँ, कहानी की शक्ल में अपनी कुछ पुरानी यादें साउथ एशिया की पचासवीं साल गिरह पर जागी हैं वह आप तक पहुँचाने का एक छोटा सा प्रयास है। शायद ये आपके कुछ काम आए।


1860 में हिंदुस्तानियों का पहला बनवास और उसके कारण
चाय, शक्कर, रेल और जंग हिंदुस्तान के हज़ारों लोगों की ग़ुलामी और कठोर ज़िदगी की देन बने। पिछली सदी में ब्रिटिश राज में शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून में बेबस ज़िंदगी जीने पर मजबूर करने के बाद भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों इलाकों से हज़ारों की संख्या में लोगों की मज़दूरी के लिए जहाज़ों में भरकर करीबियाई द्वीप, दक्षिण अफ़रीक़ा, पूर्व अफ़रीक़ा, हांगकांग, मलेशिया, सिंगापुर और फ़िजी ले जाया गया। इस तरह बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेजा जाना हिंदुस्तानियों के भविष्य का संकेत बना। 


हमारा परिवार ज़िला स्यालकोट से है। लेकिन मेरे माता-पिता का बचपन खडगपुर में बीता। मेरे दादा और नाना ब्रिटिश इंडिया रेलवे में कारीगर थे। मेरे दादा उस दौरान पूर्वी अफ़रीक़ा में, मोंबासा से वोई तक की सौ मील की पहली रेल पटरी डालने के लिए 1896 में पंजाब से मोंबासा गए और काम पूरा होने पर लौट आए।


हमारे बनवास का दूसरा दौर मेरे माता-पिता ने शुरू किया जो पहली जंग के बाद टांगानिका (तंज़ानिया) के टांगा शहर में बस गए। हिंद महासागर में एक छोटा सा बंदरगाह, जर्मन ईस्ट अफ़रीक़ा की राजधानी था। पहली लड़ाई में शहीद हुए हिंदुस्तानियों के निशान टांगा और मोशी के बीच बिछी रेलवेलाइन के दोनों ओर आज भी नज़र आते हैं। सेना में जो मुसलमान थे, उनके फिर भी क़ब्रों के निशान हैं लेकिन हिंदुओं और सिक्खों के वजूद तो अगरबत्ती की महक की तरह फ़िज़ा में गुल हो गए हैं। उनके बलिदान का सबूत है, ब्रिटेन की जीत। 


न किसी की आँख का नूर हूँ,
न किसी के दिल का क़रार हूँ,
जो किसी के काम न आ सके
वो एक मुश्ते गु़बार हूँ।


हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत से पहली मुलाक़ात
पहली लड़ाई के बाद लीग ऑफ़ नेशन ने टांगानिका ब्रिटेन को सौंप दिया। फिर तो इस देश को आबाद करने के लिए और भी हिंदुस्तानी वहाँ पहुँचे। मेरे पिता टांगामोशी रेलवे के मुलाज़िम थे। इस तरह हमारी ज़िंदगी का कारोबार चलने लगा। मुझे इस बात पर आज भी ताज्जुब है कि वो धमाका जिसने हिरोशिमा और नागासाकी को राख बनाकर इतिहास को नया मोड़ दिया, उसकी मुझे कोई याद नहीं। लेकिन ये साफ़ याद है, 1945-46 में मेरे सबसे बड़े भाई मसूद कीनिया के सबसे बड़े पोर्ट शहर मोंबासा से एक ग्रामोफ़ोन और कुछ 78 आरपीएम रिकार्ड ख़रीद कर लाए। उस शहर में हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत ने पहला क़दम हमारे घर में रखा था। रात की दूधिया चांदनी में, घर के बरांडे में, पहला फ़िल्मी गीत जो मैंने सुना था, वह था नूरजहाँ का गाया फ़िल्म विलेज गर्ल का गीत, ‘बैठी हूँ तेरी याद का लेकर ये सहारा’। इंतज़ार के इस गीत में नूरजहाँ की आवाज़ मुझे बेहद सुरीली औरजोश भरी लगी। 


बैठी हूँ तेरी याद का लेकर ये सहारा 
आ जाओ कि चमके मेरी क़िस्मत का सितारा।


हमारे बड़े भाई ने तुरंत कहा, ‘भाई गीत नूरजहाँ गा रही है, लेकिन संगीतकार हैं, श्यामसुंदर।’ उस दिन दूसरा गीत जो उन्होंने बजाया वह फ़िल्म दोस्त का था, लेकिन आवाज़ नूरजहाँ की ही थी। संगीतकार थे, सज्जाद हुसैन। ‘कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया।’ भाई साहब ने बड़े अंदाज़ से कहा, ‘जिस होनहार नौजवान संगीतकार ने संगीत दिया है, आने वाले समय में बहुत चमकेंगे।’


आज मेरे दिल का शीशा 
हाय टूट गया, हाय टूट गया।


उस रात के बाद भाई जब भी मोंबासा जाते वहाँ की मशहूर सलीम रोड के शंकर दास एंड संज़ से रिकार्ड ले आते। टांगा और मोंबासा की दूरी लगभग 120 मील की है। उस ज़माने में रास्ते कच्चे थे। थोड़ी ही बरसात में कीचड़ से भर जाना आम बात थी। बारिश में वहाँ की लूंगा लूंगा नदी में पंटून (फ़ेरी)की आवाजाही बंद हो जाती। और फिर मोंबासा पहुँचने के लिए एक और फ़ेरी लिकोनी पर जाना पड़ता था। बचपन में लगता था, मोंबासा चांद के पार है। फ़िल्मी गीत वहीं से आते हैं। 


सबसे बड़े भाई पिता समान थे। बहुत से कामों की शुरुआत उन्होंने की। ग्रामोफ़ोन और फ़िल्मों के गीत भी घर में वही लाए। उन्हें संगीत से लगाव था लेकिन उनसे छोटे भाई अय्यूब को तो फ़िल्मी संगीत और फ़िल्मों का जूनून था। जबकि मैं सोचता था कि हिंदुस्तानी फ़िल्मों और उनके गीतों को अलग नहीं किया जा सकता। हालाँकि अय्यूब सगे भाई थे, लेकिन मुझे लगता था कि वह आधे हमारे साथ हैं और आधे फ़िल्मों की स्क्रीन में हैं। क़द के छोटे थे, आवाज़ भारी और अदाओं की वजह से बडे़ भाई से भी बड़े लगते थे। वह पुरानी फ़िल्मों - पृथ्वी वल्लभ, सिकंदर और पुकार - का ज़िक्र करते समय एक साथ तीन-चार भूमिकाएँ करते। उन्हें इन फ़िल्मों का एक एक डॉयलाग  याद था। जो फ़िल्में मैंने नहीं देखी थीं, उनकी एक्टिंग से मुझे आज भी लगता है कि मैं उन्हें देख चुका हूँ। यह फ़िल्में उन्होंने बचपन में मोंबासा में देखी थीं। पुकार फ़िल्म में चंद्रमोहन और सोहराब मोदी की एक्टिंग और डॉयलाग को वो सिनेमा की कला की हद मानते थे। उनका कहना था कि अभिनेताओं के बीच दो बातें नहीं हो रही थीं, तलवारें चल रही थीं। और उनके डॉयलाग से कहानी आगे बढ़ रही थी। उनकी नज़र में मोतीलाल और अशोक कुमार ही सिनेमा के सही आर्टिस्ट थे क्योंकि इन दोनों की एक्टिंग बड़ी सधी हुई थी। लेकिन ये बड़ी दिलचस्प बात थी कि भाई स्वयं सोहराब मोदी और चंद्रमोहन की (पारसी) थियेटर वाली एक्टिंग करते थे। इस बारे में उनकी सोच थी कि अगर वे ख़ुद भी सिनेमा में होते तब वह मोतीलाल बनते। 


ये मेरी खु़शकिस्मती है कि अय्यूब मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े थे, परंतु उनका हर छोटे, बड़े के साथ दोस्त का सा व्यवहार था। उनके साथ बैठकर कभी महसूस नहीं हुआ कि बड़े भाई के साथ बैठे हैं, बल्कि जिगरी दोस्त का एहसास होता। 


हमारे शहर के पहले सिनेमाघर का नाम था मैजेस्टिक। ये पहले युद्ध के सिपाहियों के क़ब्रिस्तान के सामने था। भाई ने समझाया था, सिनेमा और क़ब्रिस्तान का गहरा संबंध है। सिनेमा इंसान की मौत का रिकार्ड है। कहते, सहगल चल बसे लेकिन देवदास फ़िल्म में हम उन्हें बार-बार मरते देख सकते हैं। मैजेस्टिक में हमने पहली हिंदुस्तानी फ़िल्म रतन देखी थी। वो मुझे कंधे पर बिठा कर ले गए थे। शाम का समय था। ऊंचाई से मैंने देखा, क़ब्रिस्तान लोगों से भरा हुआ है। ये वह लोग थे जिन्हें फ़िल्म के टिकट नहीं मिले थे। वहाँ अच्छी खासी जंग चल रही थी। मुझे लगा, ऐसी हालत में आज तो फ़िल्म नहीं देख सकेंगे। भाई ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हमने सब बंदोबस्त किया हुआ है।’ बड़े भाई अय्यूब की दोस्ती सिनेमा के प्रोजेक्शनिस्ट अफ़रीक़ी भाई उम्टो से थी। उन्होंने उम्टो को समोसे खिलाकर पहले ही टिकट लिये हुए थे। फ़िल्म रतन में करन दीवान और स्वर्णलता पर फ़िल्माए गीतों कीयाद आज भी ताज़ा है। ‘अँखियाँ मिलाके, जिया भरमाके, चले नहीं जाना/ओ, ओ चले नहीं जाना’। रतन के गीतों ने विलेज गर्ल और दोस्त के गीतों को धूमिल कर दिया। लेकिन ये गीत पुराने गीत जो चमड़े के ख़ूबसूरत बैग में संभालकर रखे हुए थे, हम लोग कभी कभी रात की तनहाई में बजाते। 


‘अँखियाँ मिलाके...’


संगीतकार सज्जाद अपनी बदमिज़ाजी की वजह से मशहूर होते रहे। उनके साथ के संगीतकार थोड़े ही वक़्त में एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते आगे बढ़ गए। एक दिन मेरे भाई मसूद के एक दोस्त ने ‘कोई प्रेम का देके संदेशा’ रिकार्ड लिया, तो कभी लौटाया नहीं। हमारे यहाँ उसूल था कि कोई हमारे यहाँ से कोई चीज़ उधार लेकर गया है, तो वही लौटाएगा, हम उसे याद नहीं दिलाते। आज तक उस रिकार्ड के खोने का अफ़सोस पूरे परिवार को है। कभी-कभी भूली बिसरी याद की तरह उस रिकार्ड का ख़़याल आता तो हम उस रात की बातें करते जब हमने यह गीत पहली बार अपने घर में सुना था। सज्जाद के बारे में चर्चा होती कि वह क़ुदरत का ऐसा तराशा हुआ हीरा है, जिसका इल्म न तो हिंदुस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री को, न ही फ़िल्म संगीत को चाहने वालों को है। 


साउथ एशिया की आज़ादी
हिंदुस्तान की आज़ादी ज़लज़ले की तरह आई जिसने हज़ारों मासूम लोगों को निगल लिया। हमारे यहाँ सियासी मामलों पर बात नहीं होती थी। लेकिन हिंदुस्तान के टुकड़े होने की बात चलती तो अय्यूब के चेहरे पर काले बादल छा जाते। वह कहते जिस इतिहास ने मास्टर ग़ुलाम हैदर, नूरजहाँ,खुर्शीद अनवर, फ़ीरोज़ निज़ामी, ए आर चिश्ती और रफ़ीक़ ग़ज़नवी को हिंदुस्तान से अलग कर दिया, उसमें कोई अच्छाई नहीं हो सकती। वह कहते हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत की मिठास हमेशा के लिए कम हो गई है और कम रहेगी।


साउथ एशिया की आज़ादी की ख़बर 1949 में उस दिन आई जब शहीद फ़िल्म का दो पार्ट का मार्चिंग गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हो’ आया। ये गाना सुनकर मेरे भाई कहने लगे, ‘लगता है वहाँ कुछ हुआ है।’ ये गीत मास्टर ग़ुलाम हैदर ने कंपोज़ किया था। हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत के वे पायोनियर संगीत निर्देशक थे जो नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरेन्द्र कौर और लता मंगेशकर को फ़िल्मों में लाए। ये गीत बनाने के बाद हौसला हार कर वे पाकिस्तान चले गए। जब शहीद फ़िल्म अफ़रीक़ा में आई तो ब्रिटिश सरकार ने उसे बैन कर दिया। भाई अय्यूब उन नौजवानों में थे, जिन्होंने थियेटर के बाहर हंगामा किया। नतीजा ये हुआ कि फ़िल्म को सेंसर कर दिखाया गया। उसमें से तिरंगा फहराने वाला दृश्य काट लिया गया। ये फ़िल्म देखने के बाद हमारे शहर के हर नौजवान की हेयर स्टाइल बदल गई थी। थोड़े ही वक़्त बाद पाकिस्तान से ख़बर आई कि ग़ुलाम हैदर चल बसे। मेरेभाई ने रात अफ़सोस में मैख़ाने में गुज़ारी। 
गाँधी, नेहरू और जिन्ना से क्या हुआ, भाई की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें तो कलाकारों के बिछड़ने का ग़म था। उनकी फ़ेवरेट फ़िल्म राजकपूर की आग थी। वह बड़ी ख़ुशी से मुझे दिखाने के लिए ले गए थे। फ़िल्म में हीरो का चेहरा आधा जल जाता है और वह बदसूरत हो जाता है। उन्होंने कहा, ‘यह फ़िल्म हीरो, हीरोइन की नहीं, एक मुल्क की कहानी है’:


ज़िंदा हूँ इस तरह कि ज़िंदगी नहीं
जलता हुआ दिया हूँ, मगर रोशनी नहीं।


‘ये हीरो कोई नहीं वह हिंदुस्तान है जो पार्टिशन में आधा जल गया।’ हर फ़िल्म, हर गीत उनके लिए एक किताब थी। वह उनमें हर तरह से उनका सियासी अर्थ समझने की कोशिश करते। जुगनू फ़िल्म का मशहूर गीत, ‘यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई सिवा क्या है’ इसे वे रोमांटिक गीत नहीं सियासी गीत मानते थे। उनका कहना था, कौन किससे बेवफ़ा हुआ ये निर्भर करता है, कौन बॉर्डर के किस तरफ़ है:


यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है
इसी का नाम दुनिया है। 

एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत की खोज के सफ़र की इब्तिदा
1953 में मेरे भाई अय्यूब टांगा से क़रीब 80 मील दूर टांगा-मोशी रेलवे लाइन पर एक साइसेल स्टेट में काम करने चले गए। साइसेल अफ़रीक़ा अफ़रीक़ा का जूट था। उससे रस्सी और बोरियाँ बनाई जाती थीं। ये व्यापार ही उस इलाके की रोज़ी रेाटी का ज़रिया था। हर काम साइसेल की फ़सल से जुड़ाहुआ था। अप्रैल में बारिश का महीना शुरू ही हुआ था। मैं उस समय करीम जी सैकेंडरी स्कूल में आठवीं क्लास में पढ़ता था। घर में हिसाब के टीचर मास्टर दया भाई के डंडों के डर से पाइथोगोरस की थियोरम बारबार दोहरा रहा था। लेकिन फिर भी याद नहीं हो रही थी। मास्टर दया भाई के जगत में बहुत कुछ था पर दया का नामोनिशाँ नहीं था। उसी समय भाई अय्यूब आए। घर में अचानक हलचल-सी मच गई। हम सब अपनी अपनी परेशानियाँ भूल गए। उन्होंने मुझसे कहा, ‘कल हम सफ़र पर चलेंगे।’ उन्होंने बताया, ‘मोरोगोरो शहर में, एक हाजी के घर में ”कोई प्रेम का देकर संदेशा“ गाना है, बहुत मुश्किल से हमने बात बनाई है कि हम वहाँ जाकर गीत सुन सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘यह सिनेमा संगीत की बात है, थियोरम की नहीं। वह तो तुम कल भी याद कर लोगे। अब या तो इतिहास से जुड़ जाओ या स्कूल जाओ। मास्टर जी को चिट्ठी मैं लिख दूँगा कि शादी ब्याह का मामला है, तुम्हेंबाहर जाकर रहना पड़ रहा है।’ मेरे लिए ईद के दिन दिवाली हो गई। उसी रात तैयारी की। पोटली लेकर सुबह-सुबह हम दोनों ट्रेन पर चढ़ गए। आगे बढ़ती जा रही ट्रेन के दोनों ओर काजू के पेड़ों पर परिंदे मंडरा रहे थे। मुझे ऐसा लगा, ये भी काजू की ख़ू़बसूरती को एप्रीसिएट कर रहे हैं। एक के बाद एकस्टेट आते रहे। वे क़ब्रिस्तान आते रहे जिनमें हिंदुस्तान के वे सैनिक दबे थे जिनकी किसी को याद नहीं। 


पढ़े फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाये क्यों
कोई लाके शम‘अ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी की मज़ार हूँ ...
जो उजड़ गया वो दयार हूँ।


मेरे भाई समझाने लगे, ‘साइसेल को साइसेल न समझो। यह वह धागा है जिससे हमारी ज़िंदगी पिरी हुई है, अगर यह टूट गया तो हम बिखर जाएंगे।’


उस जगह से बहुत दूर, कोरिया की जंग हो रही थी। उससे साइसेल की क़ीमत बहुत बढ़ गई। इसे सोने का धागा कहा जाने लगा। भाई कहते जब तक जंग चलेगी, हमारी ज़िंदगी का कारोबार भी अच्छा रहेगा। लड़ाई में कौन अपाहिज हुआ और कौन मर रहा था, इसकी उन्हें कोई फ़िक्र नहीं थी। उनको इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि पड़ोस के कीनिया में माउमाउ ग़दर के साथ वहाँ आज़ादी का आंदोलन शुरू हो गया है। जब वह बात कर रहे होते, तो फ़िल्मफेयर पर उनकी निगाह होती जिसमें उनके लिए सही ज़िंदगी थी। जानूवाला की दूकान से फ़िल्मफ़ेयर उन्होंने ख़रीदा था जो उसमें कुछ सिलवटें थीं। बार-बार वह उन्हें निकालने की कोशिश कर रहे थे और जानूवाला को भला-बुरा कहते जाते कि वह फ़िल्म मैगज़ीन की इज़्ज़त नहीं करता। हर पन्ने की सिलवट जानूवाला के जु़ल्म का सबूत था। पहला फ़िल्मफेयर एवार्ड बैजू बावरा के संगीतकार नौशाद को फ़िल्म के मशहूर गीत ‘तू गंगाकी मौज मैं जमुना की धारा’ के लिए मिला। 


अकेले मत जाइयो, राधे जमुना के तीर ...
ओ जी ओ, तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा। 


मेरे भाई को गहरा अफ़सोस था। वह कहते, ‘बेशक बैजू बावरा के गाने बढ़िया हैं। रागों में हैं, लेकिन ये इनाम सी रामचंद्र को अनारकली के लिए मिलना चाहिए था। उस संगीतकार को जिसने ”आना मेरी जान, मेरी जान संडे के संडे“ गीत बनाकर जैज़ संगीत के दीपक से हमारे संगीत को उजला किया।’आखि़र उन्होंने कहा, ‘ज़िंदगी और इंसाफ़ का कोई तालमेल नहीं। हमारे जीने का मक़सद यही है कि हम एक दूसरे को ताक़त दें कि वह ज़िंदगी की बेइंसाफ़ी समझ सके।’


गुज़रती हुई ट्रेन के बाहर उड़ते हुए बादलों की छाया दौड़ रही थी। उन्होंने कहा, ‘काश हमारे साथ कोई कैमरामेन होता, एक ऐसा सीन बनाते जिसमें हीरो बादलों के पीछे भाग रहा है, इस तरह जैसे इंसान वक्त को पकड़ने की कोशिश में।... हाँ, इससे भी बेहतर सीन हो सकता है, बादल इंसान के पीछे भाग रहा है, वक़्त की तरह और उसे अपने शिकंजे में ले रहा है।’ इस सोच पर वह खूब हँसे कि भई ज़िंदगी भी क्या चीज़ है।


हमारे बुज़ुर्ग यह भी कहते, मेरे भाई की कहानी चार लफ़्जों में लिखी जा सकती है - सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब। मेरे भाई कहते, सिगरेट उनके अकेलेपन की साथी है। शराब थोड़ी देर के लिए गुनाहों से राहत दिलाती है और सिनेमा की कहानी ज़िंदगी को समझने में मदद करती है। सिगरेट पीना उन्होंने हॉलीवुड के अभिनेता हम्फ्ऱी बोगार्ट से सीखा था। उन्हें बोगार्ट इसलिए पसंद था कि वह कहते बोगार्ट के चेहरे में दो पैग़ाम हैं। एक तो यह कि ज़िंदगी का रिटर्न टिकट नहीं है, और दूसरा कि ज़िंदगी एक बेइलाज रोग है। वह बारबार उनकी फ़िल्में यह देखने के लिए जाते कि दोनों में सेकिस पैग़ाम में ज्यादा सच्चाई है। बोगार्ट को लोग प्यार से बोगी कहते थे। चालीस के दशक में उन्होंने हम्फ्ऱी बोगार्ट की मशहूर फ़िल्म कैसाब्लान्का देखी जो उनकी ज़िंदगी में दोहराती रही। कैसाब्लान्का में बोगी ने रिक का रोल अदा किया था। एक आदमी उससे पूछता है, भई तुम सहारा में क्यों आए हो? जबाब था, पानी ढूँढने आए हैं। भाई कहते यह डॉयलाग तो हॉलीवुड ने प्लेजराइज़ किया है। ये ख़़याल तो इंडिया से आया है। ऐसी सोच तो हिंदुस्तान के लोगों में होती है। उसके बाद तो जब कभी सफ़र पर जाते तो, तो जब भी कोई उनसे पूछता आप कहाँ गए थे, तो उनका जबाब होता पानी ढूँढने.


हालाँकि वह भाई थे, मुझे उनकी शक्ल आज भी साफ नज़र नहीं आती क्योंकि उनकी आधी शक्ल तो सिगरेट के धुएँ से ढँकी रहती थी। घुआँ उनके चेहरे तक पहुँचने में रोशनी का इम्तिहान लेता। हम्फ्ऱी बोगार्ट की जो भी फ़िल्म टांगा के मैजेस्टिक सिनेमा में आई, वह घायल हुई। वह फ़िल्म को अपने अफ़रीकी दोस्त उम्टो के साथ देखते थे। अगर कोई सीन पसंद आ जाता तो उम्टो उसे वहीं रोक लेता, तो फ़िल्म जल जाती और वह हिस्सा काटकर, अनवर स्टूडियो ले जाते और बोगी के सिगरेट के अंदाज़ की फ़ोटो खिंचवाते। अनवर का उनसे वादा रहता कि वह किसी ओर की ऐसी तस्वीर नहीं लेंगे। बाद में हम्फ्ऱी बोगार्ट द अफ़रीकन क्वीन बनाने के लिए अफ्ऱीक़़ा आए। भाई को ज़िंदगी भर अफ़सोस रहा कि ज़ायर में जहाँ वह फ़िल्म बनी थी, वह जा नहीं सके। 


शराब उन्होंने पी सी बरुआ की फ़िल्म देवदास से सीखी जिसके नायक के एल सहगल थे। शराब के साथ वह गाना भी गाते। उन्हें हमेशा गिला रहा कि सहगल अफ्ऱीक़़ा नहीं आए। बाद में जब अय्यूब की ज़िंदगी के बात उठती तो बुजु़र्ग कहते, बचपन में वह मोंबासा में देवदास देखकर आया था, तो फ़िल्म को उसने हाथ की लकीर बना लिया। लोग उन्हें टांगा का सहगल कहते। ‘लाई हयात आई क़ज़ा, ले चले ले चले।/अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी खु़शी चले’ (ज़ौक) उनकी पसंदीदा ग़ज़ल थी। इसमें उन्होंने ज़िंदगी का अर्थ ढूँढ़ा। 


वह बताते कि फ्रांस की अस्तित्ववाद की फ़िलासोफ़ी इसी गीत में से चुराई गई है। जो रांस के लिए नयी बात थी वह हिंदुस्तान में कब से चली आ रही थी। एक दिन मैंने पूछा, यह अस्तित्ववाद है क्या? तो उन्होंने मुझे यूनान के हीरो सिसिफ़स के बारे में बताया जब उसने यूनानी ख़ुदा ज़ूस से मुकाबलाकिया तो ज़ूस ने उसे यह सज़ा दी कि वह एक बहुत भारी पत्थर पहाड़ पर ले जाऐ। लेकिन पत्थर ऊपर ले जाने पर नीचे लुढ़क जाता। वह ज़िंदगी भर पत्थर ढोता रहा। मैंने उनसे पूछा जू़स ने सिसिफ़स को यह सज़ा क्यों दी? तो उन्होंने समझाया यूनान का ख़ुदा ज़ूस आसमान का ख़ुदा नहीं ज़मीनी ख़ुदा था। ऐसा जिसमें इंसानी कपट भी होता है। हुआ यह कि ज़ूस को नदी के देवता की बेटी से प्यार हो गया। उसे मालूम था कि लड़की का पिता उसे लड़की कभी नहीं देगा। तो ज़ूस ने उसे चुरा लिया। मैंने उनसे पूछा। सिसिफ़स ने ज़ूस का मुक़ाबला क्यों किया। उन्होंने कहा सिसिफ़स के दिल में एक इंसान का दिल धड़क रहा था। उसे एक बाप की पीड़ा सही माप था। लेकिन सिसिफ़स ने इसे सज़ा समझा ही नहीं। उसने यह समझ लिया कि यही ज़िंदगी है। इसे तो करना ही है। फिर शिकायत कैसी? सिसिफ़स ने सज़ा को अपनी आज़ादी का मंसूबा बना लिया। फ्रांस के दार्शनिक आल्बेयर कामू के अस्तित्ववाद का अर्थ उन्होंने मुझे इस तरह समझाया था। 


भाई साहब बड़ी किताबें नहीं पढ़ते थे। वह कहते बड़ी किताबें मुल्लाओं, पंडितों के लिए हैं, ऊँचे लोगों के लिए हैं। उनका माध्यम था, तस्वीरों वाली पत्रिकाएँ जो आम लोग पढ़ते हैं - लाइफ़, टाइम, लुक, इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया, फ़िल्मफेयर, फ़िल्म इंडिया इत्यादि। यही उनका साहित्य था।हिंदुस्तानी फ़िल्म मैगज़ीन को वह सबसे ऊँचा दर्जा देते थे। जब कभी उनके दोस्त मिलने आते तो वे उन्हें मैगज़ीन देते हुए कहते ये है वक़्त, ये है ज़िंदगी और ये ठहरी झलक, अब ख़ुद फ़ैसला करलो। उनकी नज़र में हिंदुस्तान की बोलती, गाती, नाचती फ़िल्म दुनिया की कलाओं में सबसे ऊँची थी।वह इसलिए कि कैमरा ज़िंदगी के हर पहलू तक नहीं पहुँच सकता। यह बात हिंदुस्तान के फ़िल्म बनाने वालों ने अच्छी तरह समझ ली थी। जो चीज़ें फ़िल्म में दिखाई नहीं देतीं उन्हें फ़िल्म में कैसे लाया जाए, यह अहम मुद्दा फ़िल्म डाइरेक्टरों ने हल किया। गीत फ़िल्म में वह पार्ट अदा करता है जो कैमरा नहीं दिखा सकता, वह है जज़्बात। ऐसी फ़िल्म में हर कला एक दूसरी कला से जुड़कर एक मुकम्मल पैग़ाम देती है, जो हिंदुस्तान की संगीत के उसूलों पर है। देवदास का एक गीत भाई को बहुत पसंद था: ‘बालम आय बसो मोरे मन में’। वह कहते यह गीत इतना खू़बसूरत है कि म्यूज़ियम में तस्वीर की तरह टाँगना चाहिए। यह गीत न तो बोलों में है और न ही स्वरों में। स्वरों के बीच जो मौन है, उसमें सहगल की जाती हुई रूह की आवाज़ है। बारबार गीत बजाकर सरोद के काले स्वरों के बीच-बीच में पूछते, कुछ सुनाई पड़ रहा है? जब मैं कहता यह तो साइलेंस है, तो वह कहते तुम बहरे हो।वह मानते थे कि फ़िल्म फ़ानी है, गीत अमर है। 


बालम आय बसो मोरे मन में।


फ़िल्म गीत है क्या? एक बार पूछने पर उन्होंने कहा था फ़िल्मी गीत धुन के लिफ़ाफ़े में एक पुराना पैग़ाम है जो हमारे पुरखों ने हम तक पहुँचाया है ताकि हम अपने को बेहतर बनायें। यह समझाते हुए उन्होंने आवारा फ़िल्म का ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा’ गीत लिए कहा, ‘ये धार्मिक, मज़हबी गाना है जिसमें राधा और हरि यानी कृष्ण की बातचीत हो रही है। राधा चाँद से, जो कि बलराम है, दरख़्वास्त कर रही है कि यदि वह कुछ देर के लिए बादलों की ओट में हो जाएं तो वह कृष्ण से प्यार का इज़हार कर ले।’ 


दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा।


उन्होंने कहा, राजकपूर - एक इंसान - के लिए ये संभावना है कि वह हरि के रूप में आए।


मैं चोर हूँ काम है मेरा चोरी। 


क्योंकि हरि माखन चोर थे। वह माखन चुराकर अपनी सौतेली माँ के प्यार का इम्तहान लेते थे। इस गीत में वह हीरोइन से साफ़ कह रहे हैं कि मैं तो चोर हूँ, क्या तब भी मैं प्यार के क़ाबिल हूँ? जिसका जवाब है, बेशक। गाने का अर्थ यही है कि हम दुनिया में एक दूसरे की मोहब्बत के लिए आए हैं।यदि ख़ुदा को प्रेम की ज़रूरत नहीं होती तो वह भी हमें नहीं बनाता। हम जब ईमानदारी से एक-दूसरे से प्यार करते हैं, तो हम भी ख़ुदा के क़रीब आ जाते हैं। यही है फ़िल्म आवारा का पैग़ाम। ये फ़िल्म देखने के दूसरे ही दिन मेरे भाई मोंबासा गए और वहाँ के सलीम रोड के दर्ज़ी से सफ़ेद गैबर्डीन का कोट और काला वूल ट्राउज़र सिलवाया। उसके साथ सिल्क का मफ़लर पहने सिगरेट पीते उमस भरी गर्मी में चले आ रहे थे राजकपूर की तरह, लेकिन टांगा में। 


मैं चोर हूँ, काम है मेरा चोरी, दुनिया में हूँ बदनाम
दिल चुराता आया हूँ मैं, ये ही मेरा काम।


सेकिंड क्लास के डिब्बे में जो हिंदुस्तानियों के लिए था दो घंटे में साठ मील का सफ़र करके हम कोरोग्वे पहुँचे। ये रेलगाड़ी और बसों का जंक्शन था। पंगानी नदी के तट पर बसा ये छोटा सा शहर है। जब भी नदी में बाढ़ आती, तो लोगों के घरों और दूकानों को बहा ले जाती। नदी में बड़े-बड़े मगरमच्छथे। इस शहर में हमारे बड़े मामू रहते थे। जब भी उनके घर जाते, खाने को आलू का बढ़िया पराँठा मिलता। लेकिन इस बार हम उनके घर नहीं गए। भाई साहब ने समझाया मामू दादा फ़ाल्के की फ़िल्म हरिश्चंद्र के ज़माने के हैं। साइलेंट फ़िल्मों के समय के। फ़िल्म संगीत का रस उन्हें नहीं मालूम।अगर हमने उन्हें बताया कि हम एक फ़िल्मी गीत सुनने के लिए इतनी दूर जा रहे हैं तो वह हमें मोरोगोरो से आगे डोडोमा भेज देंगे। वहाँ टांगानिका का सबसे बड़ा पागलख़ाना था जहाँ से कोई भी लौटकर नहीं आता। भाई ने मुझसे वादा ले लिया था कि इस सफ़र का ज़िक्र कभी किसी से नहीं करोगे।इस राज़ ने हमारे बीच एक नया रिश्ता क़ायम किया। 


रेलवे स्टेशन से हम शहर में बस का पता लगाने के लिए करीम भाई के टी रूम में गए। वह भाई के दोस्त थे, ख़ुशी से मिले और बताया कि शहर में निराला फ़िल्म लगी हुई है। फ़िल्म आधी ही है, अभी सिर्फ़ दो रीलें आई हैं, बाक़ी रास्ते में है। 


चाय पीते हुए वह मधुबाला के बारे में बात करने लगे। करीम भाई ने बताया, मधुबाला की खू़बसूरती ढलते दिन में, सूरज की आखि़री किरण के समान हैं। चूंकि इंसान किरण को वक़्त से बचा नहीं सकता, इससे इंसान की नाकामी का अंदाज़ा मिलता है। मेरे भाई साहब को फ़लसफ़ा नज़र आया। एक अच्छी बात का अच्छे शब्दों में जबाब देना, वह अपना फ़र्ज़ समझते थे। भाई अय्यूब ने कहा, निराला फ़िल्म के गीत ‘महफ़िल में जल उठी शमा परवाने के लिए’, इसमें जो मद्धम-मद्धम क्लेरेनेट बजता है, वह साज़ की आवाज़ नहीं, बुझते चिराग़ की आह है। सी रामचंद्र ने तीन मिनट में गाना नहीं जादूदिखाया है:


महफ़िल में जल उठी शमा परवाने के लिए
प्रीत बनी है दुनिया में मर जाने के लिए


करीम भाई ने सी रामचंद्र के बारे में सुनते ही उनके सामने चाय का एक और कप रख दिया और कहने लगे, वह बहुत निराश हैं। सरकार शहर को ऊँचाई वाले इलाक़े में नये सिरे से बसाना चाहती है। जब पूछा इसमें ख़राबी क्या है, कहने लगे, ‘इस नदी और इसके सारे जीव-जंतुओं के साथ हमारा बचपन से नाता है। हम एक दूसरे के संगी साथी हैं। जब बाढ़ आती है तो नदी हमारी मेहमान होती है। नदी और इंसान को अलग-अलग करने से पता नहीं क्या-क्या खराबियां आएंगी।’ उनकी सोच हमें बड़ी अनोखी लगी। आसमान की तरफ देखा तो काले बादल लश्कर की तरह बढ़ते चले आ रहे थे।कोरोग्वे और मोरोगोरो का 170 मील का कच्चा रास्ता है जो बारिश में दलदल में बदल जाता है। उस ज़माने में यह बहुत लंबा सफ़र था, लेकिन संगीतकार सज्जाद हुसैन के गाने सुनने के लिए हम दोनों भाई किसी भी आँधी, तूफान का सामना करने के लिए तैयार थे क्योंकि यह गारंटी नहीं थी किफिर कभी ये गीत सुनने को मिले या न मिले।


जब हम बस स्टेशन पहुंचे और ड्राइवर से पूछा सफ़र कब शुरू होगा, तो वह कहने लगा, ‘ये मोंबासा नहीं है और न ये समुंदरी जहाज़। ये बस बंबई नहीं जा रही है। ये जा रही है मोरोगोरो। शायद आप ग़लत रास्ते पर हैं।’ मेरे भाई ने कहा, ‘हम मोरोगोरो ही जा रहे हैं। बंबई से और भी दूर।’ ये सुनकर ड्राइवर सीटी में गीत गाने लगा: 


मेरे दिल की घड़ी करे टिक-टिक 
ओ बजे रात के बारह, 
हाय तेरी याद ने मारा।


वह कहने लगा, ये है अफ्ऱीक़़ा। ये उस घड़ी पर नहीं चलता जिस पर आप चल रहे हैं। बस उस वक़्त चलेगी जब मेरी मर्ज़ी होगी। भाई ने कहा, ये है सच्चाई। अफ्ऱीक़़ी घड़ी में मिनट की सूई है ही नहीं। सिर्फ घंटे की सूई है। फिर वह गंभीर हो गए। कहने लगे, ‘ये बग़ावत है, अफ्ऱीक़़़ी विलायती घड़ी पर इसलिए नहीं चलता क्योंकि वह घड़ी उसके दास होने का प्रतीक है। इसलिए वह विलायती घड़ी को नहीं मानता। दोपहर दो बजे की बस में हम कोरोग्वे से आगे रवाना हुए। बस में फ़स्ट, सैकंड या थर्ड क्लास का कोई अंतर नहीं था। बस में इंसान, बकरियाँ, मुर्गि़याँ, छोटे, बड़े, बूढ़े सभी एक ही थे। चारपहियों पर एक गाँव साथ चला जा रहा था। 


(....जारी)

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

प्रभात की कुछ कविताएँ

[प्रभात का बुद्धू-बक्सा पर स्वागत. कविता समय के युवा-सम्मान से सम्मानित. प्रभात की कविताओं में भाषा का झमेला नहीं है, उनमें राजनैतिक अर्थों का जंजाल-सा भी नहीं है. ये क्षेत्र की भाषा है, आम आदमी की आवाज़ से प्रभात की कविताओं की पहचान है. झाड़ू जैसा मामूली और छिटपुट यंत्र अपने अनुप्रयोगों में कितना विराट हो सकता है, ये प्रभात की कविताओं का बिम्ब है. ये प्रकृति के सभी अवयवों की झाड़ुओं का चिंतन हैं, उनके तमाम संभव पहलुओं का एकाकी अध्ययन है जैसे चाँद की झाड़ू का चाकू-सा हो जाना. प्रभात की कविताओं का हमारे साथ होना, युवा कविता की समृद्धि की निशानी है. बुद्धू-बक्सा प्रभात का आभारी.]



झाड़ू: कुछ कविताएँ

धूप की झाड़ू
हवा की झाड़ू
बारिश की झाड़ू
पृथ्वी के पास है कितने रंगों की झाड़ू

एक विशाल फूल की पंखुंडि़यों की तरह
खुलती है दुनिया रोज सवेरे
फिर से शुरू होती है पृथ्वी पर नयी हलचल

कुछ लोग मगर रहते हैं विकल
बारिश में भी नहीं हटती उनके चेहरों की धूल
हवा नहीं ले जाती उनके फेंफड़ों में भर गए कचरे को बुहार कर
उनके अँधेरों को बुहारने नहीं आती कभी
गुलाबी किरनों की सींक की झाड़ू



जहाँ-जहाँ गया इंसान
वहाँ-वहाँ गई झाड़ू
इंसान को अकेला
और असहाय न पड़ने देने के लिए

कल ही गृहस्थ जीवन से छूटकर आये इस व्यक्ति ने
जो कि अब साधु हो गया है
जिसकी संगिनी मुँह ढाँककर विलाप करती है वहाँ
रात के आँगन में बैठी
गंगा जी के घाट पै सायब साधु होगो हो राम
लिख-लिख चिठिया दे रही बीरा बेगो सो आज्यौ हो राम

रातभर विचार किया साधु ने
असार संसार से छुटकारा पाया अब मैंने

जागा तो भोर में अपना आसपास बुहार लेने की
बेकाबू इच्छा जागी मन में
कुछ पल बाद पाया कि
एक हाथ में झाड़ू है
और मन में झाड़ू लगाने की तैयारी
और इससे उसे राहत मिली गहरी

एक-एक पल भारी है
इस क्रूर अकेलेपन में

  

उन्हें गाँव छोड़कर जाना पड़ा
वे चले गए घर को छोड़कर खुला

वे चले गए मुझे पड़ा छोड़कर कोने में
या यह कि मुर्गी की तरह कुट-कुट करती
मैं नहीं चल सकती थी उनके पीछे-पीछे

नहीं जा सकती थी तो नहीं जा सकती थी
उनकी झाड़ू उनके साथ
जैसे नहीं जा सकती थी उनके साथ उनकी जमीन



रात के अँधेरे में डूब गए हैं पृथ्वी और आकाश
ऐसे कायम है अँधेरा जैसे शैतान का विश्वास
फिर एक रात चाकू-सी दिखती है आकाश में
चाँद की झाड़ू



बारिशों की घास के विशाल मैदान में
उस गड़रिए को टोकते हुए
उस बच्चे ने कैसे कहा

उसने ऐसे कहा कि
घास चरे वहाँ तक तो ठीक है
लेकिन घास के इन
झाड़ू सरीखे सारे के सारे सफेद फूलों को
कहीं चर न जाए हमारा मेमना

क्योंकि फूलों से ही तो बीज झड़ेंगे
बीजों से घासें उगेंगी
घासों पर हिलेंगे-डुलेंगे हवा में
झाड़ू के फूल.


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