रविवार, 26 दिसंबर 2010

गीत चतुर्वेदी

इतना तो नहीं

मैं इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ

मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गाँव तक
मैं चन्द्रगुप्त अशोक खुसरो और रज़िया से ही मिल पाया
मेरे जूतों के निशान
डि'गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैं
अभी कितनी जगह जाना था मुझे
अभी कितनों से मिलना था
इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ

मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थे
जो जूते तुमने दिए, उनने मुँह खोल दिया इतनी जल्दी
दुकानदार !
यह कैसी दग़ाबाज़ी है

मैं इस सड़क पर पैदल हूँ और
ख़ुद को अकेला पाता हूँ
अभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़
और जो मिलेंगे मुझसे
उनसे क्या कहूँगा
कि मैं ऐसी सदी में हूँ
जहाँ दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलता
जहाँ तुम्हारे युगों के मुक़ाबले आसान है व्यापार
जहाँ यूनान का पसीना टपकता है मगध में
और पलक झपकते सोना बन जाता है
जहाँ गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानी
उस सदी में ऐसा जूता नहीं
जो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुत
कि अब साफ़ दिखाने वाले चश्मे बनते हैं
फ़िर भी कितना मुश्किल है
किसी की आँखों का जल देखना
और छल देखना
कि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता दे
ऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया

इस सदी में कम से कम मिल गए जूते
अगली सदी में ऐसा होगा कि
दुकानदार दाम भी ले ले
और जूते भी न दे ?

फट गए जूतों के साथ एक आदमी
बीच सड़क पैदल
कैसे गीली रुई बन जाता है

कोई मुझसे न पूछे
मैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूँ

इस लम्बी सड़क पर
क़दम-क़दम पर छलका है खून
जिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकता
जिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुए
यहाँ कहाँ मिलेगा कोई मोची
जो चार कीलें ही मार दे

कपड़े जो मैनें पहने हैं
ये मेरी आत्मा को नहीं ढँक सकते
चमक जो मेरी आँखों में है
उस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुँचती
पसीना जो बाहर निकला है
वह आत्मा का आँसू है
जूते जो पहने हैं मैनें
असल में वह व्यापार है

अभी अकबर से मिलना था मुझे
और कहना था
कोई रोग हो तो अपने ही ज़माने के हकीम को दिखाना
इस सदी में मत आना
यहाँ
खड़िए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट

मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट और भिश्ती से मिलने जाना है
जिसके बारे में बच्चे पढेंगे स्कूलों में
मैं अपनी सदी का राजदूत
कैसे बैठूँगा उसके दरबार में
कैसे बताऊँगा ठगी की इस सदी के बारे में
जहाँ वह भेस बदलकर आएगा फ़िर पछताएगा
मैं कैसे कहूँगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास से
कि अगली सदियों में संभलकर जाना
आगे बहुत बड़े ठग खड़े हैं
तुम्हे उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर

मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूँ
इन पथरीली सड़कों पर
मैं एक मामूली, बहुत मामूली इनसान हूँ
इनसानियत के हक़ में ख़ामोश
मैं एक सज़ायाफ़्ता हूँ
अबोध होने का दोषी
चौबीसों घंटे फाँसी के तख़्त पर खड़ा
एक वस्तु हूँ
एक खोई हुई चीख़
मजमे में बदल गया एक रुदन हूँ
मेरे फटे जूतों पर न हँसा जाए
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूँ
इसे प्रार्थना भले समझ लें
बिलकुल
समर्पण का संकेत नहीं


[गीत चतुर्वेदी उन नामों में से एक हैं, जिनसे हिन्दी साहित्य की युवा कविता धारा पहचानी जाती है. गीत चतुर्वेदी का आभार, उन्होंने अपनी कविता प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी. काल-यात्रा और जूते जैसे एक बेसिक एलिमेंट से झगड़ता और साम्य बैठाता एक यात्री कितनी अलग-अलग परेशानियों से गुज़रता है, इसे गीत चतुर्वेदी ने बड़े सरल तरीक़े से दिखाया है. यहाँ डि'गामा व अक़बर हैं तो ख़ुसरो और रज़िया भी हैं. एक बात तो साफ़ है, गीत चतुर्वेदी की कवितायें अत्यंत साफ़ और आत्मा की गहराइयों से निकली कवितायेँ हैं, उन कविताओं से बिलकुल भिन्न, जहाँ उपलब्ध बुद्धि और किताबी ज्ञान का बोलबाला रहता है.]

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

“इमोसनल” अत्याचार


कितनी क़िताबी भाषा का इस्तेमाल होता आया है, संगीत के लिए. लेकिन मैं इस तरह की बातों से सहमत रहता हूँ क्योंकि ये सही और ज़मीन से जुड़े शब्द होते हैं, जिनके व्यापक प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. अभी मेरे साथ रहते हैं अमित त्रिवेदी, जिनके लिए ये कहना गलत नहीं होगा कि इनका संगीत सीधे आत्मा से छनकर बाहर आता है. जोश और नयापन, जो हर बार पिछले से अलग और ज्यादा होता है और हमेशा की तरह अपने उसी तेज़ रूप में उपस्थित होता है जहाँ ये किसी की भी उपस्थिति को सिरे से ख़ारिज करता हुआ हाला आता है.

जी हाँ, फिर से याद दिलाया जाए कि ये वही अमित त्रिवेदी हैं – तेरा इमोसनल अत्याचार. अब शायद समय आ गया है कि फिल्म संगीत की बूढी हो चुकी रीढ़ की हड्डियों को भरपूर आराम दिया जाए, जिन पर फिल्म संगीत एक लम्बे समय से घिसटता चला आ रहा है.

अब तुम चुप रहो! ये मेरा समय है! दम हो तो आओ सामने!….. अमित का संगीत सुनने के बाद ऐसा लगता है कि वे अपने आलोचकों से कुछ ऐसा ही कहते हैं, इन्होनें संगीत को एक नया आयाम दिया और उसके भिन्न-भिन्न और अपरिचित रूपों से सबको अवगत कराया.

फिल्म आमिर से शुरू हो, नो वन किल्ड जेसिका तक अमित का सांगीतिक सफ़र कितना ज़्यादा बहाव में रहा है, ये शायद किसी से छिपा नहीं है. स्कूली बैंड ओम से लाईमलाईट से आने वाले अमित को राष्ट्रीय पुरस्कार से हटकर जो भी मिला वो सिर्फ़ प्यार था, न कोई अलंकरण सम्मान और न कोई ऑस्कर, संगीत-प्रेमियों नें किसी दामाद की तरह अमित को प्यार और सम्मान दिया जो शायद किसी दूसरे ‘नये’ संगीतकार को मयस्सर नहीं हुआ.

सार्वजनिक तौर पर सक्रिय न रहने वाले इस संगीतकार नें फिल्मों को बस अपने संगीत के बल पर ही एक बने-बनाए ढर्रे से अलग हटाया. किसी दृश्य में इनके संगीत की उपस्थिति, उस दृश्य को देखने का नया दृष्टिकोण देती है. ऐसा क्यों है कि किसी दूसरे संगीतकार के गीतों पर कंधे नहीं फड़कते हैं, क्यों कोई दूसरे संगीतकार स्नायुओं में नहीं घुस पाते या कहीं और चाँद की चूड़ी का जिद्द क्यों नहीं दीखता है…और वो भी हमेशा. मेरी समझ से रॉक श्रेणी के तरीक़े का अलग और उन्मुक्त ढंग से प्रयोग अमित के अलावा किसी संगीतकार नें नहीं किया. फ्री गिटार और ओपन रिदम को अमित ने जिस खूबसूरती से अपने गीतों में उतारा है, वो बेशक़ तारीफ़ के क़ाबिल है.

रहमान मेरे प्रिय संगीतकारों में आते हैं लेकिन अमित के आने के बाद वे (मेरे लिए) दूसरे पायदान पर आ गये हैं. कॉमनवेल्थ गेम्स के संगीत को और बेहतर तरीक़े से अमित सजा सकते थे, क्योंकि ये साफ़ है कि दिल्ली एक चमचमाती नदी की तरह उनके संगीत में दीखता है, उदाहरण के लिए नो वन किल्ड जेसिका के गीत दिल्ली को सुन लीजिये, द..द..द..द..द..द..द..दिल्ली..दिल्ली..दिल दिल दिल…मेरा काट कलेजा दिल्ली ले गयी..मोहे दिल्ली ले गयी, मेरी जान भी ले जा दिल्ली ससुरी दिल्ली दिल्ली दिल्ली. इसे बस एक बार दिल्ली-६ के गीत दिल्ली के साथ रखकर देखिये, अन्तर ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जायेगा. मेरे दिल्ली प्रेम को अमित त्रिवेदी ही सही सुर (सुरूर) दे पाते हैं.

किसी भी तरह के प्रदूषण से बचा हुआ संगीत, अपने हर रूप के साथ आपका समझौता कराता हुआ आता है और अपने किसी भी रूप को दूसरे से कम नहीं होने देता है.

देव डी, अगर आपको देखना है कि अमित के संगीत की “रचना-प्रक्रिया” क्या है, तो सुनिए इस फिल्म को, हिक्क्नाल और पायलिया जैसे गीत, फिल्म-संगीत को आई-पॉड या कानफोडू वर्ग की पहुँच से दूर ले जाकर स्थापित करते हैं. स्ट्राईकर फिल्म का चम्-चम् गीत भी तो बढ़िया है. इसके दिल्ली प्रेम को इनकी आदतों में शुमार नहीं किया जाना चाहिए, इसका पता स्ट्राईकर के गीत बॉम्बे से अच्छे से चल जाता है.

सुनिए अमित त्रिवेदी को, जानिए अलग कुछ और जोड़िए पुराने ढर्रे में नया कुछ….बूम-बूम-बूम-बूम पारा.