मंगलवार, 30 नवंबर 2010

रक़ीब से

 
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीखाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रक्खा था


आशना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा’नाई के

जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है


तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसकी मलबूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है


तूने देखी है वो पेशानी, वो रुखसार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोयी हुई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ


आजिज़ी सीखी, ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के, दुख-दर्द के मानी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुखे-ज़र्द के मा’नी सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाक़ामस्तों को डुबोने के लिए कहता है


आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.



(वाबस्ता = जुड़ी हुई; दहर = दुनिया; रा’नाई = छटा; मलबूस = वस्त्र; अफ़्सुर्दा = उदास; साहिर = जादूगर; मुश्तरका = समान; आजिज़ी = विनम्रता; यास-ओ-हिरमान = निराशा और दुख; ज़ेरदस्त = अधीन; मसाइब = मुसीबत)

(कुछ दिनों पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय में ३० युवा कवियों का काव्यपाठ हुआ, आयोजन शोध-छात्रों के द्वारा संपन्न हुआ. आयोजन बेशक़ बढ़िया था, लेकिन कई तरह की दिक्कतों से भरा हुआ भी. संचालक महोदय ने कई बार भाषा से जुड़ी हुई गलतियां कीं. इतने बड़े आयोजन में एक बात खुलकर सामने आई कि अभी हिन्दी साहित्य/ हिन्दी कविता को कई खतरनाक राहों से गुज़रना है, जहाँ सबसे बड़ी चुनौती है श्रोताओं की. अब ज़रूरत मालूम होती है, एक अच्छे रचनाकार के साथ एक उम्दा कोटि के श्रोता-मंडल की, और शायद अगले समय में यही एक मापदंड हो एक सफल आयोजन का (ख़ासकर छात्रों के सामने). छात्रों को दिल्लगी और सरल कविताएँ अच्छी लग रही थीं और इसी कारण कई अच्छी कविताएँ/अच्छे रचनाकार अलक्षित रह गए. आगाज़ के दौरान, एक शोध-छात्र द्वारा फैज़ अहमद फैज़ की ये नज़्म बड़े ही त्रुटिपूर्ण ढंग से पढ़ी गई, लेकिन इसका पाठ सौ खून भी माफ़ कराने के लिए काफ़ी था क्योंकि ये फैज़ की रचनाओं में ‘मेरे पसंदीदा’ वाले क्रम में से एक हैं. इस नज़्म की और इससे जुड़ी कई बातों की विवेचना बहुत अच्छी तरह से कवि केदारनाथ सिंह ने की.)

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

आलोक – २

रात का रिपोर्टर

टेलीफोन-बूथ के शीशे से बाहर वह दिखाई दी – एक छोटी-सी लड़की साइकिल के पिचके टायर को पेड़ की एक सूखी शाख से हाँकते हुए ले जा रही थी. टायर कभी आगे निकल जाता तो वह भागते हुए उसे पकड़ लेती, कभीं वह आगे निकल जाती और टायर का रबड़ कोलतार की चिपचिपाती सड़क पर अटक जाता, लड़खड़ाकर गिर जाता; वह पीछे मुड़कर उसे दुबारा उठाती, सीधा करती, अपनी शाख हवा में घुमाती और वह मरियल मेमने-सा फ़िर आगे-आगे लुढ़कता जाता.
 
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यह शुरुआत थी; सरसराते पेड़ के नीचे आतंक का एक चमचमाता चकत्ता उनके बीच चला आया. डर के आने के कितने गोपनीय रास्ते हैं, लेकिन जब वह सचमुच आता है, तो सब रास्ते अपने-आप बंद हो जाते हैं, सिर्फ़ वह रह जाता है – कैंसर के कीटाणु की तरह – जिसके आगे मरीज की सब छोटी बीमारियाँ अचानक ख़त्म हो जाती हैं. अस्पताल में उसकी पत्नी की दहशत – जैसे दीवार लांघकर – यहाँ चली आई थी, पेड़ के नीचे, सितम्बर की छाया में, जहाँ वह उसके सामने खड़े थे…. वे कुछ आगे झुक आए, बिलकुल उसके मुँह के पास, जहाँ उनकी साँस उसके चेहरे को छू रही थी ….
 
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वह लायब्रेरी की तरफ़ चलने लगा. कोई उसके पीछा नहीं कर रहा था – सिवाय उस डर के, जो वह सज्जन उसके पास छोड़ आए थे. सैंतीस साल की उम्र में उसने तरह-तरह के डर भागे थे, लेकिन वे उसके भीतर थे और उन्हें टोहने के लिए उसे नंगी सड़क पर पीछे मुड़-मुड़कर नहीं देखना पड़ता था. किन्तु यह एक बिलकुल नये किस्म का डर था, जिसका मतलब किसी भी शब्दकोश में नहीं था. उसका सीधा सम्बन्ध उसकी जन्मपत्री से था, जो उनकी फाइलों में बंद थी और जिसे वह कभी भी खोल सकते थे. वे सब निजी और प्राइवेट भेद, जिन्हें वह अब तक अपने अँधेरे में गुनता आया था, सहसा थिगलियों की तरह बाहर निकल आए थे…. अपनी गंध और गंदगी के साथ, जिसे कोई भी बाहर से देख़ सकता था, सूंघ सकता था. वह डर एक तरह का कोढ़ था, बाहर सितम्बर की धूप में बेलौस चमकता हुआ; हर कदम पर भ्रम होता था – लोग सशंकित निगाहों से उसे देख़ रहे हैं, अपने कपड़े बचाकर किनारे से निकल जाते हैं; उसकी बू सीधी आत्मा से बाहर आती है, जैसे पसीने की गंध शरीर से; ख़ुद को उसका पता नहीं चलता, लेकिन बाहर के लोग उसे एकदम सूंघ लेते हैं, चाहे वह मीलों दूर फोन पर ही क्यों न बात कर रहा हो….
 
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जिज्ञासा ? नहीं, हॉलबाख जिसे जिज्ञासा कहता था, वह कोई और चीज़ थी – जो उसे एक दुपहर स्टेट्समैन के दफ्तर ले गई थी. कितने दिन पहले की बात है ? जुलाई का शुरू रहा होगा; बारिश के पहले वाली उमस में दिल्ली उबल रही थी. दफ्तर में सिर्फ़ टाइपिस्ट थी और राय साहब अपने पेपर की डमी सेंसर के पास ले गये थे. उसके पास कुछ भी करने को नहीं था. “मैं ज़रा अस्पताल जा रहा हूँ,” उसने टाइपिस्ट से कहा और बाहर चला आया. उन दिनों सब जानते थे कि उसकी पत्नी कुछ दिन पहले ही अस्पताल में दाखिल हुई है. इसलिए कभी-कभी वह बिना किसी से कुछ कहे बाहर चला जाता था. कर्जन रोड की लाल बत्ती पर जब बस रुकी, तो वह नीचे उतर गया. तब उस क्षण उसके मन में कोई जिज्ञासा नहीं थी, न ही वह कोई संकल्प लेकर स्टेट्समैन के दफ्तर में चला आया था; सिर्फ़ अपने को थाहने की एक पागल और बेतुकी-बिलकुल बेढंगी लालसा ने जकड़ लिया था. जून की उस ‘तारीख़’ के बाद वह अक्सर सोचता था कि मेरे साथ कुछ हो रहा है…. कभी इतना हौसला नहीं होता था कि अपने से पूछ सके कि यह सब तुम्हे ही हो रहा है या कोई ऐसा ‘ग्रहण’ लगा है, जहाँ हर व्यक्ति का सूरज कुछ देर के लिए छिप गया है ? वह क्या उत्तर पाने के लिए स्टेट्समैन के दफ्तर गया था – अपनी नियति या इतिहास का अँधेरा रहस्य भेदने के लिए ?
 
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खाली मकान में कितनी आवाज़ें सुनाई देती हैं. कभी-कभी पता भी नहीं चलता, कौन-सी आवाज़ किस कोटर में छिपकली की तरह सोई थी और अब अचानक किस कमरे से लपक आई है? सब कमरों का चक्कर लगाकर वह माँ के कमरे में आता, तो एक तसल्ली-सी मिलती. वही एक कमरा बचा था, जिसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ था. अलग-थलग, मकान का भाग होता हुआ भी उसकी काल-गति से निपट अछूता, जैसे वहाँ मुद्दत से समय नें प्रवेश नहीं किया. कभी-कभी उसे आशंका होती थी कि वह दरवाज़ा खोलेगा और वहा माँ की जगह उनका अस्थि-पिंजर दिखाई देगा — पूरे एक साबुत फॉसिल की तरह ऊपर उठा हुआ….
 
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वह पलंग पर लेट गया, खिड़की के शीशों पर धीरे-धीरे सुबह की सफेदी उतर रही थी. चौकीदार के खट-खट कब की ख़त्म हो चुकी थी…सुबह की इस घड़ी में घर के सब खटके चुप हो जाते थे. न टेलीफोन की घंटी, न किसी आगंतुक की आशंका. वह चादर लपेटकर तकिये के सहारे अधलेटा-सा पसरा रहता. रात की बची-खुची नींद पलकों पर एक पर्दा-सा खींच जाती….जैसे फ़िल्म शुरू होने से पहले – सिनेमाघर के दरवाज़े बंद हो जाते है – और अँधेरे में सिर्फ़ एक चमकता स्क्रीन दिखाई देता है. वह दम रोके प्रतीक्षा करता रहता – जैसे उस पर कुछ होनेवाला हो; स्क्रीन के एक कोने में नर्सिंग होम दिखाई देता, दूसरे कोने में लायब्रेरी का कोना; नीचे बिंदु का घर और बिलकुल ऊपर राय साहब का दफ्तर – बीच में खाली जगह – जैसे नक्शों में रेगिस्तान की जगह खाली पड़ी रहती है….और तब वहाँ उसे एक भागता हु प्राणी दिखाई देता, कभी कोने की तरफ़ जाता हुआ, कभी दूसरे की तरफ़ से आता हुआ…कौन है यह ? वह अँधेरे में चमकते हुए परदे पर आँखें गड़ा देता और तब वह आदमी भागता हुआ उसकी तरफ़ आता….पास, बिलकुल पास, एकदम; और तब उसे अचानक झटका-सा लगता – यह मैन हूँ; एक ‘मैं’ दूसरे ‘मैं” की तरफ़ भागता हुआ, दोनों अलग-अलग, फ़िर भी एक चेहरे को धोरे हुए – टू इन वन. वह हडबडाकर उठ बैठा…. माँ देहरी पर खड़ी थीं, खिड़की से सुबह की रोशनी उनके सफ़ेद बालों पर गिर रही थी.
 
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सितम्बर का महीना और इतना ताप ! कभी-कभी उमस इतनी बढ़ जाती कि आकाश की जगह सिर्फ़ पीली छत दिखाई देती – धूल की छत – जिन्हें सिर्फ़ शहर की चीलें ही काट पाती थीं. वह उन्हें अखबार के दफ्तर से देखा करता था – इन चीलों को, जो कुदसिया बाग़ से होती हुई जामा मस्जिद पर आती थीं और वहाँ से उड़कर उर्दू बाज़ार की मांस की दुकानों पर चक्कर काटती थीं, शहर की उन काली अफवाहों की तरह जिन्हें हर आदमी सुनता था, सूंघता था और अनदेखा करके आगे भाग जाताथा, ताकि वे उसका पीछा न कर सकें….उन दिनों सारा शहर भागता-सा दिखाई देता था, मानो हर व्यक्ति को अंदेशा हो कि एक मिनिट कहीं ठहरे नहीं, कि पीछे आता बवंडर उस पर आ टूटेगा.
 
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क्या यह मुमकिन है ? सबकुछ भूल जाना, सिस्मृति के गड़हे में डुबो देना ? दौड़ते हुए उसे अनूप भाई का चेहरा दिखाई देता – उसे क्या मालूम था कि एक दिन वे तिहाड़ जेल में बैठे होंगे ? पता नहीं, उनके परिवार पर क्या गुज़र रही है ? क्या मैं उनसे मिलने भी नहीं जा सकता ? मुझे उन सब कामों की फेहरिस्त बनानी चाहिए, जिन्हें मैं इतने वर्षों से टालता आया हूँ; अब अधिक टालना सम्भव नहीं; अब समय इतना संकरा हो गया है कि उसमें जीवन की सबसे तात्कालिक, सबसे अर्जेंट चीज़ों को छांटकर अलग रखना होगा, जैसे हम किसी महायात्रा के लिये अपनी ज़रूरी चीज़ें छांटते हैं….लोग अमरनाथ, बदरीनाथ जाते हैं, किन्तु उसके लिये अपना शहर दिल्ली है, जहाँ हर यात्रा ऊपर हिमालय की धवल चोटी पर नहीं, कहीं बहुत नीचे पाताल में जाती है…..
 
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बिंदु को कुछ भी नहीं मालूम; दुनिया की सबसे विचित्र चीज़ यही है कि लोग, तुम्हारे निकटतम सगे-सम्बन्धी कुछ भी नहीं जानते. उन्हें आखीर तक कुछ भी मालूम नहीं होता. तुम चुप रहकर सबको अपने खतरों से बरी कर सकते हो; तुम मुस्करा सकते हो और वे सिर्फ़ तुम्हारी मुस्कराहट देख़ सकते हैं. फोन पर यह भी मुमकिन नहीं; सिर्फ़ बिंदु की आवाज़ सुनकर भीतर की दुनिया पर एक छांह-सी गिर जाती, ठंडी, तपते हुए मन पर पानी की एक बूँद, जिसे वह सँभाले रखता. रात को सोने से पहले सोचता, वह उसे कल सबकुछ बता देगा. फ़िर कल बीट जाता और उसे तसल्ली होती, एक दिन और बीत गया और उसके डर सिर्फ़ उसके भीतर है, एक छूत की बीमारी-सा, जिसे उसने अभी तक बिंदु को नहीं चूने दिया; वह अगर फैले नहीं, तो वह उसे अपने से बचा सकता है, डर सिर्फ़ दूसरे को छूकर ही आतंक बनता है….कायर आदमी की जीत सिर्फ़ इसमें है, अगर वह दूसरों को अपने डर से सुरक्षित रख सके….और वह सिर्फ़ झूठ और धोखे से संभव हो सकती है…..क्या अंतिम दिनों में भी सत्य का सहारा नहीं मिल सकता ?
 
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यह उसके लिए शरणस्थल-सा बन गया था – रात को घर, सुबह अस्पताल, और दुपहर की खाली, भायँ-भायँ करती घड़ियों में एक ऐसा घर जो उसे एक मुफस्सिल स्टेशन-सा जान पड़ता, जहाँ स्टेशन-मास्टर अपने केबिन की खिड़की से आने-जानेवाली गाड़ियों को देखता है…फर्क सिर्फ़ इतना था कि गाड़ियों के बजाय उसे शहर की बसें दिखाई देतीं, लॉन ककी फेंस के परे वे एक-दो मिनिट ठहरकर आगे बढ़ जातीं. लायब्रेरी कोई बड़ा स्टेशन नहीं था जहाँ उन्हें ज़्यादा देर ठहरना पड़ता, सिर्फ़ कोई स्कूल की लड़की या कोई दफ्तर का कर्मचारी या बेकार युवक वहाँ उतर जाते और वह उनके चेहरों से अनुमान लगाता, कौन आगे बढ़ जाएगा, कौन लायब्रेरी के गेट से भीतर आता दिखाई देगा…या कभी-कभी किसी उनींदी दुपहर के सन्नाटे में खोमचेवाले की आवाज़ या आइसक्रीम बेचनेवाले की घंटी सुनाई देती और वह चौंक जाता, रिपोर्ताज के जंगलों के बीच अचानक दिल्ली की आवाज़ें कुछ वैसी ही झिंझोड़ जातीं, जैसे शांत सुनहरी झील पर फेंका हुआ पत्थर….
 
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यह कैसा सच था जो मेरे मुँह से निकलकर इतना थोथा, इतना हास्यास्पद लग रहा था ? अगर वे उसकी बात सुनकर हँस पड़तीं, तो शायद उसे कोई आश्चर्य नहीं होता. लेकिन वे कहीं दूर देख़ रही थीं आंसुओं के झिलमिले में दिन की डूबती रोशनी को, जहाँ बच्ची थी, झाड़ियों के पीछे खेलती हुई. वे उसे भूल गयी थीं. वे अपने गुडमुड़ी रुमाल से आँखें पोंछ रही थीं. और तब सहसा मुझे लगा, इतिहास की विपत्तियाँ इसी तरह टलती होंगी – थोड़ा-सा रोने में, चुप्पी के अंतरालों में, रात की नींद और दूसरी सुबह की प्रतीक्षा में….. जब उन्होंने सिर उठाया, तो पता नहीं, बीच में कितने युग बीत गए थे.
 
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उसका सिर नींद में घूमता हुआ टाइपराइटर पर टिक गया. कुछ देर तक कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी, सिर्फ़ एक प्रश्न मक्खी की तरह उसकी थकी, उद्भ्रान्त नसों के बीच मंडराता रहा – अगर वह सच था, उस रात का, गहन, विराट अनुभव, तो वह मेरे रिपोर्ताज में कहीं कोई जगह क्यों नहीं पा सका ? उसे लिखते हुए मैं हमेशा इतना आतंकित क्यों हो जाता रहा ? और तब उसे लगा, खोट उसके रिपोर्ताज में नहीं, कहीं उसके भीतर के रिपोर्टर में है, जो पिछले वर्षों के दौरान इतने झूठों और छलनाओं के बीच पनपा है. यह बाहर का सेंसर नहीं, कहीं भीतर का पर्दा था, जो अंतिम मौके पर किसी बहुमूल्य सत्य को छिपा लेता था….. क्या इसी कारण राय साहब मुझे आत्मकथा लिखने के लिए कहते थे, ताकि मैं उस हादसे का सामना कर सकूँ, जिसने एक कैंची की तरह मेरी ज़िन्दगी को दो हिस्सों में काट दिया था ?
 
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क्या यह हॉलबाख ने दुबारा फोन किया था ? फ़िर बोला क्यों नहीं ? क्या उसे अचानक किसी खतरे की टोह मिल गयी थी – और उसने चुप रहना बेहतर समझा ? एक बेबस-सी इच्छा उठी – अभी घर से बाहर निकल जाए और
हॉलबाख के अपार्टमेन्ट में चला जाए, जैसे पिछले दिनों के सब प्रश्नों का कोई एक उत्तर – जो उसे आज तक भरमाता रहा है – सिर्फ़ हॉलबाख के पास मिल सकता है. उसने ही तो पहली बार मुझे बताया था कि दुनिया में जो कुछ अब तक घट चुका है, उसे हर आदमी अपनी छोटी ज़िन्दगी में भोगता है – चौरासी लाख योनियों की एक यातना ! क्या वह इसीलिए हिन्दुस्तान आया था ? हर जगह घूमता था, लद्दाख, नेपाल, और अब सीलोन – और जब कभी अपनी लम्बी यात्राओं से लौटता, उसके फोन की घंटी सुनाई देती, चाहे आधी रात क्यों न हो – क्या तुम आ सकते हो ? मैं सिक्किम की रम लाया हूँ….मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है, टैक्सी लो और आ जाओ…मैं कल फ़िर बाहर जा रहा हूँ, फ़िर पता नहीं कब मिलना होगा ?
 
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और तब पहली बार रिशी को लगा – वह मृत आदमी है. वह देर तक फटी चिट्ठियों के ढेर के सामने बैठा रहा….जीकर भी मृत होना, क्या यही सत्य लेकर
हॉलबाख के वाइकिंग समुद्री थपेड़ों पर अपने को छोड़ देते थे ? क्या यह वही अनमोल सत्य था, जिसे देने के लिए वह सज्जन उस दिन उसके पास लायब्रेरी आए थे ?
 
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क्या उन सबको मालूम था कि उनके साथ क्या होने वाला है ? लाखों साल पुराने पत्थर, पानी, घास, जन्तु, जंगल….सबको अपनी नियति ज्ञात है. सिर्फ़ आदमी ही एक ऐसा जीव है जो, न जाने क्यों, न जानने का बहाना करता है. कभी-कभी उसे एक पागल-सी इच्छा जकड़ लेती – वह चौराहे पर खड़ा हो जाए, ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह हाथ उठाकर आने-जानेवाले लोगों को रोक ले, उनका कॉलर पकड़कर उन्हें घसीटता हुआ उस ज्ञान के ढेर पर ले जाए, बिलकुल वैसे ही जैसे घर के कुत्ते को हम उसके गू की ढेरी ले जाते हैं – और तब तक उस पर नाक रगड़ते हैं, जब तक उसे पता नहीं चल जाता की यह उसकी चीज़ है, उसकी देह से बाहर निकली है, वह इससे कतराकर भाग नहीं सकता. कितना अजीब है आदमी ! ख़ुद अपने ज्ञान की दुर्गन्ध से दूर भागता रहता है – ज़िन्दगी-भर.
 
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एक क्षण अजीब-सा भ्रम हुआ कि वह दिल्ली की सड़कों पर नहीं, कहीं भूले से बस्तर के जंगल में चला आया है – वैसे ही भक-भक आग जला करती थी, घोटुल के चारों ओर फैली चाँदनी, धुंए के गुंजल, दूर से ढोलक का धूमिल, मादक स्वर चला आता, जिसे सुनते ही जंगल के काले झुरमुटों से, पता नहीं कितने पुराने देवी-देवता बाहर निकल आते थे….ढोलक और चाँदनी और महुआ में महकती, लपलपाती आग के चारों ओर घूमने लगते; आग, जो सबकुछ खा लेती है – कागज़, मुर्दे, हड्डियाँ – सृष्टि का समूचा मांसल, कायलोक.

(मित्र का पूछना था कि तुमने सिनेमा और संगीत से अलग जाने का क्यों सोचा ?….मैंने कोई कसम थोड़े ही खाई थी. बहरहाल, निर्मल जी पर शुरू इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में बात हो रही है ” रात का रिपोर्टर ” के द्वारा. यहाँ ज़िक्र कर रहा हूँ उन्ही खण्डों का जो शायद इस उपन्यास को किसी हद तक स्थापित करते हैं. इस उपन्यास को मैंने काफ़ी रहस्य से भरा हुआ पाया. जहाँ ” वे दिन” में प्रेम का प्रायोगिक और सुन्दर चित्र बनाया गया है, उससे इतर यहाँ ‘ धुकधुकी ‘ जैसे अजीब-से शब्दों की बहुलता के साथ ये रहस्य और डर का भण्डार बन गया है. कहानी का नायक डाईलेक्टिक किस्म के प्रेम में फंसा हुआ जान पड़ता है, जहाँ वो कभी अपनी पत्नी के सेवाभाव को संजो कर द्रवित होता है, तो कभी अपनी प्रेमिका के “साथ निभाने ” को देख गौरवान्वित होता है. ये कुछ-कुछ अल्फ्रेड हिचकॉक की फ़िल्मों के उस हल्के से डर की याद दिलाता है जो बड़े आहिस्ता से स्नायुओं में घुल जाता है.)