सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

रचना प्रक्रिया - १ : ‘जंक्शन’ पर

चन्दन पाण्डेय


(चन्दन पाण्डेय किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं. कहानी में युवाओं के सशक्तिकरण के लिए नए रास्तों का निर्माण करते हैं और अपनी पृष्ठभूमि, परिवार और नौकरी से होकर आती व ज़मीन से जुड़ी हुई कहानियाँ लिखते हैं. यह जो है, उनकी कहानी 'जंक्शन' के Behind the Scenes को हमसे बांटता है. बुद्धू-बक्सा चन्दन पाण्डेय का आभारी.)
      
        इजाडोरा डंकन को आप सब बखूब जानते होंगे. सुप्रसिद्ध नृत्यांगना थीं. एक शोर यह भी है कि आधुनिक नृत्य का परवर्तन उन्होने ही किया. पर यहाँ इनके उल्लेख का सीधा सरल उद्देश्य है. इनके जीवन की एक घटना रचना प्रक्रिया से जुड़े सवालों के लिए बेहद मददगार साबित होती है.
        
        इजाडोरा के ईश्वर उन्हें करवट करवट जन्नत बक्शें कि एक पत्रकार ने उनसे पूछा : आप नृत्य क्यों करती है ? यह सवाल डंकन के लिए पेचीदा था जबकि वे नृत्यकला में पारंगत और प्रसिद्ध हो चुकी थीं. जरा देर विचारने के बाद डंकन ने अनूठा ही जबाव रखा : अगर यह जानती तो फिर नाचती ही क्यों ?

        कमोबेश यही अहवाल अपना भी है.

        रचना प्रक्रिया या लिखने के कारण जैसे प्रश्नों के कई कई जबाव विभिन्न मौकों पर सूझते हैं. किसी भी कहानी के लिखे जाने की कोई एक वजह कभी नहीं रही. ‘जंक्शन’ को ही लें. मुझे आज तक इस कहानी के लिखे जाने का उद्देश्य स्पष्ट नही हुआ. यह जरूर है कि अपनी आज तक की रचनाओं में यह मुझे बेहद पसन्द है.
        आजकल जो भाव मन में चल रहा है उससे लगता है कि यह कहानी मैने उस स्त्री के लिए लिखी होगी जिसका पति कथा के भीतर मार दिया जाता है. पर जब लिखना शुरु किया था तो मन में एक छवि थी. बचपन में देखी हुई. आलू की रोपाई के दिन हर साल अक्टूबर में आते थे. जिस चलचित्र को लिखने की मंशा थी वो यह कि कैसे बाबा या पापा आलू की क्यारियों में आलू की आँख बैठाने के बाद उसे क्यारी पर पास की मिट्टी चढ़ाने के बाद पैरों से गोल करते हैं. तरीका यह कि दोनों तलवों के बीच में हल्के दबाव के आसरे क्यारी की मिट्टी को अर्धगोलाकार करते जाना है. यह किसी लोकनृत्य जैसा होता है. धीमा परन्तु लय के साथ. यह कठिन होता था कारण कि हमने जब भी कोशिश की, आधे से अधिक जाते जाते जाँघ भर जाते थे.
        कभी सद्यारोपित आलू के खेत करीब से देखें, आपको उसकी बनावट, एक किस्म की लयकारी, आपको आकर्षित करेगी. ऐसा ही कोई दिन था जब बाबा, चाचा लोग और पापा आलू के खेत में लगे हुए थे तब भारी शोर शराबा उठा. बुआ ( पापा की चचेरी बहन ) तो बाद में रास्ते में मिली होंगी, खबर पहले आ चुकी थी कि उनके भाई ( पापा के चचेरे ) को बिजली मार गई है. जितने लोग भी खेत पर थे सब दौड़े, क्यारियों की परवाह किये बिना दौड़ पड़े.
        उसके बाद मुख्य कथा बेहद तकलीफदेह पर अच्छे परिणाम वाली रही. वो फिर कभी कि कैसे चाचा बचा लिए गए कि कैसे दस बारह मिनट में डेढ़ पौने दो मील कुछ लोग एक इंसान को खाट पर लिए लिए दौड़ गए थे कि आज वो शख्स जीवित और स्वस्थ है, तीन बच्चे हैं.
        इसमें गौण कथा, या जीवन, यह है कि मेरे घर के सभी लोग आलू की क्यारियों के साथ मुझे भी खेत पर ही भूल आए थे. मैं सात साढ़े सात साल का था, स्कूल नया नया जाना शुरु किया था. वो भी चाचा की साईकिल पर और इस तरह जिस दिन वो किसी काम में व्यस्त होते, हमें स्कूल नही जाना पड़ता था. यह अच्छी बात थी.
        पर उस दिन मैं खेत में निरा अकेला रह गया था. दूर दूर तक कोई नहीं देख रहा था. बहुत दूर एक पीपल था, जो अभी पिछले दिनों ही कटा है. दूर कहीं, कुछ कुत्ते दिख रहे थे, जिनमें से एक दो को ही पहचानता था बाकी सब दूसरे गाँव से आए लग रहे थे. मैं इतना डरा हुआ था कि मेरी आवाज ही गुम हो गई थी. रोने की लकार भी नहीं बँध पा रही थी. कुत्तों से मैं डरता था. लोग कहते थे कि कुत्तों के सामने धीरे चलना चाहिए. यह तरीका अपनाया तो पाया कि और कुछ हो न हो, मैं अपना डर ही कई गुना बढ़ा जरूर रहा हूँ.
        मैं आलू के खेतों के बीच से ही वापस आया. मेड़ की घास के बनिस्बत यह सुविधाजनक था. घर आया तो अम्मा के पास रोने लगा. मेरे रोने का सबने ध्यान दिया और खुले मुँह मेरी भावुकता की ताईद हुई कि मैं इसलिए रो रहा हूँ क्योंकि चाचा को बिजली छू गई है. मैं इतना नाराज और डरा हुआ था कि मैंने उस समय किसी की गलतफहमी दूर नहीं की. बड़े होने पर जब घर में और अम्मा को स्पष्ट किया तो किसी को मेरा रोना याद भी नही था. सबने कहा : हुआ होगा.

        बात मैं जंक्शन कहानी की कर रहा था. मेरे मन में चलचित्र यही था कि एक आदमी आलू की क्यारियाँ मुकम्मल करने पर भिड़ा है और उसे कोई बुरा समाचार सुनाया जा रहा है. कहानी में, सुमेर के पिता आलू की क्यारियों को गोल कर रहे हैं तब उन्हें यह सूचना मिलती है कि उनका बेटा मार दिया गया है और उसकी लाश थाने पर है. हाँ यह जरूर है कि कहानी के मगरूर पात्र मेरी सारी बात नहीं सुनते सो इस बार भी; सुमेर के पिता दौड़ते नही हैं. वे इस खबर का ही प्रतिरोध करते हैं. हालाँकि कहानी में मौका ऐसा नहीं था कि मैं आलू के क्यारियों वाली अपनी बात लिख सकूँ पर उस चित्र को उकेरा है.
        पहले जब यह कहानी लिखना शुरु किया तब यह शुरुआती दृश्य था. कहानी का आईडिया ‘जंक्शन’ ही था. एक ही समय में अलग अलग दिशाओं में जाते हुए रास्ते. पर पहले ड्राफ्ट के वक्त मैं खुद भी इसका एक पात्र था, जो कि बाद के ड्राफ्ट्स में बदलता गया. 
        पहले मैं यकीन नहीं मानता था कि कहानी अपना रास्ता खुद चुनती है. अपना शिल्प भी. मैं सोचता था,जो मर्जी चाहूँ लिख सकता हूँ. ‘सुनो’ कहानी के बाद यह धारणा बदलने लगी थी और ‘जंक्शन’ ने इस विचार से को पूर्णत: खत्म कर दिया. हुआ यह कि कहानी अपने हिसाब से लिख चुका था तब एक यात्रा का मौका मिला.
        दरअसल यह कहानी बनारस से गाँव की अनेक यात्राओं के दौरान तैयार हुई है. इन्हीं किन्ही यात्रा में किसी ने बातों बातों बताया था कि बलिया जिले के लिए फौज की भर्ती अलग से होती है कारण कि इसे बदमाश जिला माना जाता है. इससे जुड़ी तो नहीं पर वर्षों पहले की स्मृति में लखनऊ की वह घटना थी, जिसमें भर्ती के दौरान सेप्टिक टैंक टूटने से कई अभ्यर्थी डूब कर मर गए थे.
         छोटी बहन रिम्पल को बी.एड. की प्रवेश परीक्षा दिलाने गोरखपुर गया हुआ था. जैसा कि कहानी में है, जीवन में भी लौटते हुए में गाड़ी विलम्ब से थी. कहानी का ‘लोकेल’ भटनी और लाररोड के बीच का है पर जीवन में यह घटना औड़िहार स्टेशन पर घटी थी.
        इन्टरसिटी, औड़िहार जंक्शन पर खड़ी थी और बहुत देर किए जा रही थी. पता चला कि पवन एक्स्प्रेस आ रही है. पहले वही जाएगी. बहुत सारी सवारियों के साथ हम भाई बहन भी प्लेटफॉर्म पर इस उम्मीद से चले आए कि पवन पकड़ लेंगे. पवन आई और चूकि रात का मौका था इसलिए हम साधारण डब्बे में चढ़ गए. इस गाड़ी में मुम्बई जाने वालों की भीड़ पहले ही बनी हुई थी. मैने एक भाई से आग्रह कर रिम्पल को जगह दिला दी और खुद बाहर आ गया. तैयारी यह थी कि घंटे सवा घण्टे का रस्ता है सो अपन दरवाजे पर खड़े हो लेंगे.
        जब मैं रिम्पल के लिए चाय लेकर भीड़ से बचते बचाते अन्दर जा रहा था तब तक दो हट्टे कट्टे  लोग सामने से बेहद तैश में आते हुए दिखे, जिससे चाय छलक गई और मेरा हाथ जल गया. मैने एक गाली दी जिसे शायद उन महानुभावों ने सुना नहीं और आज उस घटना के बाद खैर ही मनाता हूँ कि उन लोगों ने मेरी दी हुई गाली शायद सुनी नहीं. वे दोनों गाड़ी से बाहर उतर लिए और बहन को चाय थमा कर मैं भी बाहर आ गया.
        आज भी उस घटना की लेश बराबर स्मृति भी सिहरन मचा देती है.
        पल सवा पल बाद की बात रही होगी जब आठ दस जने उस बोगी में चढ़े और सबने गौर किया कि ये क्या माजरा है? तब तक खैराबाद और ताहिरपुर के दो अधेड़ सज्जनों से मेरी हेल मेल हो चुकी थी. कुछ देर बाद पीटने की, रोने की,चीखने चिल्लाने की आवाज उस बोगी से आने लगी. घटना स्थल पहुँचने से पहले हम जान चुके थे कि आस पास के लोग बिहारी मजदूरों को मार पीट कर अपनी बहादुरी दिखा रहे हैं. यह सब बेहद कम समय में हो गया.
        हम जब अन्दर पहुँचे, तो थप्पड़ों, घूसों और बेल्ट की वीभत्स आवाज गूँज रही थी. तभी, सब फौजी अपराधियों ने चिलाना शुरु किया : नीचे उतार, सालों को. अपराधियों के दल की कौन कहे, हमें तो यह भी नहीं मालूम चला कि बचाने वालों का दल कब बन गया. हम सब भी करीब दस की संख्या में थे और आए दिन होती आई ऐसी घटना के उस खास नुक्ते से वाकिफ थे. साल भीतर ही भीतर दो अलग अलग घटनाओं में दुल्लहपुर तथा सादात में, मामूली वजहों के कारण, दो लोगों के गाड़ी से बाहर उतार कर जान से मार दिया गया था.
        कहानी से उलट, हम सबने इन बिहारी मजदूरों को रेल से नीचे नहीं उतरने दिया. पर हमने लड़ाई नहीं लड़ी. बाबू, भईया कहा. प्रार्थानाएँ कीं. पैर तक पकड़े. पर इन सबसे वे बदमाश कहाँ मानने वाले थे लेकिन हमारे गोल में लोग बढ़ते गए तब उनके अन्दर भय पैठा. वे उन मजदूरों को बाहर नही उतार पाए और गाली देते हुए तथा अपने फौजी होने की बात बताते हुए उतर गए. वे सब के सब दिखने में बेहद बलिष्ठ और लगभग दानवाकार थे. कहानी में मजदूर की हत्या इसलिए हो जाती है क्योंकि एक मजदूर को बचा लेने की घटना ने हम सबको इतना उद्देलित किया कि वहीं के वहीं सभी लोग बात करने लगे थे ; अगर सादात और दुल्लहपुर में भी लोगों ने कोशिश किया होता तो शायद वे दोनों लोग बच जाते, जो जाने कौन थे.
         इस घटना का सबसे विकट पहलू यह था कि मेरी बहन, रिम्पल, बार बार मुझे पीछे खींच रही थी और उसका रोना शायद सबसे अधिक उभर कर सामने आ रहा था. उसके रोने और मुझे इस झगड़े में शामिल न होने देने की कार्रवाई से दूसरे लोग भी प्रभावित हुए. वह बाद तब तक रोती रही जब तक की रेल चल नहीं पड़ी और गोमती नदी पार नही हो गई.
         जिन लोगों पर हमला हुआ था उनमें से एक का कान फट गया था और कई को बेहद गहरी चोटें  आई थी. वे सभी लोग जो कहीं न कहीं उन मजदूरों की लाचारी से जोड़ रहे थे,चुप थे. गाड़ी में यह सन्नाटा बनारस तक साथ आया.   
         यहाँ रुक कर मैं ‘आभासी’ पूर्वांचल ( उत्तर प्रदेश का पूर्वी हिस्सा ) के गाजीपुर, मऊ, चन्दौली , गोरखपुर और आजमगढ़ जैसे जिलों की एक खास बात बताना चाहूँगा, जो शायद कुछ को बुरी लगे. मैं चाहता भी यही हूँ. देवरिया इनसे अलग नही है पर जाने क्या कारण है, बाबा राघवदास के सुधारवादी आन्दोलन या कुछ और वजह, कि देवरिया इन जिलों से कम हिंसक है. वहाँ जमीन के बटवारे भी इतने क्रूर नही है जितना गाजीपुर, मऊ, गोरखपुर, चन्दौली और आजमगढ़ के.
इन खास जिलों के सवर्ण अब भी उसी भाव में जीते हैं जो आजादी के पहले का बताया जाता है. विशेषकर राजपूत, भूमिहार, यादव, कुछ ब्राहमण और कुछ मुसलमान अब भी उसी हेकड़ी में रहते हैं.  कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. सारे काम आदर से देखे जाने चाहिए पर एक बात कहने के लिए माफी चाहूँगा कि इन जिलों के ज्यादातर सवर्ण फौज में ड्राईवर, खलासी, हजाम, रसोईया या धोबी का काम करते हैं, अधिकारियों या मामूली सिपाहियों की डाँट सुनते हैं, खीसे निपोरते हैं. अगर ये सवर्ण बहुत ऊंचा कर गए तो राज्य पुलिस या फौज में सिपाही लग जायेंगे.
        यही लोग जब लाम से वापस आते हैं तो इनकी हेकड़ी देखिए, इनकी चाल देखिए. जमीन से दो अंगुल उपर ही चलते हैं. या शायद छ: अंगुल. मैने एक समूचे साल जमनिया से बनारस आ जा कर पढ़ाई की है. सहारा रेल का ही था. इस दरमियान जो सुना, देखा, गुना उससे मैं अपने इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ और कायम हूँ.
        यही फौजी और इनके नात गोतिया तथा उनके भी नात गोतिया अपने क्रोध को एक पल के लिए भी काबू नही कर पाते अगर वह किसी गरीब या मजलूम पर है. इसलिए ही हर साल बनारस से मऊ के बीच और बनारस से दिलदारनगर के बीच रेल यात्राओं में ऐसी मारपीट और हत्याओं की दस बारह घटनाएँ हो ही जाती हैं. यह सिवाय सामंती मान अभिमान के दूसरा कुछ नहीं है. ऐसे में ये जो जमीन्दार हैं और मौका पड़ने पर झुकने की कला में भी माहिर हो चुके हैं, उनकी क्रूरता भी अब नए पैमाने गढ़ रही है, वरना आप ही बताएँ कि बैठने की जगह मात्र के लिए क्या किसी को जान से मारा जा सकता है. मेरा यह मानना है कि इन सामंतों का मान मर्दन बेहद अनिवार्य है, एक बार, दो बार, तीन बार ..तब तक, जब तक कि इनके अन्दर से यह गाँठ न निकल जाए.
        (मैं एक बार पुन: यह कहना चाहूँगा कि धोबी, हजाम या कोई भी काम उतना ही सम्मानीय है जितना कि दूसरे और मेरा कोई भी मत इन कार्यों से जुड़े लोगों के खिलाफ नही है.)

        इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी होने से मेरे भीतर काफी कुछ बदला, जो शायद यहाँ बता पाना सम्भव नहीं, पर हुआ यह कि जब मैं घर पहुँचा उस वक्त रात के एक या डेढ़ बज रहे थे और मैने बाकी बची पूरी रात में इस घटना को हू ब हू लिखने की कोशिश करता रहा.
        बात आई गई नहीं हो सकी और अंतत: जंक्शन कहानी लिखते हुए यही घटना मुख्य बिन्दु बनी, जिससे कहानी में नारा रचा जाता है. मनई नामक ग्राम देवता सृजित होते हैं, उनके लिए गीत लिखे जाते हैं, उनके चौरे बाँधे जाते हैं. इन्हीं सूत्रों पर कहानी आगे बढ़ती हैं, जहाँ वो अभ्यर्थी समूह भी आता है जिन्हें फौज में भर्ती होना है.
        या वह बैंक जो अपनी जगह से इसलिए हटाया जा रहा है, जो मुनाफा नही कमा रहा. उसे शहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. जो सहकारिता की चीजे थीं और जन सुविधा की,उनसे मुनाफा पहली और आखिरी उम्मीद कैसे होने लगी पता ही नहीं चला. अब ये गाँव वाले है, जो बैंक से जुड़े काम काज के लिए एक कोस चलते थे, उन्हें चार पाँच कोस चलना होगा. एक हिन्दी प्रदेश का ही जन्मा पुलिस अधिकारी है जो हिन्दी से इस कदर अपरिचित है, जिसे अपनी भाषा का इतना भी नहीं रियाज कि हिन्दी बोलते हुए कब प्रश्नवाची लगाना है और कब विस्यमादिबोधक. 

जंक्शन का कथा शिल्प: इस कथा से मैं इतना गहरे जुड़ गया था कि एक पात्र ही बन गया. पहली और आखिरी कहानी जिसकी घटनाओं से मैं बेहद परिचित था फिर भी जिन्हें लिखने में भारी मुश्किल हुई. इसलिए ही शायद कहानी के भीतर एक कहानी है, जिसे (अ)नायक सुना रहा है. (अ)नायक इसलिए कि वह हर जगह मौजूद भले है पर शामिल नहीं. नायक वे हैं, जो शामिल हैं और चौतरफा शिकार हो रहे हैं. यह (अ)नायक भी कहानी के अंत अंत तक नायक में तब्दील होता जा रहा है, जिसने कथावाचन का काम चुना है और कमाल यह कि कथावाचन जैसे मामूली काम के लिए वो सजायफ्ता है, उसे गिरफ्तार कर लिया गया है. जहाँ तक सवाल इस ‘जंक्शनं’ की भाषा का है, वह स्वत: स्फूर्त है. उनकी ही भाषा है, जिनकी कहानी. कहानी के उन हिस्सों में सम्वाद नहीं के बराबर है, जहाँ एक ही समाज के लोग हैं. एक ही समाज में रचे बसे लोग बेहद सम्वाद कम इस्तेमाल करते हैं.

        आखिरी बात यह कि लखनऊ में सेप्टिक टैंक फूटने और अभ्यर्थियों के उसमें डूब कर मर जाने की जो घटना घटी थी, उस वक्त मैं भी लखनऊ था. मैं भर्ती के लिए नही गया था पर मेरे गाँव से कुछ लड़के आए गए थे और उनकी परीक्षा पहले ही हो चुकी थी. शाम में जब हम इमामबाड़ा टहल रहे थे, तब एक सान्ध्य दैनिक में यह हृदयविदारक खबर पढ़ी. अगले दिन के अखबारों मे भी यह खबर थी. रही होगी करीब 2000 या 2001 की बात पर जब कहानी लिख रहा था यानी 2008 में, तब मैंने कई लोगों से इस घटना की दर्याफ्त की और सबने एक सुर में ऐसी किसी भी घटना की जानकारी होने से इंकार किया. मेरे पास समय और साधन नहीं था कि लखनऊ जाकर इसकी पुनर्पड़ताल करूँ, पर स्मृति थी. भरोसेमन्द स्मृति.


रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ालिब और शमशेर



ग़ालिब ख़ुद एक बड़ा हीरो है अपनी व्यापकता के केंद्र में, जो कि स्पष्ट एक आधुनिक चीज़ है. व्यक्ति का निर्वाध अपनापन. हर बात में अपने व्यक्तित्व को - अपने निजी दृष्टिकोण को सामने रखना. मैं ख़ुद किस पहलू से सोचता हूँ, किस ढंग से महसूस करता हूँ, यह उसके लिए महत्त्व की बात है. 

हर बात की तह में जाने की - अपने विशिष्ट तौर पर उसका मर्म समझाने की - उसकी कोशिश सर्वत्र प्रकट है. 

उसकी मुसीबतें, उसका संघर्ष, जिसको यह कभी छिपाता नहीं....उसके शब्दों में हू-ब-हू आधुनिक-सा लगता है. अजब बात है. उसमें आज के, आधुनिक साहित्यकार की-सी पूरी तड़प और वेदना के बीच, एक तटस्थ यथार्थवादी दृष्टि है. उसका यथार्थवाद निर्मम है. मुक्तिबोध और निराला, अपने भिन्न संस्कारों के अस्त-व्यस्त परिवेश में, उसको कुछ-न-कुछ  प्रतिबिंबित करते हैं. निराला का यह प्रिय शेर था - 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फ़िर लहू क्या है.

क्या ताज्जुब है जो उसके युग ने उसको नहीं पहचाना.

लोगों ने सही कहा है कि जो शख्स एक अरसे से अंग्रेज़ी अमलदारी और क़ानून-व्यवस्था और नीतियों को निकट से और विचारपूर्ण दृष्टि से देखता आ रहा हो, जो कलकत्ते के वातावरण को भी खासी-अच्छी तरह सूंघ आया हो, वह जीविका के लिए मुग़ल दरबार से बँधा रहकर भी, अपनी चेतना में पिछले युग से कभी जुड़ा हुआ नहीं रह सकता. इस अर्थ में ग़ालिब अपने युग में अकेला था.

कुछ जैसे निराला को रवीन्द्रनाथ से होड़-सी रही, ग़ालिब भी पूर्ववर्ती उस्तादों की श्रेणी में सगर्व अपने को रखता था. 

शायद एक चीज़ जो स्थायी है वह कला है - और वह है ग़ालिब के लिए ग़ालिब की अपनी कला. इस कला में मर्म में स्थित कवि पूर्णतया आश्वस्त निर्द्वंद और अमर-सा दिखता है. कम-से-कम स्वयं को, अपनी दृष्टि में. ..... और बहुत बाद में हमको भी वह वैसा ही दिखता है.

ग़ालिब का सूफी भाव सूफियों की परम्परा से एकदम भिन्न और मात्र उसका एकदम अपनी ही मालूम होता है. अगर ग़ालिब के सूफी-भाव की स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो वह शायराना रिवायत क़तई न होते हुए भी, कहीं अनीश्वरवादी और कुछ-कुछ अस्तित्ववादी सूफीवाद निकलेगा. यह परिभाषिकता आधुनिक है. 

अपनी कला पर ग़ालिब का कितना दृढ़ विश्वास है. अपने सर्वोपरि होने से उसे किंचित भी सन्देह नहीं. देखिये, उसका सेहरा देखिए. उसकी फ़ारसी ग़ज़ल, जिसमें उसने भविष्यवाणी की है कि आगामी युगों में ही उसकी पहचान हो सकेगी, हालांकि तब बहुत से मूर्ख भी उसको समझने-समझाने का दावा करेंगे. अपने समकालीन विद्वान् मौलाना आजुर्दा को वह तमककर कहता है - अगलों के गुणगान करते तुम नहीं थकते, मगर तुम्हारी आँखों के सामने जो महाकवि बैठा अपनी अमर रचना सुना रहा है, उसको पहचानने की शक्ति नहीं रखते, कितने आश्चर्य की बात है!

मुझे लगता है कि ग़ालिब की दिलचस्पी किसी भी प्रकार के आदर्शवाद में नहीं थी, थी तो केवल इन्सान में. उसके विडम्बनापूर्ण मगर हौसलेमंद जीवंत नाटक में. और इसलिए कि आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना!

यह कम कौतुक की बात नहीं कि हिन्दी-संसार में ग़ालिब के लिए अलग ही खाना है और शेष उर्दू के लिए अलग. जहाँ उर्दू से बिलगाव की भावना है, ग़ालिब से नहीं. इतने दुरूह कवि होते हुए भी ग़ालिब हिन्दी पाठकों के अपने हो गये. ऐसा क्यों है? इसका जवाब देना आसान नहीं है.


(गद्य-खंड शमशेर बहादुर सिंह की "कुछ और गद्य-रचनाएँ" से. ग़ालिब पर इस तेवर और इस स्वाद की टिप्पणी सिर्फ शमशेर के यहाँ मुमकिन मालूम होती है.)